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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
तीसरा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 20. काशी में पीछे     आगे

यह यात्रा कलकत्ते से राजकोट तक की थी। इसमें काशी, आगरा, जयपुर, पालनपुर और राजकोट जाना था। इतना देखने के बाद अधिक समय कहीं देना संभव न था। हर जगह मैं एक-एक दिन रहा था। पालनपुर के सिवा सब जगह मैं धर्मशाला में अथवा यात्रियों की तरह पंडों के घर ठहरा। जैसा कि मुझे याद है, इतनी यात्रा में गाड़ी-भाड़े के सहित मेरे कुल इकतीस रुपए खर्च हुए थे। तीसरे दर्जे की यात्रा में भी मैं अकसर डाकगाड़ी छोड़ देता था, क्योंकि मैं जानता था कि उसमें अधिक भीड़ होती है। उसका किराया भी सवारी (पैसेंजर) गाड़ी के तीसरे दर्जे के किराए से अधिक होता था। यह एक अड़चन तो थी ही।

तीसरे दर्जें के डिब्बों में गंदगी और पाखानों की बुरी हालत तो जैसी आज है, वैसी ही उस समय भी थी। आज शायद थोड़ा सुधार हो तो बात अलग है। पर पहले और तीसरे दर्जे के बीच सुभीतों का फर्क मुझे किराए के फरक से कहीं ज्यादा जान पड़ा। तीसरे दर्जे के यात्री भेड़-बकरी समझे जाते हैं और सुभीते के नाम पर उनको भेड़-बकरियों के से डिब्बे मिलते हैं। यूरोप में तो मैंने तीसरे ही दर्जे में यात्रा की थी। अनुभव की दृष्टि से एक बार पहले दर्जे में भी यात्रा की थी। वहाँ मैंने पहले और तीसरे दर्जे के बीच यहाँ के जैसा फर्क नहीं देखा। दक्षिण अफ्रीका में तीसरे दर्जे के यात्री अधिकतर हब्शी ही होते है। लेकिन वहाँ के तीसरे दर्जे में भी यहाँ के तीसरे दर्जे से अधिक सुविधाएँ है। कुछ प्रदेशों में तो वहाँ तीसरे दर्जें में सोने की सुविधा भी रहती है और बैठकें गद्दीदार होती हैं। हर खंड में बैठनेवाले यात्रियों की संख्या की मर्यादा का ध्यान रखा जाती है। यहाँ तो तीसरे दर्जे में संख्या की मर्यादा पाले जाने का मुझे कोई अनुभव ही नहीं है।

रेलवे-विभाग की ओर से होनेवाली इन असुविधाओं के अलावा यात्रियों की गंदी आदतें सुघड़ यात्री के लिए तीसरे दर्जे की यात्रा को दंड-स्वरूप बना देती है। चाहे जहाँ थूकना, चाहे जहाँ कचरा डालना, चाहे जैसे और चाहे जब बीड़ी पीना, पान-तंबाकू चबाना और जहाँ बैठे वहीं उसकी पिचकारियाँ छोड़ना, फर्श पर जूठन गिराना, चिल्ला-चिल्ला कर बातें करना, पास में बैठे हुए आदमी की सुख-सुविधा का विचार न करना और गंदी बोली बोलना - यह तो सार्वत्रिक अनुभव है।

तीसरे दर्जे की यात्रा के अपने 1902 के अनुभव में और 1915 और 1919 तक के मेरे अनुभव दूसरी बार के ऐसे ही अखंड अनुभव में मैंने बहुत अंतर नहीं पाया। इस महाव्याधि का एक ही उपाय मेरी समझ में आया है, और वह यह कि शिक्षित समाज को तीसरे दर्जे में ही यात्रा करनी चाहिए और लोगों की आदतें सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। इसके अलावा, रेलवे विभाग के अधिकारियों को शिकायत कर करके परेशान कर डालना चाहिए, अपने लिए कोई सुविधा प्राप्त करने या प्राप्त सुविधा की रक्षा करने के लिए घूस-रिश्वत नहीं देनी चाहिए और उनके एक भी गैरकानूनी व्यवहार को बरदाश्त नहीं करना चाहिए।

मेरा यह अनुभव है कि ऐसा करने से बहुत कुछ सुधार हो सकता है। अपनी बीमारी के कारण मुझे सन 1920 से तीसरे दर्जे की यात्रा लगभग बंद कर देनी पड़ी है, इसका दुख और लज्जा मुझे सदा बनी रहती है। और वह भी ऐसे अवसर पर बंद करनी पड़ी, जब तीसरे दर्जे के यात्रियों की तकलीफों को दूर करने का काम कुछ ठिकाने लग रहा था। रेलों और जहाजों में गरीब यात्रियों को भोगने पड़ते कष्टो में होनेवाली वृद्धि, व्यापार के निमित्त से विदेशी व्यापार को सरकार की ओर से दी जानेवाली अनुचित सुविधाएँ आदि बातें इस समय हमारे लोक-जीवन की बिलकुल अलग और महत्व की समस्या बन गई है। अगर इसे हल करने में एक-दो चतुर और लगनवाले सज्जन अपना पूरा समय लगा दे, तो अधिक नहीं कहा जाएगा।

पर तीसरे दर्जे की यात्रा की इस चर्चा को अब यहीं छोड़कर मैं काशी के अनुभव पर आता हूँ। काशी स्टेशन पर मैं सबेरे उतरा। मुझे किसी पंडे के ही यहाँ उतरना था। कई ब्राह्मणों ने मुझे घेर लिया। उनमें से जो मुझे थोड़ा सुघड़ और सज्जन लगा, उसका घर मैंने पसंद किया। मेरा चुनाव अच्छा सिद्ध हुआ। ब्राह्मण के आँगन में गाय बँधी थी। ऊपर एक कमरा था। उसमें मुझे ठहराया गया। मैं विधि-पूर्वक गंगा-स्नान करना चाहता था। पंडे ने सब तैयारी की। मैंने उससे कह रखा था कि मैं सवा रुपए से अधिक दक्षिणा नहीं दे सकूँगा, अतएव उसी के लायक तैयारी वह करे। पंडे ने बिना झगड़े के मेरी बिनती स्वीकार कर ली। वह बोला, 'हम लोग अमीर-गरीब सब लोगों को पूजा तो एक सी ही कराते है। दक्षिणा यजमान की इच्छा और शक्ति पर निर्भर करती है।' मेरे खयाल से पंडा जी में पूजा-विधि में कोई गड़बड़ी नहीं थी। लगभग बारह बजे इससे फुरसत पाकर मैं काशीविश्वनाथ के दर्शन करने गया। वहाँ जो कुछ देखा उससे मुझे दुख ही हुआ।

सन 1991 में जब मैं बंबई में वकालत करता था, तब एक बार प्रार्थना-समाज के मंदिर में 'काशी की यात्रा' विषय पर व्याख्यान सुना था। अतएव थोड़ी निराशा के लिए तो मैं पहले से तैयार ही था। पर वास्तव में जो निराशा हुई, वह अपेक्षा से अधिक थी।

संकरी, फिसलनवाली गली में से होकर जाना था। शांति का नाम भी नहीं था। मक्खियों की भिनभिनाहट और यात्रियों और दुकानदारों को कोलाहल मुझे असह्य प्रतीत हुआ।

जहाँ मनुष्य ध्यान और भगवत चिंतन की आशा रखता है, वहाँ उसे इनमें से कुछ भी नहीं मिलता! यदि ध्यान की जरूरत हो तो वह अपने अंतर में से पाना होगा। अवश्य ही मैंने ऐसी श्रद्धालु बहनों को भी देखा, जिन्हें इस बात का बिलकुल पता न था कि उनके आसपास क्या हो रहा है। वे केवल अपने ध्यान में ही निमग्न थी। पर इस प्रबंधकों का पुरुषार्थ नहीं माना जा सकता। काशी-विश्वनाथ के आसपास शांत, निर्मल, सुगंधित और स्वच्छ वातावरण - बाह्य एवं आंतरिक - उत्पन्न करना और उसे बनाए रखना प्रबंधको का कर्तव्य होना चाहिए। इसके बदले वहाँ मैंने ठग दुकानदारों का बाजार देखा, जिसमें नए से नए ढंग की मिठाइयाँ और खिलोने बिकते थे।

मंदिर में पहुँचने पर दरवाजे के सामने बदबूदार सड़े हुए फुल मिले। अंदर बढ़िया संगमरमर का फर्श था। पर किसी अंध श्रद्धालु ने उसे रुपयों से जड़वाकर खराब कर डाला था और रुपयों में मैल भर गया था।

मैं ज्ञानवापी के समीप गया। वहाँ मैंने ईश्वर को खोजा, पर वह न मिला। इससे मैं मन ही मन क्षुब्ध हो रहा था। ज्ञानवापी के आसपास भी गंदगी देखी। दक्षिणा के रूप में कुछ चढ़ाने की श्रद्धा नहीं थी। इसलिए मैंने सचमुच ही एक पाई चढ़ाई, जिससे पुजारी पंडाजी तमतमा उठे। उन्होंने पाई फैक दी। दो-चार गालियाँ देकर बोले, 'तू यो अपमान करेगा तो नरक में पड़ेगा।'

मैं शांत रहा। मैंने कहा, 'महाराज, मेरा तो जो होना होगा सो होगा, पर आपके मुँह में गाली शोभ नहीं देती। यह पाई लेनी हो तो लीजिए, नहीं तो यह भी हाथ से जाएगी।'

'जा, तेरी पाई मुझे नहीं चाहिए, 'कह कर उन्होंने मुझे दो-चार और सुना दीं। मैं पाई लेकर चल दिया। मैंने माना कि महाराज ने पाई खोई और मैंने बचाई। पर महाराज पाई खोनेवाले नहीं थे। उन्होंने मुझे वापस बुलाया और कहा, 'अच्छा, धर दे। मैं तेरे जैसा नहीं होना चाहता। मैं न लूँ तो तेरा बुरा हो।'

मैंने चुपचाप पाई दे दी और लंबी साँस लेकर चल दिया। इसके बाद मैं दो बार और काशी-विश्वनाथ के दर्शन कर चुका हूँ, पर वह तो 'महात्मा' बनने के बाद। अतएव 1902 के अनुभव तो फिर कहाँ से पाता! मेरा 'दर्शन' करनेवाले लोग मुझे दर्शन क्यों करने देते? 'महात्मा' के दुख तो मेरे जैस 'महात्मा' ही जानते है। अलबत्ता, गंदगी और कोलाहल तो मैंने पहले के जैसा ही पाया।

किसी को भगवान की दया के विषय में शंका हो, तो उसे ऐसे तीर्थक्षेत्र देखने चाहिए। वह महायोगी अपने नाम पर कितना ढोग, अधर्म, पाखंड इत्यादि सहन करता है? उसने तो कह रखा है :

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

अर्थात 'जैसी करनी वैसी भरनी। 'कर्म को मिथ्या कौन कर सकता है? फिर भगवान को बीच में पड़ने की जरूरत ही क्या है? वह तो अपने कानून बनाकर निवृत्त-सा हो गया है।

यह अनुभव लेकर मैं मिसेज बेसेंट के दर्शन करने गया। मैं जानता था कि वे हाल ही बीमारी से उठी है। मैंने अपना नाम भेजा। वे तुरंत आईं। मुझे तो दर्शन ही करने थे, अतएव मैंने कहा, 'मुझे आपके दुर्बल स्वास्थ्य का पता है। मैं तो सिर्फ आपके दर्शन करने आया हूँ। दुर्बल स्वास्थ्य के रहते भी आपने मुझे मिलने की अनुमति दी, इसी से मुझे संतोष है। मैं आपका अधिक समय नहीं लेना चाहता।'

यह कहकर मैंने बिदा ली।


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