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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
चौथा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 23. घर में परिवर्तन और बालशिक्षा पीछे     आगे

डरबन में मैंने जो घर बसाया था, उसमें परिवर्तन तो किए ही थे। खर्च अधिक रखा था, फिर भी झुकाव सादगी की ओर ही था। किंतु जोहानिस्बर्ग में 'सर्वोदय' के विचारों ने अधिक परिवर्तन करवाए।

बारिस्टर के घर में जितनी सादगी रखी जा सकती थी, उतनी तो रखनी शुरू कर ही दी। फिर भी कुछ साज-सामान के बिना काम चलाना मुश्किल था। सच्ची सादगी तो मन की बढ़ी। हर एक काम अपने हाथों करने को शौक बढ़ा और बालकों को भी उसमें शरीक करके कुशल बनाना शुरू किया।

बाजार की रोटी खरीदने के बदले कूने की सुझाई हुई बिना खमीर की रोटी हाथ से बनानी शुरू की। इसमें मिल का आटा काम नहीं देता था। साथ ही मेरा यह भी खयाल रहा था मिल में पिसे आटे का उपयोग करने की अपेक्षा हाथ से पिसे आटे का उपयोग करने में सादगी, आरोग्य और पैसा तीनों की अधिक रक्षा होती है। अतएव सात पौंड खर्च करके हाथ से चलाने की एक चक्की खरीद ली। उसका पाट वजनदार था। दो आदमी उसे सरलता से चला सकते थे, अकेले को तकलीफ होती थी। इस चक्की को चलाने में पोलाक, मैं और बालक मुख्य भाग लेते थे। कभी-कभी कस्तूरबाई भी आ जाती थी, यद्यपि उस समय वह रसोई बनाने में लगी रहती थी। मिसेज पोलाक के आने पर वे भी इसमें सम्मिलित हो गई। बालकों के लिए यह कसरत बहुत अच्छी सिद्ध हुई। उनसे कोई काम कभी जबरदस्ती नहीं करवाया। वे सहज ही खेल समझ कर चक्की चलाने आते थे। थकने पर छोड़ देने की उन्हें स्वतंत्रता थी। पर न जाने क्या कारण था कि इन बालकों ने अथवा दूसरे बालकों ने, जिनकी पहचान हमें आगे चलकर करनी है, मुझे तो हमेशा बहुत ही काम दिया है। मेरे भाग्य में टेढ़े स्वभाव के बालक भी थे, अधिकतर बालक सौंपा हुआ काम उमंग के साथ करते थे। 'थक गए' कहनेवाले उस युग के थोड़े ही बालक मुझे याद है।

घर साफ रखने के लिए एक नौकर था। वह घर के आदमी की तरह रहता था और उसके काम में बालक पूरा हाथ बँटाते थे। पाखाना साफ करने के लिए तो म्युनिसिपैलिटी का नौकर आता था, पर पाखाने के कमरे को साफ करने का काम नौकर को नहीं सौंपा जाता था। उससे वैसी आशा भी नहीं रखी जाती थी। यह काम हम स्वयं करते थे और बालकों को तालीम मिलती थी। परिणाम यह हुआ कि शुरू से ही मेरे एक भी लड़के को पाखाना साफ करने की घिन न रही और आरोग्य के साधारण नियम भी वे स्वाभाविक रूप से सीख गए। जोहानिस्बर्ग में कोई बीमार तो शायद ही कभी पड़ता था। पर बीमारी का प्रसंग आने पर सेवा के काम में बालक अवश्य रहते थे और इस काम को खुशी से करते थे।

मैं यह तो नहीं कहूँगा कि बालकों के अक्षर ज्ञान के प्रति मैं लापरवाह रहा। पर यह ठीक है कि मैंने उसकी कुरबानी करने में संकोच नहीं किया। और इस कमी के लिए मेरे लड़कों को मेरे विरुद्ध शिकायत करने का कारण रह गया है। उन्होंने कभी-कभी अपना असंतोष भी प्रकट किया है। मैं मानता हूँ कि इसमें किसी हद तक मुझे अपना दोष स्वीकार करना चाहिए। उन्हें अक्षर ज्ञान कराने की मेरी इच्छा बहुत थी, मैं प्रयत्न भी करता था, किंतु इस काम में हमेशा कोई न कोई विघ्न आ जाता था। उनके लिए घर पर दूसरी शिक्षा की सुविधा नहीं की गई थी, इसलिए मैं उन्हें अपने साथ पैदल दफ्तर तक ले जाता था। दफ्तर ढाई मील दूर था, इससे सुबह शाम मिलाकर कम से कम पाँच मील की कसरत उन्हें और मुझे हो जाती थी। रास्ता चलते हुए मैं उन्हें कुछ न कुछ सिखाने का प्रयत्न करता था, पर यह भी तभी होता था, जब मेरे साथ दूसरा कोई चलनेवाला न होता। दफ्तर में वे मुवक्किलों व मुहर्रिरों के संपर्क में आते थे। कुछ पढ़ने को देता तो वे पढ़ते थे। इधर उधर घूम फिर लेते थे और बाजार से मामूली सामान खरीदना हो तो खरीद लाते थे। सबसे बड़े हरिलाल को छोड़कर बाकी सब बालकों की परवरिश इसी प्रकार हुई। हरिलाल देश में रह गया था। यदि मैं उन्हें अक्षर ज्ञान कराने के लिए एक घंटा भी नियमित रूप से बचा सका होता, तो मैं मानता कि उन्हें आदर्श शिक्षा प्राप्त हुई है। मैंने ऐसा आग्रह नहीं रखा, इसका दु:ख मुझे है और उन्हें दोनों को रह गया है। सबसे बड़े लड़के ने अपना संताप कई बार मेरे और सार्वजनिक रूप में भी प्रकट किया है। दूसरों ने हृदय की उदारता दिखाकर इस दोष को अनिवार्य समझकर दरगुजर कर दिया है। इस कमी के लिए मुझे पश्चाताप नहीं है, अथवा है तो इतना ही कि मैं आदर्श पिता न बन सका। किंतु मेरी यह राय है कि उनके अक्षर ज्ञान की कुरबानी भी मैंने अज्ञान से ही क्यों न हो, फिर भी सदभावपूर्वक मानी हुई सेवा के लिए ही की है। मैं यह कह सकता हूँ कि उनके चरित्र निर्माण के लिए जितना कुछ आवश्यक रूप से करना चाहिए था, वह करने में मैंने कही भी त्रुटि नहीं रखी है। और मैं मानता हूँ कि हर माता पिता का यह अनिवार्य कर्तव्य है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि अपने इस परिश्रम के बाद भी मेरे बालकों के चरित्र में जहाँ त्रुटि पाई जाती है, वहाँ वह पति-पत्नी के नाते हमारी त्रुटियों का ही प्रतिबिंब है।

जिस प्रकार बच्चों को माता पिता की सूरत-शकल विरासत में मिलती है, उसी प्रकार उनके गुण-दोष भी उन्हें विरासत में मिलते है। अवश्य ही आसपास के वातावरण के कारण इसमें अनेक प्रकार की घट-बट होती है, पर मूल पूँजी तो वही होती है, जो बाप-दादा आदि से मिलती है। मैंने देखा है कि कुछ बालक अपने को ऐसे दोषो की विरासत से बचा लेते है। यह आत्मा का मूल स्वभाव है, उसकी वलिहारी है।

इन बालकों की अंग्रेजी शिक्षा के विषय में मेरे और पोलाक के बीच कितनी ही बार गरमागरम बहस हुई है। मैंने शुरू से ही यह माना है कि जो हिंदुस्तानी माता पिता अपने बालकों को बचपन से ही अंग्रेजी बोलनेवाले बना देते है, वे उनके और देश के साथ द्रोह करते है। मैंने यह भी माना है कि इससे बालक अपने देश की धार्मिक और सामाजिक विरासत से वंचित रहता है और उस हद तक वह देश की तथा संसार की सेवा के लिए कम योग्य बनता है। अपने इस विश्वास के कारण मैं हमेशा जानबूझ कर बच्चों के साथ गुजराती में ही बातचीत करता था। पोलाक को यह अच्छा नहीं लगता था। उनकी दलील यह थी कि मैं बच्चों के भविष्य को बिगाड़ रहा हूँ। वे मुझे आग्रह पूर्वक समझाया करते थे कि यदि बालक अंग्रेजी के समान व्यापक भाषा को सीख ले, तो संसार में चल रही जीवन की होड़ में वे एक मंजिल को सहज ही पार कर सकते है। उनकी यह दलील मेरे गले न उतरती थी। अब मुझे यह याद नहीं है कि अंत में मेरे उत्तर से उन्हें संतोष हुआ था या मेरा हठ देखकर उन्होंने शांति धारण कर ली थी। इस संवाद को लगभग बीस वर्ष हो चुके है, फिर भी उस समय के मेरे ये विचार आज के अनुभव से अधिक दृढ़ हुए है, और यद्यपि मेरे पुत्र अक्षर ज्ञान में कच्चे रह गए है, फिर भी मातृभाषा का जो साधारण ज्ञान उन्हें आसानी से मिला है, उससे उन्हें और देश को लाभ ही हुआ है और इस समय वे देश में परदेशी जैसे नहीं बन गए है। वे द्विभाषी तो सहज ही हो गए, क्योंकि विशाल अंग्रेज मित्र मंडली के संपर्क में आने से और जहाँ विशेष रूप से अंग्रेजी बोली जाती है ऐसे देश में रहने से वे अंग्रेजी भाषा बोलने और उसे साधारणतः लिखने लग गए।


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