कमरे में बंद हो कर अपर्णा अपने बिस्तर पर ढह गई थी, किसी बीमार दरख्त की तरह। एक बहुत बड़ी लड़ाई लड़कर आई थी वह, अपने ही साथ। इसलिए यह इतना आसान नहीं था। एक ही साथ दीवार बनना और हथियार भी... हर हाल में लहूलुहान उसे ही होना था - जीत में भी और हार में भी! वह नहीं जानती, वह जीत सकी या नहीं, मगर अंदर हार का दर्द है... रगो-रेश में ऐंठता, कसकता हुआ। पाना कुछ नहीं चाहा था, मगर अब अंदर खोने की-सी मनःस्थिति में हो आई है - एकदम शून्य और उदास...
वह चाहती है, अपने अंदर के मातम को कसकर पकड़े रहना। छूटना नहीं चाहती अपनी तकलीफ से। इसी तकलीफ में उसकी काजोल जिंदा है, उसकी स्मृतियाँ... उसे डर लगता है, इन्हें खोकर वह काजोल को भी खो देगी। उसके आँसू में, उच्छवासों में वह है - हर पल, हर क्षण - बनी रहती है उसके पास। उसके दुख में जब उसका हृदय अटाटूट भरा होता है, वह भी होती है उसके पास, निविड़ होकर। वह उसे महसूसती है बहुत करीब कहीं- उसकी देह की मीठी गंध, उसकी कोमल छुअन... वह कैसे कम हो जाने दे उस अनुभूति को जिसमें उसकी काजोल की याद, उसका सामीप्य और परस रची-बसी है! यही तो है उसका संबल, अकेला हासिल...
कई बार उसने एक गहरी ग्लानि और चौंक के साथ इन दिनों महसूस किया है, उसे जीना अच्छा लग रहा है, हँसना और गुनगुनाना भी। अंदर किसी सोते की तरह एक अहसास धीरे-धीरे जाग रहा है - कुछ मीठा और अच्छा-सा... यह अच्छा-अच्छा-सा लगना उसे दंश देता है - जिस दुनिया में, जिस जीवन में उसकी काजोल नहीं है, उसमें अच्छा क्या हो सकता है! वह खुद को समेटती है, अपने ही खोल में ठूँसती है बेरहमी से - यह गीत तेरा नहीं, यह स्वप्न और इच्छाएँ भी नहीं... अँधेरा तेरा एकमात्र प्राप्य है और यह आजीवन कारावास - दुखों और पीड़ाओं का... तुझे धूप, हवा और बारिश का क्या करना है। सब निषिद्ध है, एकदम वर्ज्य...
वह कसकर अपनी आँखें भींचती है, चाँद, तारों, खिलते मौसमों पर अपने दरवाजे बंद करती है, मुस्कराहट की चमकीली तितलियों के बाजू जुनून में तोड़ डालती है, मगर अंदर कुछ निःशब्द बहता रहता है - अपनी उसी अबाध गति से... क्या नाम है इसका? जिजीविषा... क्या यह कभी खत्म नहीं होती? इसे मौत क्यों नहीं आती? वह निढाल पड़ी रहती है, अपने हाँड़-मांस के इनसान होने का दंश सहती हुई... उसे जीना पड़ेगा, क्योंकि वह जिंदा है! मरी नहीं है हर अर्थ में, कितना कटु सत्य है यह...
दूसरे दिन उसे पता चला था, कौशल कोलकाता चला गया है। सुनकर अंदर कुछ अचानक बैठ गया था, कच्ची दीवार की तरह, एकदम बेआवाज... कल इतनी देर तक दोनों साथ रहे, मगर कौशल ने उसे इस बाबत कुछ बताया नहीं। कौशल का व्यक्तित्व धूप-छाँव की तरह था - हर पल बदलते हुए, जैसे पहाड़ों में देखा था - मायावी धूप और छाँव का अल्हड़ खेल... मुट्ठी में न बाँध पाने की-सी विवशता उसके साथ में बनी रहती है। बहुत पास, मगर करीब नहीं। कुछ छुटा रह जाने की प्रतीति... शायद इसलिए इतना आकर्षक भी... कौतुहल को न मिटने देता है, न शांत होने देता है, बनाए रखता है यथावत। उसके साथ रहते हुए एक हद तक उसे जानने लगी है, मगर एक बहुत बड़ा हिस्सा अजाना रह गया है, यह भी समझ पाती है।
एक सिरे से दूसरे सिरे तक की न जाने कितनी लंबी यात्रा अभी बची है दोनों के बीच, वह यह भी नहीं जानती कि वह इस यात्रा पर निकलना भी चाहती है या नहीं। मगर अंदर सवालों के ढेर इकट्ठे होने लगे हैं, वह जानना-समझना चाहती है, मगर क्या, स्वयं नहीं जानती। एक पहेली की तरह बनती जा रही है वह - दुरूह, कठिन... कभी खुद को लेकर बैठती है और देर तक उलझती रहती है, गिरह दुरुस्त नहीं कर पाती कई गाँठों का। गुंजल बनी रहती है देर तक...