कालीमाता के निमित्त से होनेवाला विकराल यज्ञ देखकर बंगाली जीवन को जानने की मेरी इच्छा बढ़ गई। ब्रह्मसामाज के बारे में तो मैं काफी पढ़-सुन चुका था। मैं
प्रतापचंद्र मजूमदार का जीवनवृत्तान्त थोड़ा जानता था। उनके व्याख्यान मैं सुनने गया था। उनका लिखा केशवचंद्र सेन का जीवनवृत्तान्त मैंने प्राप्त किया और उसे
अत्यंत रस पूर्वक पढ़ गया। मैंने साधारण ब्रह्मसमाज और आदि ब्रह्मसमाज का भेद जाना। पंडित विश्वनाथ शास्त्री के दर्शन किए। महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर के दर्शनों
के लिए मैं प्रो. काथवटे के साथ गया। पर वे उन दिनों किसी से मिलते न थे, इससे उनके दर्शन न हो सके। उनके यहाँ ब्रह्मसमाज का उत्सव था। उसमें सम्मिलित होने का
निमंत्रण पाकर हम लोग वहाँ गए थे और वहाँ उच्च कोटि का बंगाली संगीत सुन पाए थे। तभी से बंगाली संगीत के प्रति मेरा अनुराग बढ़ गया।
ब्रह्मसमाज का यथासंभव निरीक्षण करने के बाद यह तो हो ही कैसे सकता था कि मैं स्वामी विवेकानंद के दर्शन न करूँ? मैं अत्यंत उत्साह के साथ बेलूर मठ तक लगभग पैदल
पहुँचा। मुझे इस समय ठीक से याद नहीं है कि मैं पूरा चला था या आधा। मठ का एकांत स्थान मुझे अच्छा लगा था। यह समाचार सुनकर मैं निराश हुआ कि स्वामीजी बीमार है,
उनसे मिला नहीं जा सकता और वे अपने कलकत्तेवाले घर में है। मैंने भगिनी निवेदिता के निवासस्थान का पता लगाया। चौरंगी के एक महल में उनके दर्शन किए। उनकी
तड़क-भड़क से मैं चकरा गया। बातचीत में भी हमारा मेल नहीं बैठा।
गोखले से इसकी चर्चा की। उन्होंने कहा, 'वह बड़ी तेज महिला है। अतएव उससे तुम्हारा मेल न बैठे, इसे मैं समझ सकता हूँ।'
फिर एक बार उनसे मेरी भेंट पेस्तनजी पादशाह के घर हुई थी। वे पेस्तनजी की वृद्धा माता को उपदेश दे रही थी, इतने में मैं उनके घर जा पहुँचा था। अतएव मैंने उनके
बीच दुभाषिए का काम किया था। हमारे बीच मेल न बैठते हुए भी इतना तो मैं देख सकता था कि हिंदू धर्म के प्रति भगिनी का प्रेम छलका पड़ता था। उनकी पुस्तकों का
परिचय मैंने बाद में किया।
मैंने दिन के दो भाग कर दिए थे। एक भाग मैं दक्षिण अफ्रीका के काम के सिलेसिले में कलकत्ते में रहनेवाले नेताओं से मिलने में बिताता था, और दूसरा भाग कलकत्ते की
धार्मिक संस्थाएँ और दूसरी सार्वजनिक संस्थाएँ देखने में बिताता था।
एक दिन बोअर-युद्ध में हिंदुस्तानी शुश्रषा-दल में जो काम किया था, उस पर डॉ. मलिक के सभापतित्व में मैंने भाषण किया। 'इंलिश मैन' के साथ मेरी पहचान इस समय भी
बहुत सहायक सिद्ध हुई। मि. सॉंडर्स उन दिनों बीमार थे, पर उनकी मदद तो सन 1896 में जितनी मिली थी, उतनी ही इस समय भी मिली। यह भाषण गोखले को पसंद आया था और जब
डॉ. राय ने मेरे भाषण की प्रशंसा की तो वे बहुत खुश हुए थे।
यों, गोखले की छाया में रहने से बंगाल में मेरा काम बहुत सरल हो गया था। बंगाल के अग्रगण्य कुटुंबों की जानकारी मुझे सहज ही मिल गई और बंगाल के साथ मेरा निकट
संबंध जुड़ गया। इस चिरस्मरणीय महीनें के बहुत से संस्मरण मुझे छोड़ देने पड़ेंगे। उस महीने में मैं ब्रह्मदेश का भी एक चक्कर लगा आया था। वहाँ के फुंगियों से
मिला था। उनका आलस्य देखकर मैं दुखी हुआ था। मैंने स्वर्ण-पैगोड़ा के दर्शन किए। मंदिर में असंख्य छोटी-छोटी मोमबत्तियाँ जल रही थी। वे मुझे अच्छी नहीं लगी।
मंदिर के गर्भगृह में चूहों को दौड़ते देखकर मुझे स्वामी दयानंद के अनुभव का स्मरण हो आया। ब्रह्मदेश की महिलाओं की स्वतंत्रता, उनका उत्साह और वहाँ के पुरुषों
की सुस्ती देखकर मैंने महिलाओं के लिए अनुराग और पुरुषो के लिए दुख अनुभव किया। उसी समय मैंने यह भी अनुभव किया कि जिस तरह बंबई हिंदुस्तान नहीं है, उसी तरह
रंगून ब्रह्मदेश नहीं है, और जिस प्रकार हम हिंदुस्तान में अंग्रेज व्यापारियों के कमीशन एजेंट या दलाल बने हुए है, उसी प्रकार ब्रह्मदेश में हमने अंग्रेजों के
साथ मिलकर ब्रह्मदेशवासियो को कमीशन एजेंट बनाया है।
ब्रह्मदेश से लौटने के बाद मैंने गोखले से बिदा ली। उनका वियोग मुझे अखरा, पर बंगाल - अथवा सच कहा जाय तो कलकत्ते का -- मेरा काम पूरा हो चुका था।
मैंने सोचा था कि धंधे में लगने से पहले हिंदुस्तान की एक छोटी-सी यात्रा रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में करूँगा और तीसरे दर्जें में यात्रियों का परिचय प्राप्त
करके उनका कष्ट जान लूँगा। मैंने गोखले के सामने अपना यह विचार रखा। उन्होंने पहले तो उसे हँस कर उड़ा दिया। पर जब मैंने इस यात्रा के विषय में अपनी आशाओं का
वर्णन किया, तो उन्होंने प्रसन्नता-पूर्वक मेरी योजना को स्वीकृति दे दी। मुझे पहले तो काशी जाना था और वहाँ पहुँचकर विदुषी एनी बेसेंट के दर्शन करने थे। वे उस
समय बीमार थी।
इस यात्रा के लिए मुझे नया सामान जुटाना था। पीतल का एक डिब्बा गोखले ने ही दिया और उसमें मेरे लिए बेसन के लड्डू और पूरियाँ रखवा दी। बारह आने में किरमिच का एक
थैला लिया। छाया (पोरबंदर के पास के एक गाँव) की ऊन का एक ओवरकोट बनवाया। थैले में यह ओवरकोट, तौलिया, कुर्ता और धोती थी। ओढने को एक कंबल था। इसके अलावा एक
लोटा भी साथ में रख लिया था। इतना सामान लेकर मैं निकला।
गोखले और डॉ. राय मुझे स्टेशन तक पहुँचाने आए। मैंने दोनों से न आने की बिनती की। पर दोनों ने आने का अपना आग्रह न छोड़ा। गोखले बोले, 'तुम पहले दर्जे में जाते
तो शायद मैं न चलता, पर अब तो मुझे चलना ही पड़ेगा।'
प्लेटफार्म पर जाते समय गोखले को किसी ने नहीं रोका। उन्होंने अपनी रेशमी पगड़ी बाँधी और धोती तथा कोट पहना था। डॉ. राय ने बंगाली पोशाक पहनी थी, इसलिए
टिकट-बाबू में पहले तो उन्हें अंदर जाने से रोका, पर जब गोखले ने कहा, 'मेरे मित्र है।' तो डॉ. राय भी दाखिल हुए। इस तरह दोनों ने मुझे बिदा किया।