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आलोचना

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली
भाग 6
विश्वप्रपंच

रामचंद्र शुक्ल

संपादन - ओमप्रकाश सिंह

अनुक्रम पन्द्रहवाँ प्रकरण -ईश्वर और जगत् पीछे     आगे

कई हजार वर्षों से मनुष्य जाति सृष्टि के समस्त व्यापारों का एक परम कारण मानती चली आ रही है जिसे ईश्वर कहते हैं। और सब सामान्य भावनाओं के समान ईश्वरसम्बन्धिनी भावना में भी बुद्धि के विकास के साथ साथ अनेक प्रकार के फेरफार होते आए हैं। सच पूछिए तो और किसी पदार्थ की भावना में समय समय पर इतने परिवर्तन नहीं हुए हैं। बात यह है कि बुद्धि और आन्वीक्षिकी विद्याओं के जितने मुख्य विषय हैं, कल्पना और मनोवेग के जितने आधार हैं, सबका इसके साथ गहरा लगाव है। ईश्वर के सम्बन्ध में जितनी प्रकार की भावनाएँ हैं उन सबको यदि परस्पर मिलान करके देखते हैं तो बहुत सी बातें प्रकट होती हैं। कई ऐसे उपयोगी ग्रंथ लिखे भी जा चुके हैं जिनमें इस ढंग की आलोचना की गई है। पर यहाँ अधिक स्थान नहीं है। अनेक रूपों में लोग ईश्वर की भावना करते हैं, कुछ लोग कहते हैं कि वह ऐसा है, कुछ लोग कहते हैं ऐसा नहीं ऐसा है। मुख्य मत दो हैं-देववाद और ब्रह्मवाद या सर्वात्मवाद। देववाद द्वैतवादियों का है और ब्रह्मवाद अद्वैतवादियोंका।
देववाद-देववादी ईश्वर को जगत् से भिन्न, उसका कर्ता और पालक मानते हैं। देववाद में ईश्वर एक 'पुरुषविशेष' माना गया है जो मनुष्यों ही के समान सोचता, विचारता और काम करता है। अन्तर इतना ही है कि उसके सोचने, विचारने और काम करने की कोई हद नहीं है। ईश्वर की यह नराकार भावना अनेक रूपों में पाई जाती है असभ्य जातियों के भूतप्रेत से लेकर सभ्य जातियों के एक ईश्वर तक सब इसी के अन्तर्गत हैं। देववाद चार प्रकार का पाया जाता है। बहुदेववाद, त्रिदेववाद और एकदेववाद।
बहुदेववाद- बहुदेववादी बहुत से देवीदेवता मानते हैं और समझते हैं कि संसार में जो कुछ होता है सब उन्हीं के द्वारा। इसमें कोई जड़ प्रतीक लेते हैं कोई चेतन प्रतीक। जड़ प्रतीकवाले अग्नि, वायु, जल, पर्वत, नदी, मूर्ति इत्यादि निर्जीव पदार्थों में देवताओं का आरोप करते हैं। चेतन प्रतीकवाले मनुष्य, पशु आदि में देवताओं की भावना करते हैं। हिन्दुओं, यूनानियों तथा और प्राचीन जातियों में ये दोनों प्रकार के भाव विशद् रूपों में प्रकट किए गए हैं। ईसाई आदि एकेश्वरवादी कहलाने वालों में भी बहुदेवाराधान किसी न किसी रूप में पाया जाता है। कैथलिक ईसाई ईसा की माता मरियम तथा अनेक महात्माओं को मानते हैं और उनके अनुग्रह की प्रार्थना करते हैं।
त्रिदेववाद- त्रिदेववाद भी कई रूपों में मिलता है। ईसाइयों का एक ईश्वर तीन रूपों में व्यक्त किया गया है-
(1) परमपिता ईश्वर जो सर्वशक्तिमान् सृष्टिकर्ता है। 
(2) तत्पुत्रा ईसामसीह और 
(3) पवित्रात्मा। 
यह पवित्रा आत्मा क्या बला है इसे समझने समझाने के लिए हजारों वर्ष से ईसाई धर्माचार्य सिर मारते चले आ रहे हैं। इस गोरखधान्धो का आधार है बाइबिल, पर उसमें कहीं यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह पवित्रात्मा है क्या और इसका पिता पुत्र से सम्बन्ध क्या है। बात यह है कि यह देवत्रायी और अधिक प्राचीन धर्मों से ली गई है। मूसा के पहले जो प्राचीन यहूदी धर्म बाबिलन के मगों की सूर्योपासना के आधार पर प्रचलित था, उसमें सृष्टिकर्ता इलू की तीन रूपों में भावना की गई थी। 'अल्' जो शून्यरूप माना जाता था, 'बेल' जो ब्रह्मा या जगत् की रचना करनेवाला माना जाता था और 'आइ' जो दिव्य ज्योति या ज्ञानस्वरूप माना जाता था। प्राचीन हिन्दू धर्म में भी ब्रह्मा, विष्णु और शिव यह त्रिमूर्ति बहुत काल पहले मानी गई थी। प्राचीन धर्मों में यह तीन की संख्या विशेष रूप में ग्रहण की गई थी।
द्विदेववाद- युग्मदेववादियों के अनुसार जगत् का सारा व्यापार सत्व और तमस् इन्हीं दो देवताओं के आदेश पर चल रहा है। सात्विक देव अच्छी बातों का प्रवर्तक है और तामस देव बुरी बातों का। इन दोनों में बराबर विरोध चलता रहता है। संसार की अवस्था इसी नित्य विरोध का परिणाम है। दयामय सात्विक देवता या भगवान् सुख, शान्ति और सौन्दर्य के मूल हैं। यदि उन्हीं की चलती तो यह संसार सुख और शान्ति का धाम होता, पर उनके कार्य में तामस देवता या शैतान बराबर बाधा डालता रहता है। संसार में जो अनेक प्रकार के क्लेश और अनर्थ हैं सब इसी शैतान की करतूत है। ईश्वर की इस दोरंगी भावना से संसार में जो कुछ हो रहा है उसका बहुत कुछ समाधान हो जाता है। अत: ईसा से कई हजार वर्ष पहले सभ्यताप्राप्त प्राचीन जातियों में यह युग्मदेववाद प्रचलित था। प्राचीन भारत में सुर और असुर परस्पर विरोधी माने जाते थे। प्राचीन मिश्र में रक्षक देवता ओसिरीज के कार्य का बाधाक क्रूर देवता टाइफन माना जाता था। प्राचीन पारसियों के जंद धर्म का भी यही सिद्धांत था कि ज्योति:स्वरूप अहुरमुज्द धर्म द्वारा संसार की रक्षा करता है और तमोमय अमान अधर्म द्वारा उसके सुख और शान्ति का भंग करता है।
ईसाइयों की पौराणिक कथा में भी शैतान का दर्जा खुदा से किसी बात में कम नहीं है। एक स्वर्ग का राजा है तो दूसरा नरक का। एक में यदि भलाई की शक्ति है तो दूसरे में बुराई की। एक अच्छे कर्मों की प्रेरणा करता है तो दूसरा बुरे कर्म करने के लिए बहकाता है। बतलाने की आवश्यकता नहीं कि इस शैतान की भावना बराबर पुरुष रूप में होती चली आई है। ईधर थोड़े दिनों में अपने धर्म को युक्तिसंगत प्रकट करने के लिए लोग इसे रूपक कहकर उड़ाना चाहते हैं, पर इसी का जोड़ा जो जमीन और आसमान बनानेवाला खुदा है, उसका पल्ला कस कर पकड़े हुए हैं। पर ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि शैतान और खुदा की जोड़ी मानने से इस सुखदु:खात्मक जगत् की बातों का समाधान जितना सुगम है उतना और दूसरी कल्पना से नहीं।
एकदेववाद या एकेश्वरवाद- साधारणात: लोग एकेश्वरवाद को बहुत ठीक और युक्तिसंगत मत समझते हैं और उसे धर्म का एक प्रधान अंग मानते हैं। उनकी धारणा है कि सारे सभ्य देशों के लोग एकेश्वरवादी हैं, पर यह बात नहीं है। जितने मत एकेश्वरवादी बनकर दूसरे मतों की निन्दा किया करते हैं उनकी यदि परीक्षा की जाये तो उनमें भी एक सर्वोपरि देव ईश्वर के अतिरिक्त बहुत से उपदेव, गण, दूत, पारिषद इत्यादि के रूप में पाए जाते हैं। क्या यहूदी, क्या ईसाई, क्या मुसलमान इन सब मतों में आसमानी खुदा के सिवाय पैगम्बर, फरिश्ते, शैतान इत्यादि भी माने जाते हैं। मोटे हिसाब से इस पृथ्वी पर डेढ़ अरब के लगभग मनुष्य बसते हैं। इनमें 60 करोड़ तो हिन्दू और बौद्ध हैं, 50 करोड़ ईसाई कहलाते हैं, 18 करोड़ के लगभग इस्लाम मत के माननेवाले हैं, 10 करोड़ यहूदी हैं, 20 करोड़ दूसरे भिन्न भिन्न मत मानते हैं या भूतप्रेत आदि पूजते हैं, बाकी 10 करोड़ ऐसे हैं जिनका कोई धर्म नहीं। इनमें जो एकेश्वरवादी होने का डंका पीटते हैं ईश्वर के सम्बन्ध में उनकी भावना स्पष्ट नहीं है।
एकेश्वरवाद दो रूपों में पाया जाता है, प्राकृतिक और पौरुषेय। प्राकृतिक एकेश्वरवाद ईश्वरीय विभूति का आरोप अपरिमित तेज और शक्ति के प्राकृतिक अधिष्ठानों में करता है। कई हजार वर्ष पहले प्राचीन सभ्य जातियों ने उस सूर्य की उपासना चलाई जो अपार शक्ति और तेज का अधिष्ठान है, जिस पर समस्त सजीव सृष्टि अवलम्बित है। वैज्ञानिकों की दृष्टि में सूर्योपासना से बढ़कर उपयुक्त ईश्वरोपासना की ओर कोई विधि नहीं, क्योंकि वैज्ञानिक सिध्दान्तों से उसका कोई विरोध नहीं पड़ता। आधुनिक ज्योतिर्विज्ञान और भूगोलोत्पत्ति शास्त्र द्वारा यह निरूपित हो चुका है कि पृथ्वी सूर्य का ही एक खंड है जो उससे छूटकर अलग हुआ है और फिर उसी में जाकर मिल जायेगा। आधुनिक शरीरव्यापार विज्ञान हमें यह बताता है कि सजीव सृष्टि का मूल तत्व कललरस है और इस कललरस की सृष्टि जल, अंगारक, अमोनिया आदि निर्जीव द्रव्यों के संयोगविशेष से होती है जो सूर्य की ज्योति के प्रभाव 

1 एशिया के पश्चिमी भागों में प्रवत्तित ईसाई, यहूदी आदि पैगम्बरी मत।

से ही होता है। इसी कललरस से आदि में रसात्मक अणूदि्भदों की सृष्टि हुई, फिर रसात्मक अणुजीवों की, जिनका पोषण उन अणूदि्भदों के द्वारा होता है। इसी जीवोत्पत्ति परम्परा के अनुसार अन्त में मनुष्य की भी उत्पत्ति हुई है। सच पूछिए तो हमारे समस्त जीवन व्यापार सूर्य की ज्योति और ताप पर ही निर्भर है। अत: शुद्ध बुद्धि से यदि विवेचन किया जाये तो उन ईसाई, मुसलमान आदि एकेश्वरवादी मतों की उपासना की अपेक्षा जो ईश्वर की भावना पुरुष रूप में करते हैं, सूर्योपासना कहीं अधिक युक्तिसंगत है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसी से हजारों वर्ष पूर्व हिन्दू, पारसी, मग इत्यादि सूर्योपासक जातियाँ ज्ञान और सभ्यता की जिस सीमा तक पहुँची थीं उस सीमा तक दूसरी जातियाँ नहीं।
अब दूसरी भावना ईश्वर के विषय में यह है कि वह मनुष्य ही के समानसोचता,विचारता और कार्य करता है। भेद इतना ही है कि उसके सोचने, विचारने और कार्य करने की कोई हद नहीं है। पुरुष या पुरुषोत्ताम रूप में ईश्वर की इस भावना का सभ्यता के इतिहास पर बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है। पर सबसे विलक्षण और दुर्बोधा रूप इस भावना को यहूदी, ईसाई और इस्लाम इन तीन पैगम्बरीमतों में प्राप्त हुआ है। ये तीनों मत परस्पर सम्बद्ध हैं और एशिया के पश्चिमी किनारे पर इबरानी अनार्य जातियों के कुछ भावोन्मत्ता लोगों के द्वारा प्रवर्तित हुए हैं। इनमें प्राचीन यहूदी मत है जिससे ईसाई मत निकला। ईसाई मत के सिध्दान्तों को लेकर ही इस्लाम धर्म की स्थापना हुई। जिस प्रकार ईसाई मत पौराणिक कथा एँमूसा के यहूदी धर्म से ली गई हैं उसी प्रकार मुसलमान मत की कथाएँ दोनोंपूर्ववत्तरी मतों से संगृहीत हुई हैं। उक्त तीनों मत पहले पहले एकेश्वरवाद को लेकर खड़े हुए पर ज्यों ज्यों उनका प्रसार बढ़ता गया त्यों त्यों उनमें बहुदेववाद आता गया।
जिस एकदेववाद को मूसा ने ईसा से 1600 वर्ष पहले चलाया और जिसमें एकमात्र 'यह्वा' की उपासना मानी गई वह बहुदेववाद ही से निकला था। 'यह्वा' उन अनेक देवताओं में से एक का नामान्तर है जिन्हें प्राचीन यहूदी पूजते थे। यह यह्वा आदि में स्वर्ग का देवता माना जाता था जो और देवताओं ही के समान कठोर और क्रूर था और पूजा न पाने पर कड़ा दंड देता था। इस यह्वा के अतिरिक्त और भी अनेक देवता थे जिन्हें प्राचीन यहूदी पूजते थे पर मूसा के पीछे इसे प्रधानता प्राप्त होती गई और सिद्धांत रूप से यह यहूदियों का एकमात्र देवता कहा जाने लगा। यद्यपि 'यह्वा' का यह वचन था कि 'मैं ही तेरा एकमात्र प्रभु और ईश्वर हूँ, मेरे सिवा और किसी देवता को न मानना' पर और बाकी देवताओं का संस्कार बहुत दिनों तक बना रहा।
मूसाई धर्म से निकले हुए ईसाई धर्म की भी यही दशा हुई। यद्यपि सिद्धांत रूप में ईसाई धर्म एकेश्वरवादी ही था पर व्यवहार में वह बहुदेववादी हो गया। एकेश्वरवाद का त्याग तो एक प्रकार से तभी हो गया जब पिता, पुत्र और पवित्रा आत्मा की देवत्रायी मानी गई। पर इस देवत्रायी के अतिरिक्त ईसा की माता मरियम की उपासना इतनी प्रबल पड़ी कि वह स्वर्ग की अधीश्वरी देवी मानी गई। कैथलिक सम्प्रदाय के ईसाइयों के बीच स्वर्ग की इस अधीश्वरी ने इतनी प्रधानता प्राप्त की कि देवत्रायी मन्द पड़ गई। यहीं तक नहीं, ईसाई भक्तों की भावुकता ने अनेक सन्तों और महात्माओं की मण्डली बिठाकर स्वर्ग को और गुलजार कर दिया। पोप लोग इस मण्डली को बराबर बढ़ाते ही गए। गाने बजानेवाले फरिश्तों का जमावड़ा तो वहाँ पहले ही से था। इस प्रकार स्वर्ग में खुदा का एक खासा दरबार लग गया और उस दरबार में 'ईसा के नायब' पोपों के द्वारा अर्जियाँ भी गुजरने लगीं।
ईसाई धर्म के तत्त्वों को जानकर मुहम्मद ने ईसा से 600 वर्ष बाद अपना नया एकेश्वरवादी मत इस्लाम के नाम से चलाया। ईसाइयों के संसर्ग से ही मुहम्मद ने अपने देशवासी मूर्तिपूजक अरबों को तिरस्कार और घृणा की सृष्टि से देखना सीखा और उनके बीच अपने ज्ञान का आतंक जमाया। उन्होंने ईसाई मत की मुख्य मुख्य बातों को तो ले लिया पर ईसा को परमेश्वर का पुत्र नहीं माना, मूसा के समान एक पैगम्बर ही माना। देवत्रायी को भी उन्होंने अपने मत में स्थान नहीं दिया। मरियम की उपासना को उन्होंने मूर्तिपूजा ठहराया। सारांश यह कि अपने एकेश्वरवाद को जहाँ तक विशुद्ध रखते बना उन्होंने रखा। पर उनका ईश्वर भी नरस्वरूप या देवता स्वरूप ही था। खुशामद सुनने और बदला लेने में वह मनुष्य के समान ही था। उसके यहाँ भी पूरी दरबारदारी होती थी।
भिन्न भिन्न मतों की ईश्वरसम्बन्धिनी जिन निर्दिष्ट भावनाओं का ऊपर विवेचन हुआ उन सबसे अधिक प्रचार मिश्र भावना का है जिसमें कई प्रकार की, कभी कभी परस्पर विरुद्ध भावनाओं का मेल रहता है। यद्यपि सिद्धांतरूप में इस प्रकार का मिश्रित मत कोई स्वतन्त्र मत नहीं स्वीकार किया गया है पर व्यवहार में सबसे अधिक चलन इसी का देखा जाता है। मनुष्यों का अधिकांश इसी को माननेवाला है। अधिकतर लोगों की ईश्वर के सम्बन्ध में जो भावना होती है वह कुछ अपने मत और सम्प्रदाय की भावना और कुछ दूसरे मतों और सम्प्रदायों की भावनाओं से मिलजुल कर बनी होती है। लड़कपन में ही अपने मत या सम्प्रदाय की जो भावना प्राप्त होती है उसमें आगे चल कर दूसरे मतों और सम्प्रदायों के साथ संसर्ग होने से कुछ फेरफार हो जाता है। शिक्षित मनुष्यों में दर्शन और विज्ञान के अध्ययन के प्रभाव से भी ईश्वरसम्बन्धिनी भावना में बहुत कुछ फेरफार और रूपान्तर हो जाता है। इस प्रकार के परस्परविरुद्ध संस्कार मन में जम कर आजीवन बने रहते हैं। बात यह है कि लड़कपन में पुरानी कथा कहानियों का जो वंशपरम्परागत संस्कार होता है वह बड़ा प्रबल होता है, वह तो बना ही रहता है। पीछे शिक्षा तथा दूसरे मतों के परिचय द्वारा जो भाव प्राप्त होते हैं वे भी पुराने भावों के साथ जा मिलते हैं। इस प्रकार लोगों का अन्त:करण 'भानमती का पिटारा' हो जाता है जिसमें ईश्वरविषयक रंगबिरंग की परस्पर असम्बद्ध और असंगत भावनाएँ भरी हुई रहती हैं।
ऊपर जितने प्रकार के देववादों (ईश्वरवादों) का जिक्र हुआ उन सबमें ईश्वर प्रकृति या भूतों से परे माना गया है। वह जगत् से भिन्न, वाह्य और स्वतन्त्र तथा उसका कर्ता और नियन्ता कहा जाता है। उसकी भावना पुरुषविशेष या देवविशेष के रूप में ही हुई है। वह मनुष्यों ही के समान सोचता विचारता, अनुभव करता तथा प्रसन्न और अप्रसन्न होता है। भेद इतना ही समझा गया है कि मनुष्य में सब बातें अपूर्ण रूप में होती हैं पर उसमें परम पूर्णरता को प्राप्त रहती हैं। ईश्वर के विषय में ऐसी ही धारणा अधिकतर मनुष्यों की है- किसी की स्थूल किसी की सूक्ष्म। जिन मतों में ईश्वर की भावना सूक्ष्म रूप में की गई है उनमें स्थूल शरीर आदि का आरोप न कर ईश्वर को 'शुद्ध आत्मा' माना है। पर बिना शरीर की इस निराकार आत्मा के व्यापार भी ठीक उसी तरह के माने जाते हैं जिस तरह साकार पुरुष रूप ईश्वर के। शरीरियों के मस्तिष्क या अन्त:करण के जो व्यापार हैं वे सब उसमें आरोपित किए जाते हैं।
ब्रह्मवाद या सर्ववाद1
सर्ववाद कहता है कि ईश्वर और जगत् अभिन्न अर्थात एक है। ईश्वर की यह भावना मूलप्रकृति या परमतत्व ही की भावना के अनुरूप है2। यह भावना उन सब भावनाओं के विरुद्ध पड़ती है जिनका ऊपर उल्लेख हो चुका है। 'यह भी ठीक, वह भी ठीक' कहनेवाले बहुत से लोगों ने इन दोनों प्रकार की भावनाओं में जो विरोध है उसके परिहार का व्यर्थ प्रयास किया है। पर यह विरोध अपरिहार्य है। दोनों प्रकार की भावनाओं में बड़ा अन्तर है। ईश्वरवाद में ईश्वर प्रकृति से सर्वथा स्वतन्त्र, भूतों से परे, और जगत् से वाह्य समझा जाता है पर सर्ववाद या ब्रह्मवाद में ब्रह्म जगत् में अनर्तव्यापी और ओतप्रोत भाव से शक्ति रूप में उसका संचालन करनेवाला माना जाता है। सर्ववाद की भावना ही वैज्ञानिकों के अनुकूल पड़ती है। परम तत्व की अक्षरता का जो वैज्ञानिक सिद्धांत है उसके साथ इसका मेल हो जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि सर्ववादियों का ब्रह्म अनन्त विश्व विधान ही का नामान्तर है। 

1 सर्व खल्विदं ब्रह्म।
2 हैकल के अद्वैतवाद और ब्रह्मवाद के बीच सिद्धांतभेद है। ब्रह्मवाद चेतना समष्टि को ब्रह्म मानता है- उसका ब्रह्म चिन्मय और ज्ञानस्वरूप है। हैकल का परमतत्व प्रवृत्तिधर्मयुक्त होने पर भी जड़ हैं, चेतन का उसके साथ नित्य सम्बन्ध नहीं। उसके गुणविकास की एक अवस्था का नाम ही चेतना है, जिसका अधिष्ठान शरीरियों के अन्त:करण के अतिरिक्त और कहीं नहीं। भौतिक अन्त:करण ही द्रष्टा है। अत:सांख्य के प्रकृति पुरुष के द्वैत में से यदि हम पुरुष को निकाल केवल जड़ प्रकृति ही को रखें तो हैकल का अद्वैत मत निकलता है जिसे हम प्रकृतिवाद ही कह सकते हैं।

यह सच है कि अब भी कुछ वैज्ञानिक ऐसे हैं जो इसे नहीं मानते और पुरुषाकार भावना के साथ इस जगद्विधान समष्टिरूप सर्ववाद का सामंजस्य सम्भव समझते हैं पर उनका यह सब विचार व्यर्थ का वितण्डा है।
सर्ववाद या ब्रह्मवाद ज्ञान की अत्यंत उन्नत अवस्था का सूचक है अत: पृथ्वी की प्राचीन सभ्य जातियों के बीच ही इसका उदय हुआ। प्राचीन भारतवासियों और चीनियों के बीच इसका बीजारोपण ईसा से कई हजार वर्ष पहले हो चुका था। पीछे यूनान और रोम के तत्वज्ञानियों के बीच इसका प्रचार हुआ। यूनान में इस सिद्धांत को पूर्णरूप से अनग्जिमेंडर ने व्यक्त किया। उसी ने अनन्त विश्व की एकता की स्पष्ट व्याख्या की ओर जगत् के सम्पूर्ण व्यापारों का मूलाधार एक विभु, नित्य आदितत्व बतलाया। उसने लोकपिंडों की उत्पत्ति और लय के अखंड क्रम का भी आभास दिया। इंपिडाक्लीज आदि अन्य तत्वदर्शियों ने भी ईश्वर और जगत्, शरीर और आत्मा की अभिन्नता का प्रतिपादन अपने ढंग पर किया। ईसाई धर्माचार्यों ने इस तत्व को दबाने की लाख अन्याय चेष्टाएँ कीं पर यह बिलकुल दबा नहीं। पोपों के क्रूर अत्याचारों के समय में भी इस सत्य की घोषणा समय समय पर होती रही। सन् 1600 में इस सर्ववाद के समर्थन के अपराध में पोप की आज्ञा से ब्रूनो जीदा जलाया गया।
युरोप में ब्रह्मवाद या सर्ववाद की विशुद्ध और पूर्ण व्याख्या सन् 1700 में स्पिनोजा द्वारा हुई। उसने वस्तुसमष्टि का ऐसा लक्षण निरूपित किया जिसके अन्तर्गत ईश्वर और जगत् दोनों आ गए1। इस तत्ववेत्ता ने अपने शुद्ध चिन्तन के बल से जिस सिद्धांत की स्थापना की, पीछे परीक्षात्मक विज्ञान से भी उसका समर्थन हुआ। इसका अद्वैतवाद ही वैज्ञानिकों का तत्त्वाद्वैतवाद हुआ।
अनीश्वरवाद के अनुसार जगत् का कर्ता और नियन्ता कोई ईश्वर या देवता नहीं। अनीश्वरवादियों के इस 'ईश्वरानपेक्ष विश्व विधान' का आधुनिक वैज्ञानिकों के तत्त्वाद्वैतवाद या सर्ववाद के साथ पूरा मेल हो जाता है। सच पूछिए तो दोनों एक ही हैं, केवल नाम का भेद है। प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने ठीक ही कहा है कि 'सर्ववाद प्रच्छन्न अनीश्वरवाद ही है। सर्ववाद ईश्वर और जगत् इस द्वैतभाव का खंडन करके यह प्रतिपादित करता है कि जगत् अपनी ही निहित शक्तियों के 

1 स्पिनोजा ने एक ही शुद्ध निरपेक्ष द्रव्य का प्रतिपादन किया है और निरपेक्षता को द्रव्य का लक्षण माना है। उसके अनुसार वस्तुत: एक ही द्रव्य है जो स्वयंभू, अपरिच्छिन्न और अद्वितीय है; क्योंकि यदि वह किसी दूसरी वस्तु से उत्पन्न, किसी वस्तु से घिरा हुआ या किसी के साथ रहता तो बिना द्वितीय वस्तु के उसका बोध न होता और सापेक्ष होने से उसकी द्रव्यता जाती रहती। इस स्वयंभू अपरिच्छिन्न और अद्वितीय द्रव्य के नाम के विषय में कोई विवाद नहीं। सामान्यत: ईश्वर शब्द से इसका बोध होता है। पर तार्किकों और धार्मिकों ने इच्छा ज्ञान आदि विशिष्ट व्यक्तिविशेष को जैसा ईश्वर समझ रखा है, वैसा वह नहीं है। सर्वगत जो सामान्य सत्ता है वही ईश्वर है।

द्वारा परिचालित हो रहा है। वैज्ञानिक अद्वैतवादियों का यह कहना कि ईश्वर और जगत् एक ही है प्रच्छन्न रूप से ईश्वर को विदा दे देना ही है।'
लोक में अनीश्वरवादी बहुत बुरे समझे जाते हैं। लोग मानते हैं कि उनकी बहुत बुरी गति होगी। इसी से सब बातों को समझने बूझने वाले लोग भी ऊपर से इस बात की चेष्टा में रहते हैं कि वे अनीश्वरवादी न समझे जायँ। सत्य के अनुसंधान में सच्चे हृदय से तत्पर अनीश्वरवादी वैज्ञानिक लोग दुनिया भर की बुराई मानने के लिए तैयार रहते हैं पर घंटों पूजापाठ और टंटघंट करनेवाले को, चाहे वह कपट और व्यभिचार ही में डूबा रहता हो, लोग परम साधु और क्रियानिष्ठ कहते पाए जाते हैं। यह दुरवस्था तभी दूर होगी जब ज्ञान का प्रचार होगा और लोगों को तत्वदृष्टि प्राप्त होगी।


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