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उपन्यास

साथ चलते हुए...

जयश्री रॉय

अनुक्रम सकालो अब नहीं रोती... पीछे     आगे

सुबह-सुबह सकालो को देखा था - चुपचाप बैठी हुई थी, हर तरफ से निर्लिप्त, असंपृक्त... वह वहाँ थी, मगर नहीं थी, जैसे अपने ही भीतर से कहीं खो गई हो। पहचान में नहीं आ रही थी। कुछ ही दिनों में जीवन के न जाने कितने वर्ष एक साथ खर्च कर बैठी थी। अब कुछ बचा था तो एक गहरी चुप्पी और अंतहीन अभाव... कभी उसके घाव पुर पाएँगे? इतने सारे - दगदगाते हुए, भीषण... उसे देखते हुए उसकी आँखें जलने लगी थीं - एक हरा-भरा पौधा जली हुई मिट्टी में तब्दील हो गया था, पूरी तरह से। उसे देखकर प्रतीत होता था, बस भीगी लकड़ी की तरह धुँआ रही है, सुलगने की छटपटाहट से भरी हुई... ऐसा क्या देखती रहती थी वह अपनी शून्य दृष्टि से उस तरफ...! आकाश का वह कोना तो एकदम खाली था...!

थोड़ी देर बाद वह उसके पास उतर आई थी, बँगले के सामनेवाले खुले अहाते में -

कैसी हो सकालो?

पूछते हुए उसे स्वयं प्रतीत हुआ था, कुछ गलत कह गई है, कैसा होना है उसे ऐसी परिस्थिति में! उसे देखकर सकालो उठ खड़ी हुई थी -

ठीके हैं दीदिया...

- बहुत दिन नहीं आई, कहाँ रही इतने दिनों तक?

- पुलिस टेसन में रोज जाना पड़ता था हाजिरी देने, एहे के वास्ते...

सुनकर उसका दिल बैठ गया था, पुलिस स्टेशन... बात बदलने के गरज से उसने पूछा था - तबीयत ठीक है? बच्चा...

उसकी बात काटकर सकालो ने एकदम उदासीन भाव से कहा था, जैसे बयान दे रही हो - बच्चा तो नाश हो गया दीदिया!

- नाश हो गया... यानी... मर गया!

उसे यकायक उसकी बात का अर्थ समझ में नहीं आया था -

क्यों, क्या हुआ...?

- उस रात हम भागते रहे जंगल में, फिर पेट पर मार भी पड़ी थी, दरोगा ने बूट से...

कहते हुए वह अचानक रुक गई थी, शायद उसका गला भर आया था। एक लंबे सन्नाटे के बीच दोनों देर तक बैठे रह गए थे। उसे विश्वास नहीं हो रहा था, कहाँ आ गई है वह, किस जमाने में... आज के सभ्य समाज में ऐसा भी होता है... ह्युमन राइट्स, डेमोक्रेसी, फ्रीडम... क्या यह सब महज शब्द हैं - खोखले और अर्थहीन... इनका कोई अस्तित्व ही नहीं दुनिया के इस हिस्से में?

उसने सकालो की तरफ देखा था, उसकी आँखों के पथराए हुए मौन में अब कुछ भी नहीं बचा था - न तकलीफ, न कोई शिकायत। एक सपाट दीवार में तब्दील हो गई थी वह, अपने अंदर सारे कोलाहल समेटकर... जैसे अब क्या, कभी भी जीवित नहीं थी।

वह समझ सकती थी, इस तरह से सारे दरवाजे बंदकर यदि अपने अंदर पड़ी रही तो वह जल्द ही एक कब्र में तब्दील होकर रह जाएगी। एक गूँगे की पीड़ा अभिव्यक्ति न पाकर शेष पर्यंत पत्थर ही बन जाती है अक्सर, ठीक इन अनगढ़, बेडौल पठारों की तरह।

- अब क्या करोगी? उसने हिचकते हुए उससे पूछा था।

- मालूम नहीं दीदिया...

- सब ठीक हो जाएगा सकालो...

वह उसके पास से उठ आई थी। अपनी बातों पर उसे स्वयं यकीन नहीं था, सकालो क्या करती। आकाश में बहुत ऊपर एक चील चक्कर काट रहा था, उसकी आवाज तेज चीख की तरह सुनाई पड़ रही थी। न जाने किस शब पर उसकी नजर है... यहाँ इनकी कमी नहीं - इनसान और जानवरों के शव की... इस निविड़ वन के सीने में न जाने कितनी मौतें, हत्याएँ निःशब्द दर्ज हैं, होती रहती है! उनका कोई हिसाब नहीं। कुछ संख्याएँ, वह भी सही नहीं। मगर क्या फर्क पड़ता है... इस उर्वर जमीन पर जान और संपदा की कमी नहीं - चोरी, तस्करी, हत्या, लूट के लिए... जाने कब से चल रहा है यह सब - अमानवीय शोषण और दोहन...

वह मुड़कर सकालो को देखती है - जमीन की ओर देखती हुई, अपने जुडे हुए घुटनों पर थुथनी टिकाए, कितनी मलिन और कातर... उसके अंदर प्रतिकार एक तीव्र लपट की तरह उठा था - ऐश्वर्य की कोख से जन्में हुए यह गरीब, निर्धन लोग... खुद रिक्त होकर न जाने किस-किस की तिजोरियाँ भर रहे हैं! कब थम सकेगा यह सब?


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