कांग्रेस के अधिवेशन को एक-दो दिन की देर थी। मैंने निश्चय किया था कि कांग्रेस के कार्यालय में मेरी सेवा स्वीकार की जाए, तो सेवा करूँ और अनुभव लूँ।
जिस दिन हम पहुँचे उसी दिन नहा-धोकर मैं कांग्रेस के कार्यालय में गया। श्री भूपेंद्रनाथ बसु और श्री घोषाल मंत्री थे। मैं भूपेंद्रबाबू के पास पहुँचा और सेवा
की माँग की। उन्होंने मेरी ओर देखा और बोले, 'मेरे पास तो कोई काम नहीं है, पर शायद मि. घोषाल आपको कुछ काम दे सकेंगे। उनके पास जाइए।'
मैं घोषालबाबू के पास गया। उन्होंने मुझे ध्यान से देखा और जरा हँस कर मुझ से पूछा, 'मेरे पास तो क्लर्क का काम है, आप करेंगे?'
मैंने उत्तर दिया, 'अवश्य करूँगा। मेरी शक्ति से बाहर न हो, ऐसा हर काम करने के लिए मैं आपके पास आया हूँ।'
'नौजवान, यही सच्ची भावना है।' और पास बगल में खड़े स्वयंसेवकों की ओर देखकर बोले, 'सुनते हो, यह युवक क्या कह रहा है?'
फिर मेरी ओर मुड़कर बोले, 'तो देखिए, यह तो है पत्रों का ढेर, और यह मेरे सामने कुर्सी है। इस पर आप बैठिए। आप देखते है कि मेरे पास सैकड़ो आदमी आते रहते हैं।
मैं उनसे मिलूँ या इन बेकार पत्र लिखनेवालों को उनके पत्रों का जवाब लिखूँ? मेरे पास ऐसे क्लर्क नहीं हैं, जिनसे यह काम ले सकूँ। पर आप सबको देख जाइए। जिसकी
पहुँच भेजना उचित समझें उसकी पहुँच भेज दीजिए। जिसके जवाब के बारे में मुझ से पूछना जरूरी समझें, मुझे पूछ लीजिए।' मैं तो इस विश्वास से मुग्ध हो गया।
श्री घोषाल मुझे पहचानते न थे। नाम-धाम जानने का काम तो उन्होंने बाद में किया। पत्रों का ढेर साफ करने का काम मुझे बहुत आसान लगा। अपने सामने रखे हुए ढेर को
मैंने तुरंत निबटा दिया। घोषालबाबू खुश हुए। उनका स्वभाव बातूनी था। मैं देखता था बातों में वे अपना बहुत समय बिता देते थे। मेरा इतिहास जानने के बाद तो मुझे
क्लर्क का काम सौंपने के लिए वे कुछ लज्जित हुए। पर मैंने उन्हें निश्चिंत कर दिया, 'कहाँ आप और कहाँ मैं? आप कांग्रेस के पुराने सेवक है, मेरे गुरुजन है। मैं
एक अनुभवहीन नवयुवक हूँ। यह काम सौंपकर आपने मुझ पर उपकार ही किया है, क्योंकि मुझे कांग्रेस में काम करना है। उसके कामकाज की समझने का आपने मुझे अलभ्य अवसर
दिया है।'
घोषालबाबू बोले, 'असल में यही सच्ची वृत्ति है। पर आज के नवयुवक इसे नहीं मानते। वैसे मैं तो कांग्रेस को उसके जन्म से जानता हूँ। उसे जन्म देने में मि. ह्यूम
के साथ मेरा भी हिस्सा था।'
हमारे बीच अच्छी मित्रता हो गई। दोपहर के भोजन में उन्होंने मुझे अपने साथ ही रखा। घोषालबाबू के बटन भी 'बैरा' लगाता था। यह देखकर 'बैरे' का काम मैंने ही ले
लिया। मुझे वह पसंद था। बड़ों के प्रति मेरे मन में बहुत आदर था। जब वे मेरी वृत्ति समझ गए तो अपनी निजी सेवा के सारे काम मुझसे लेने लगे। बटन लगाते समय मुझे
मुसकराकर कहते, 'देखिए न, कांग्रेस के सेवक को बटन लगाने का भी समय नहीं मिलता, क्योंकि उस समय भी उसे काम रहता है!'
इस भोलेपन पर मुझे हँसी तो आई, पर ऐसी सेवा के प्रति मन में थोड़ी अरुचि उत्पन्न न हुई। और मुझे जो लाभ हुआ, उसकी तो कीमत आँकी ही नहीं जा सकती।
कुछ ही दिनों में मुझे कांग्रेस की व्यवस्था का ज्ञान हो गया। कई नेताओं से भेंट हुई। गोखले, सुरेंद्रनाथ आदि योद्धा आते-जाते रहते थे। मैं उनकी रीति-नीति देख
सका। वहाँ समय की जो बरबादी होती थी, उसे भी मैंने अनुभव किया। अंग्रेजी भाषा का प्राबल्य भी देखा। इससे उस समय भी मुझे दुख हुआ था। मैंने देखा कि एक आदमी से हो
सकनेवाले काम में अनेक आदमी लग जाते थे, और यह भी देखा कि कितने ही महत्वपूर्ण काम कोई करता ही न था।
मेरा मन इस सारी स्थिति की टीका किया करता था। पर चित्त उदार था, इसलिए वह मान लेता था कि जो हो रहा है, उसमें अधिक सुधार करना संभव न होगा। फलतः मन में किसी के
प्रति अरुचि पैदा न होती थी।