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भगवान भूतनाथ और भारत

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध


यह कैसे कहा जा सकता है कि भारत के आधार से ही भगवान भूतनाथ की कल्पना हुई है। वे असंख्य ब्रह्माण्डाधिपति और समस्त सृष्टि के अधीश्वर हैं। उनके रोम-रोम में भारत जैसे करोड़ों प्रदेश विद्यमान हैं। इसलिए, यदि कहा जा सकता है तो यही कि उस विश्वमूर्ति की एक लघुतम मूर्ति भारतवर्ष भी है। वह हमारा पवित्र और पूज्यतम देश है। जब उसमें हम भगवान भूतनाथ का साम्य अधिकतर पाते हैं, तो हृदय परमानंद से उत्फुल्ल हो जाता है। उस आनन्द का भागी आज हम आप लोगों को भी बनाना चाहते हैं।

'भूत' शब्द का अर्थ है पंच-भूत अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। उसका दूसरा अर्थ है प्राणी समूह अथवा समस्त सजीव सृष्टि जैसा कि निम्नलिखित वाक्यों से प्रकट होता है-

'' सर्व भूत हिते रता: ''

'' आत्मवत् सर्व भूतेषु य: पश्यति स पण्डित: ''

'भूत' शब्द का तीसरा अर्थ है योनि-विशेष, जिसकी सत्ता मनुष्य-जाति से भिन्न है और जिसकी गणना प्रेत एवं वैतालादि जीवों की कोटि में होती है। जब भगवान शिव को हम भूतनाथ कहते हैं तब उसका अर्थ यह होता है कि वे पंचभूत से लेकर चींटी पर्यन्त समस्त जीवों के स्वामी हैं। भारत भी इसी अर्थ में भूतनाथ है। चाहे उसके स्वामित्व की व्यापकता इतनी न हो, बहुत ही थोड़ी-समुद्र के बिन्दु के बराबर हो, तो भी वह भूतनाथ है। क्योंकि, पंचभूत के अनेक अंशों और प्राणिसमूह के एक बहुत बड़े विभाग पर उसका भी अधिकार है। यदि वे शशि-शेखर हैं, तो भारत भी शशिशेखर है। उनके ललाटदेश में मयंक विराजमान है, तो इसके ऊर्ध्व भाग में। यदि वे सूर्यशशांक-वद्दि-नयन हैं, तो भारत भी ऐसा ही है। क्योंकि, उसके जीवमात्र के नयनों का साधन दिन में सूर्य और रात्रि में शशांक एवं अग्नि (अर्थात् अग्नि-प्रसूत समस्त आलोक) हैं। यदि भगवान शिव के शिर पर पुण्यसलिला भगवती भागीरथी विराजमान हैं, तो भारत का शिरोदेश भी उन्हीं की पवित्र धारा से प्लावित है। यदि वे विभूति-भूषण हैं, उनके कुन्देन्दु गौर शरीर पर विभूति अर्थात् भभूत विलसित है, जो सांसारिक सर्व विभूतियों की जननी है, तो भारत भी विभूति-भूषण है। उसके अंक में नाना प्रकार के रत्न ही नहीं विराजमान हैं, वह उन समस्त विभूतियों का भी जनक है जिससे उसकी भूमि स्वर्ण-प्रसविनी कही जाती है। यदि वे मुकुन्द-प्रिय हैं, तो भारत भी मुकुन्द-प्रिय है। क्योंकि, यदि ऐसा न होता तो वे बार-बार अवतार धारण कर उसका भार निवारण न करते और न उसके भक्तिभाजन बनते। उनके अंगों में निवास कर यदि सर्प-जैसा वक्रगति भयंकर जन्तु भी सरल गति बनता और विष वमन करना भूल जाता है, तो उसके अंक में निवास करके अनेक वक्रगति प्राणियों की भी यही अवस्था हुई और होती है। भारत अंगभूत आर्यधर्मावलम्बिनी अनेक विदेशी जातियाँ इसका प्रमाण हैं। यदि भगवान शिव भुजंग-भूषण हैं, तो भारत भी ऐसा ही है। अष्टकुलसम्भूत समस्त नाग इसके उदाहरण हैं। यदि वे वृषभवाहन हैं, तो भारत को भी ऐसा होने का गौरव प्राप्त है; क्योंकि वह कृषि-प्रधान देश है और उसका समस्त कृषि-कर्म वृषभ पर ही अवलम्बित है।

भगवान भूतनाथ की सहकारिणी अथवा सहधार्मिणी शक्ति का नाम 'उमा' है। उमा क्या है-''ह्री: श्री: कीर्ति द्युति: पुष्टिरुमा लक्ष्मी: सरस्वती।'' उमा श्री है, कीर्ति है, द्युति है, पुष्टि है और सरस्वती एवं लक्ष्मीस्वरूपा है। उमा वह दिव्य ज्योति है, जिसकी कामना प्रत्येक तमनिपतित जिज्ञासु करता है। ''तमसो मा ज्योतिर्गमय'' वेद-वाक्य है। भारत भी ऐसी ही शक्ति से शक्तिमान है। जिस समय सभ्यता का विकास भी नहीं हुआ था, अज्ञान का अंधकार चारों ओर छाया हुआ था, उस समय भारत की शक्ति से ही धरातल शक्तिमान हुआ। उसी की श्री से श्रीमान् एवं उसी के प्रकाश से प्रकाशमान् बना। उसी ने उसको पुष्टि दी, उसी की लक्ष्मी से वह धन-धन्य-सम्पन्न हुआ और उसी की सरस्वती उसके अंध-नेत्रों के लिए ज्ञानांजन-श्लाका हुई। चारों वेद भारतवर्ष की ही विभूति हैं। सबसे पहले उन्होंने ही यह महामन्त्र उच्चारण किया-

''सत्यं वद, धर्मं चर, स्वाधयायान्मा प्रमद:, मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव।'' ''ऋते ज्ञानान्नमुक्ति:'' 'मा हिंस्यात् सर्व भूतानि'' इत्यादि।

प्रयोजन यह कि जितने सार्वभौम सिद्धान्त हैं, सबकी जननी वेद-प्रसवकारिणी शक्ति ही है। यह सच है कि ईश्वरीय ज्ञान वृक्षों के एक-एक पत्ते पर लिखा हुआ है। दृष्टिमान प्राणी के लिए उसकी विभूति संसार के प्रत्येक पदार्थ में उपलब्ध होती है; किन्तु ईश्वरीय ज्ञान के आविष्कारकों का भी कोई स्थान है। वेद-मंत्रो के द्रष्टा उसी स्थान के अधिकारी हैं। धरातल में सर्व-प्रथम सब प्रकार के ज्ञान और विज्ञान के प्रवर्तक का पद उन्हीं को प्राप्त है। उन्हीं के वंशजों में बुद्धदेव-जैसे भारतीय धर्म प्रचारक हैं कि जिनका धर्म आज भी धरातल के बहुत बड़े भाग पर फैला हुआ है। वर्तमान काल में कवीन्द्र रवीन्द्र उन्हीं के मन्त्रों से अभिमन्त्रित होने के कारण धरातल के सर्व-प्रधान प्रदेशों में पूज्य दृष्टि से देखे जाते और सम्मानित होते हैं। यह मेरा ही कथन नहीं है, मनु भगवान भी यही कहते हैं-

'' एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मन:।

स्वं स्वं चरित्रां शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवा :

अनेक अंग्रेज विद्वानों ने भी भारत-शक्ति के इस उत्कर्ष को स्वीकार किया है और पक्षपातहीन होकर उसकी गुरुता का गुण गाया है। इस विषय के पर्याप्त प्रमाण उपस्थित किए जा सकते हैं; किन्तु व्यर्थ विस्तार अपेक्षित नहीं। सारांश यह कि भारतीय शक्ति वास्तव में उमास्वरूपिणी है और उन्हीं के समान वह ज्योतिर्मयी और अलौकिक कीर्तिशालिनी है। उन्हीं के समान सिंहवाहना भी। यदि धरातल में पाशव शक्ति में सिंह की प्रधानता है, यदि उस पर अधिकार प्राप्त करके ही उमा सिंहवाहना है, तो अपनी ज्ञान-गरिमा से धरा की समस्त पाशव शक्तियों पर विजयिनी होकर भारतीय मेधामयी शक्ति भी सिंहवाहना है। यदि उमा ज्ञानगरिष्ठ गणेशजी और दुष्टदलन-क्षम परम पराक्रमी श्यामकार्तिक-जैसे पुत्र उत्पन्न कर सकती है, तो भारत की शक्ति ने भी ऐसी अनेक सन्तानें उत्पन्न की हैं जिन्होंने ज्ञान-गरिमा और दुष्टदलन-शक्ति दोनों बातों में अलौकिक कीर्ति प्राप्त की है। प्रमाण में वसिष्ठ, याज्ञवल्क्य, व्यास-जैसे महर्षि और भगवान रामचन्द्र और कृष्णचन्द्र-जैसे लोकोत्तर पुरुष उपस्थित किए जा सकते हैं।

भगवान शंकर और भारतवर्ष में इतना साम्य पाकर कौन ऐसी भारत-सन्तान है, जो गौरवित और परमानन्दित न हो? वास्तव में बात यह है कि भारतीयों का उपास्य भारतवर्ष वैसा ही है, जैसे भगवान शिव। क्या यह तत्तव समझकर हम लोग भारत की यथार्थ सेवा कर अपना उभय लोक बनाने के लिए सचेष्ट न होंगे? विश्वास है कि अवश्य सचेष्ट होंगे। क्योंकि भारतवर्ष एक पवित्र देश ही नहीं है, वह उन ईश्वरीय सर्वविभूतियों से भी विभूषित है जो धरातल के किसी अन्य देश को प्राप्तनहीं।

( सन्दर्भ-सर्वस्व)


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