सवेरे सबसे पहले तो मैंने वेस्ट से बात की। मुझ पर 'सर्वोदय' का जो प्रभाव पड़ा था, वह मैंने उन्हें सुनाया और सुझाया कि 'इंडियन ओपीनियन' को एक खेत पर ले जाना
चाहिए। वहाँ सब अपने खान पान के लिए आवश्यक खर्च समान रूप से ले। सब अपने अपने हिस्से की खेती करें और बाकी समय में 'इंडियन ओपीनियन' का काम करे। वेस्ट ने इस
सुझाव को स्वीकार किया। हर एक के लिए भोजन आदि का खर्च कम से कम तीन पौंड हो ऐसा हिसाब बैठाया। इसमें गोरे काले का भेद नहीं रखा गया था।
लेकिन प्रेस में तो लगभग दस कार्यकर्ता थे। एक सवाल यह था कि सबके लिए जंगल में बसना अनुकूल होगा या नहीं और दूसरा सवाल यह था कि ये सब खाने पहनने की आवश्यक
साम्रगी बराबरी से लेने के लिए तैयार होगे या नहीं। हम दोनों ने तो यह निश्चय किया कि जो इस योजना में सम्मिलित न हो सके वे अपना वेतन ले और आदर्श यह रहे कि
धीरे धीरे सब संस्था में रहनेवाले बन जाए।
इस दृष्टि से मैंने कार्यकर्ताओ से बातचीत शुरू की। मदनजीत के गले तो यह उतरी ही नहीं। उन्हें डर था कि जिस चीज में उन्होंने अपनी आत्मा उँड़ेल दी थी, वह मेरी
मूर्खता से एक महीने के अंदर मिट्टी में मिल जाएगी। 'इंडियन ओपीनियन' नहीं चलेगा, प्रेस भी नहीं चलेगा और काम करनेवाले भाग जाएँगे।
मेरे भतीजे छगनलाल गांधी इस प्रेस में काम करते थे। मैंने वेस्ट के साथ ही उनसे भी बात की। उन पर कुटुंब का बोझ था। किंतु उन्होंने बचपन से ही मेरे अधीन रहकर
शिक्षा प्राप्त करना और काम करना पसंद किया था। मुझ पर उनका बहुत विश्वास था। अतएव बिना किसी दलील के वे इस योजना में सम्मिलित हो गए और आज तक मेरे साथ ही है।
तीसरे गोविंदस्वामी नामक एक मशीन चलानेवाले भाई था। वे भी इसमें शरीक हुए। दुसरे यद्यपि संस्थावासी नहीं बनेस तो भी उन्होंने यह स्वीकार किया कि मैं जहाँ भी
प्रेस ले जाऊँगा वहाँ वे आएगे।
मुझे याद नहीं पड़ता कि इस तरह कार्यकर्ताओं से बातचीत करने में दो से अधिक दिन लगे होगे। तुरंत ही मैंने समाचार पत्रों में एक विज्ञापन छपवाया कि डरबन के पास
किसी भी स्टेशन से लगी हुई जमीन के एक टुकड़े की जरूरत है। जवाब में फीनिक्स की जमीन का संदेशा मिला। वेस्ट के साथ मैं उसे देखने गया। सात दिन के अंदर 20 एकड़
जमीन ली। उसमें एक छोटा सा पानी का नाला था। नारंगी और आम के कुछ पेड़ थे। पास ही 80 एकड़ का दूसरा एक टुकड़ा था। उसमें विशेष रूप से फलोवाले पेड़ और एक झोपड़ा
था। थोड़े ही दिनों बाद उसे भी खरीद लिया। दोनों को मिलाकर 1000 पौंड दिए।
सेठ पारसी रुस्तमजी मेरे ऐसे समस्त साहसों में साझेदार होते ही थे। उन्हें मेरी यह योजना पसंद आई। उनके पास एक बड़े गोदाम की चद्दरें आदि सामान पड़ा था, जो
उन्होंने मुफ्त दे दिया। उसकी मदद से इमारती काम शुरू हुआ। कुछ हिंदुस्तानी बढ़ई और सिलावट, जो मेरे साथ (बोअर) लड़ाई में सम्मिलित हुए थे, इस काम के लिए मिल
गए। उनकी मदद से कारखाना बनाना शुरू किया। एक महीने में मकान तैयार हो गया। वह 75 फुट लंबा और 50 फुट चौड़ा था। वेस्ट आदि शरीर को संकट में डालकर राज और बढ़ई के
साथ रहने लगे।
फीनिक्स में घास खूब थी। बस्ती बिलकुल न थी। इससे साँपो का खतरा था। आरंभ में तो तंबू गाड़कर सब उन्ही में रहे थे।
मुख्य घर के तैयार होने पर एक हफ्ते के अंदर अधिकांश सामान बैलगाड़ी की मदद से फीनिक्स लाया गया। डरबन और फीनिक्स के बीच तेरह मील का फासला था। फीनिक्स स्टेशन से
ढाई मील दूर था।
सिर्फ एक ही हफ्ता 'इंडियन ओपीनियन' को मर्क्युरी प्रेस में छपाना पड़ा।
मेरे साथ जितने भी सगे संबंधी आदि आए थे और व्यापार धंधे में लगे हुए थे, उन्हें अपने मत का बनाने और फीनिक्स में भरती करने का प्रयत्न मैंने शुरू किया। ये तो
सब धन संग्रह करने का हौसला लेकर दक्षिण अफ्रीका आए थे। इन्हें समझाने का काम कठिन था। पर कुछ लोग समझे। उन सब में मगनलाल गांधी का नाम अलग से लेता हूँ क्योंकि
दूसरे जो समझे थे वे तो कम ज्यादा समय फीनिक्स में रहने के बाद फिर द्रव्य संचय में व्यस्त हो गए। मगनलाल गांधी अपना धंधा समेटकर मेरे साथ रहने आए, तब से बराबर
मेरे साथ ही रहे है। अपने बुद्धिबल से, त्याग शक्ति से और अनन्य भक्ति से वे मेरे आंतरिक प्रयोगों के आरंभ के साथियों में आज मुख्य पद के अधिकारी है और स्वयं
शिक्षित कारीगर के नाते मेरे विचार में वे उनके बीच अद्धितीय स्थान रखते है।
इस प्रकार सन 1904 में फीनिक्स की स्थापना हुई और अनेक विडंबनाओ के बीच भी फीनिक्स संस्था तथा 'इंडियन ओपीनियन' दोनों अब तक टिके हुए है।
पर इस संस्था की आरंभिक कठिनाइयाँ और उससे मिली सफलताए-विफलताए विचारणीय है। उनका विचार हम दूसरे प्रकरण में करेंगे।