वकालत का मेरा धंधा अच्छा चल रहा था, पर उससे मुझे संतोष नहीं था। जीवन अधिक सादा होना चाहिए, कुछ शारीरिक सेवा-कार्य होना चाहिए, यह मंथन चलता ही रहता था।
इतने में एक दिन कोढ़ से पीड़ित एक अपंग मनुष्य मेरे घर आ पहुँचा। उसे खाना देकर बिदा कर देने के लिए दिल तैयार न हुआ। मैंने उसको एक कोठरी में ठहराया, उसके घाव
साफ किए और उसकी सेवा की।
पर यह व्यवस्था अधिक दिन तक चल न सकती थी। उसे हमेशा के लिए घर में रखने की सुविधा मेरे पास न थी, न मुझमें इतनी हिम्मत ही थी। इसलिए मैंने उसे गिरमिटयों के लिए
चलनेवाले सरकारी अस्पताल में भेज दिया।
पर इससे मुझे आश्वासन न मिला। मन में हमेशा यह विचार बना रहता कि सेवा-शुश्रूषा का ऐसा कुछ काम मैं हमेशा करता रहूँ, तो कितना अच्छा हो! डॉक्टर बूथ सेंट एडम्स
मिशन के मुखिया थे। वे हमेशा अपने पास आनेवालो को मुफ्त दवा दिया करते थे। बहुत भले और दयालु आदमी थे। पारसी रुस्तमजी की दानशीलता के कारण डॉ. बूथ की देखरेख में
एक बहुत छोटा अस्पताल खुला। मेरी प्रबल इच्छा हुई कि मैं इस अस्पताल में नर्स का काम करूँ। उसमें दवा देने के लिए एक से दो घंटों का काम रहता था। उसके लिए दवा
बनाकर देनेवाले किसी वेतनभोगी मनुष्य की स्वयंसेवक की आवश्यकता थी। मैंने यह काम अपने जिम्मे लेने और अपने समय में से इतना समय बचाने का निर्णय किया। वकालत का
मेरा बहुत-सा काम तो दफ्तर में बैठकर सलाह देने, दस्तावेज तैयार करने अथवा झगड़ो का फैसला करना का होता था। कुछ मामले मजिस्ट्रेट की अदालत में चलते थे। इनमें से
अधिकांश विवादास्पद नहीं होते थे। ऐसे मामलों को चलाने की जिम्मेदारी मि. खान में, जो मुझसे बाद में आए थे और जो उस समय मेरे साथ ही रहते थे, अपने सिर पर ले ली
और मैं उस छोटे-से अस्पताल में काम करने लगा।
रोज सबेरे वहाँ जाना होता था। आने-जाने में और अस्पताल काम करने प्रतिदिन लगभग दो घंटे लगते थे। इस काम से मुझे थोड़ी शांति मिली। मेरा काम बीमार की हालत समझकर
उसे डॉक्टर को समझाने और डॉक्टर की लिखी दवा तैयार करके बीमार को दवा देने का था। इस काम से मैं दुखी-दर्दी हिंदुस्तानियों के निकट संपर्क में आया। उनमें से
अधिकांश तमिल, तेलुगु अथवा उत्तर हिंदुस्तान के गिरमिटया होते थे।
यह अनुभव मेरे भविष्य में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। बोअर-युद्ध के समय घायलों की सेवा-शुश्रूषा के काम में और दूसरे बीमारों की परिचर्चा में मुझे इससे बड़ी मदद
मिली।
बालकों के पालन-पोषण का प्रश्न तो मेरे सामने था ही। दक्षिण अफ्रीका में मेरे दो लड़के और हुए। उन्हें किस तरह पाल-पोसकर बड़ा किया जाय, इस प्रश्न को हल करने
में मुझे इस काम ने अच्छी मदद की। मेरा स्वतंत्र स्वभाव मेरी कड़ी कसौटी करता था, और आज भी करता है। हम पति-पत्नी ने निश्चय किया था कि प्रसूति आदि का काम
शास्त्रीय पद्धति से करेंगे। अतएव यद्यपि डॉक्टर और नर्स की व्यवस्था की गई थी, तो भी प्रश्न था कि कहीं ऐन मौके पर डॉक्टर न मिला और दाई भाग गई, तो मेरी क्या
दशा होगी? दाई तो हिंदुस्तानी ही रखनी थी। तालीम पाई हुई हिंदुस्तानी दाई हिंदुस्तान में भी मुश्किल से मिलती है, तब दक्षिण अफ्रीका की तो बात ही क्या कहीं जाय?
अतएव मैंने बाल-संगोपन का अध्ययन कर लिया। डॉ. त्रिभुवन दास की 'मा ने शिखामण' (माता की सीख) नामक पुस्तक मैंने पढ़ ड़ाली। यह कहा जा सकता है कि उसमें
संशोधन-परिवर्धन करके अंतिम दो बच्चों को मैंने स्वयं पाला-पोसा। हर बार दाई की मदद कुछ समय के लिए ली - दो महीने से ज्यादा तो ली ही नहीं, वह भी मुख्यतः
धर्मपत्नी की सेवा के लिए ही। बालकों को नहलाने-घुलाने का काम शुरू में मैं ही करता था।
अंतिम शिशु के जन्म के समय मेरी पूरी-पूरी परीक्षा हो गई। पत्नी को प्रसव-वेदना अचानक शुरू हुई। डॉक्टर घर पर न थे। दाई को बुलवाना था। वह पास होती तो भी उससे
प्रसव कराने का काम न हो पाता। अतः प्रसव के समय का सारा काम मुझे अपने हाथों ही करना पड़ा। सौभाग्य से मैंने इस विषय को 'मा ने शिखामण' पुस्तक में ध्यान पूर्वक
पढ लिया था। इसलिए मुझे कोई घबराहट न हुई।
मैंने देखा कि अपने बालकों के समुचित पालन-पोषण के लिए माता-पिता दोनों को बाल-सगोपन आदि का साधारण ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए। मैंने तो इस विषय की अपनी
सावधानी का लाभ पग-पग पर अनुभव किया है। मेरे बालक आज जिस सामान्य स्वास्थ्य का लाभ उठा रहे है, उसे वे उठा न पाते यदि मैंने इस विषय का सामान्य ज्ञान प्राप्त
करके उसपर अमल न किया होता। हम लोगों में यह फैला हुआ है कि पहले पाँच वर्षों में बालक को शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती। पर सच तो यह है कि पहले
पाँच वर्षों में बालक को जो मिलता है, वह बाद में कभी नहीं मिलता। मैं यह अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि बच्चे की शिक्षा माँ के पेट से शुरू होती है।
गर्भाधान-काल की माता-पिता की शारीरिक और मानसिक प्रभाव बालक पर पड़ता है। गर्भ के समय माता की प्रकृति और माता के आहार-विहार के भले-बुरे फलों की विरासत लेकर
बालक जन्म लेता है। जन्म के बाद वह माता-पिता का अनुकरण करने लगता है और स्वयं असहाय होने के कारण उसके विकास का आधार माता-पिता पर रहता है।
जो समझदार दंपती इन बातों को सोचेंगे वे पति-पत्नी के संग को कभी विषय-वासना की तृप्ति का साधन नहीं बनाएँगे, बल्कि जब उन्हें संतान की इच्छा होगी तभी सहवास
करेंगे। रतिसुख एक स्वतंत्र वस्तु है, इस धारणा में मुझे तो घोर अज्ञान ही दिखाई पड़ता है। जनन-क्रिया पर संसार के अस्तित्व का आधार है। संसार ईश्वर की लीलाभूमि
है, उसकी महिमा का प्रतिबिंब है। उसकी सुव्यवस्थित बुद्धि के लिए ही रतिक्रिया का निर्माण हुआ है, इस बात को समझनेवाला मनुष्य विषय-वासना को महा-प्रयत्न करके भी
अंकुश में रखेगा और रतिसुख के परिणाम-स्वरूप होनेवाली संतति की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रक्षा के लिए जिस ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक हो उसे प्राप्त करके
उसका लाभ अपनी संतान को देगा।