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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
तीसरा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 22. धर्म-संकट पीछे     आगे

मैंने जैसे दफ्तर किराए पर लिया, वैसे ही गिरगाँव में घर भी लिया। पर ईश्वर ने मुझे स्थिर न होने दिया। घर लिए अधिक दिन नहीं हुए थे कि इतने में मेरा दूसरा लड़का बहुत बीमार हो गया। उसे कालज्वर ने जकड़ लिया। ज्वर उतरता न था। बेचैनी भी थी। फिर रात में सन्निपात के लक्षण भी दिखाई पड़े। इस बीमारी के पहले बचपन में उसे चेचक भी बहुत जोर की निकल चुकी थी।

मैंने डॉक्टर की सलाह ली। उन्होंने कहा, 'इसके लिए दवा बहुत कम उपयोगी होगी। इसे तो अंडे और मुर्गी का शोरवा देने की जरूरत है।'

मणिलाल की उमर दस साल की थी। उससे मैं क्या पूछता? अभिभावक होने के नाते निर्णय तो मुझी को करना था। डॉक्टर एक बहुत भले पारसी थे। मैंने कहा, 'डॉक्टर, हम सब अन्नाहारी है। मेरी इच्छा अपने लड़के को इन दो में से एक भी चीज देने की कोई उपाय नहीं बताइएगा?'

डॉक्टर बोले, 'आपके लड़के के प्राण संकट में है। दूध और पानी मिलाकर दिया जा सकता है, पर इससे उसे पूरा पोषण नहीं मिल सकेगा। जैसा कि आप जानते हैं, मैं बहुतेरे हिंदू कुटुम्बो में जाता हूँ। पर दवा के नाम पर तो हम उन्हें जो चीज दें, वे ले लेते है। मैं सोचता हूँ कि आप अपने लड़के पर ऐसी सख्ती न करे तो अच्छा हो।'

'आप कहते है, सो ठीक है। आपको यही कहना भी चाहिए। मेरी जिम्मेदारी बहुत बड़ी है। लड़का बड़ा होता तो मैं अवश्य ही उसकी इच्छा जानने का प्रयत्न करता और वह जो चाहता उसे करने देता। यहाँ तो मुझे ही इस बालक के बारे में निर्णय करना है। मेरा खयाल है कि मनुष्य के धर्म की परीक्षा ऐसे ही समय होती है। सही हो या गलत, पर मैंने यह धर्म माना है कि मनुष्यों के माँसादि न खाना चाहिए। जीवन के साधनों की भी सीमा होती है। कुछ बातें ऐसी है, जो जीने के लिए भी हमें नहीं करनी चाहिए। मेरे धर्म की मर्यादा मुझे अपने लिए और अपने परिवार वालो के लिए ऐसे समय भी मांस इत्यादि का उपयोग करने से रोकती है। इसलिए मुझे वह जोखिम उठानी ही होगी, जिसकी आप कल्पना करते है। पर आपसे में एक चीज माँग लेता हूँ। आपका उपचार तो मैं नहीं करूँगा, किंतु मुझे इस बच्चे की छाती, नाड़ी इत्यादि देखना नहीं आता। मुझे पानी के उपचारों का थोड़ा ज्ञान है। मैं उन उपचारों को आजमाना चाहता हूँ। पर यदि आप बीच-बीच में मणिलाल की तबीयत देखने आते रहेंगे और उसके शरीर में होनेवाले फेरफारों की जानकारी मुझे देते रहेंगे तो मैं आपका उपकार मानूँगा।'

सज्जन डॉक्टर ने मेरी कठिनाई समझ ली और मेरी प्रार्थना के अनुसार मणिलाल को देखने आना कबूल कर लिया।

यद्यपि मणिलाल स्वयं निर्णय करने की स्थिति में नहीं था, फिर भी मैंने उसे डॉक्टर के साथ हुई चर्चा सुना दी और उससे कहा कि वह अपनी राय बताए।

'आप खुशी से पानी के उपचार कीजिए। मुझे न शोरवा पीना है, और न अंडे खाने है।'

इस कथन से मैं खुश हुआ, यद्यपि मैं समझता था कि मैंने उसे ये दोनों चीजें खिलाई होती तो वह खा भी लेता।

मैं लुई कूने के उपचार जानता था। उसके प्रयोग भी मैंने किए थे। मैं यह भी जानता था कि बीमारी में उपवास का बड़ा स्थान है। मैंने मणिलाल को कूने की रीति से कटिस्नान कराना शुरू किया। मैं उसे तीन मिनट से ज्यादा टब में नहीं रखता था। तीन दिन तक उसे केवल पानी मिलाए हुए संतरे के रस पर रखा।

बुखार उतरता न था। रात भर अंट-संट बकता था। तापमान 104 डिग्री तक जाता था। मैं घबराया। यदि बालक को खो बैठा तो दुनिया मुझे क्या कहेगी? बड़े भाई क्या कहेंगे? दूसरे डॉक्टर को क्यों न बुलाया जाय? बैद्य को क्यों न बुलाया जाय? अपनी ज्ञानहीन बुद्धि लड़ाने का माता-पिता को क्या अधिकार है?

एक ओर ऐसे विचार आते थे, तो दूसरी ओर इस तरह के विचार भी आते थे, 'हे जीव! तू जो अपने लिए करता, वहीं लड़के के लिए भी करे, तो परमेंश्वर को संतोष होगा। तुझे पानी के उपचार पर श्रद्धा है, दवा पर नहीं। डॉक्टर रोगी को प्राणदान नहीं देता। वह भी तो प्रयोग ही करता है। जीवन की डोर तो एक ईश्वर के हाथ में है। ईश्वर का नाम लेकर, उस पर श्रद्धा रख तक, तू अपना मार्ग मत छोड़।'

मन में इस तरह का मंथन चल रहा था। रात पड़ी। मैं मणिलाल को बगल में लेकर सोया था। मैंने उसे भिगोकर निचोयी हुई चादर में लपेटने का निश्चय किया। उसे ठंडे पानी में भिगोया। निचोया। उसमें उसे सिर से पैर तक लपेट दिया। ऊपर से दो कंबल औढ़ा दिए। सर पर गीला तौलिया रखा। बुखार से शरीर तवे की तरह तप रहा था और बिलकुल सूखा था। पसीना आता न था।

मैं बहुत थक गया था। मणिलाल को उसकी माँ के जिम्मे करके मैं आधे घंटे के लिए चौपाटी पर चला गया। थोड़ी हवा खाकर ताजा होने और शांति प्राप्ति करने के लिए रात के करीब दस बजे होगे। लोगों का आना जाना कम हो गया था। मुझे बहुत कम होश था। मैं विचार सागर में गोते लगा रहा था। हे ईश्वर! इस धर्म-संकट में तू मेरी लाज रखना। 'राम राम' की रटन तो मुँह में थी ही। थोड़े चक्कर लगाकर धड़कती छाती से वापस आया। घर में पैर रखते ही मणिलाल ने मुझे पुकारा, 'बाबू, आप आ गए?'

'हाँ, भाई।'

'मुझे अब इसमें से निकालिए न? मैं जला जा रहा हूँ।'

'क्यों, क्या पसीना छूट रहा है?'

'मैं तो भीग गया हूँ। अब मुझे निकालिए न, बापूजी!'

मैंने मणिलाल का माथा देखा। माथे पर पसीने की बूंदें दिखाई दी। बुखार कम हो रहा था। मैंने ईश्वर का आभार माना।

'मणिलाल, अब तुम्हारा बुखार चला जाएगा। अभी थोड़ा और पसीना नहीं आने दोगे?'

'नहीं बापू! अब तो मुझे निकाल लीजिए। फिर दुबारा और लपेटना हो तो लपेट दीजिएगा।'

मुझे धीरज आ गया था, इसलिए उसे बातों में उलझा कर कुछ मिनट और निकाल दिए। उसके माथे से पसीने की धाराएँ बह चली। मैंने चादर खोली, शरीर पोंछा और बाप-बेटे साथ सो गए। दोनों ने गहरी नींद ली।

सवेरे मणिलाल का बुखार हलका हो गया था। दूध और पानी तथा फलों के रस पर वह चालीस दिन रहा। मैं निर्भय हो चुका था। ज्वर हठीला था, पर वश में आ गया था। आज मेरे सब लड़को में मणिलाल का शरीर सबसे अधिक सशक्त है।

मणिलाल का नीरोग होना राम की देन है, अथवा पानी के उपचार की, अल्पाहार की और सार-सँभाल की, इसका निर्णय कौन कर सकता है? सब अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार जैसा चाहे, करें। मैंने तो यह जाना कि ईश्वर ने मेरी लाज रखी, और आज भी मैं यही मानता हूँ।


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