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उपन्यास

साथ चलते हुए...

जयश्री रॉय

अनुक्रम सितारों-से चमकते गहरे पीले फूल... पीछे     आगे

उसी शाम वह न चाहते हुए भी डॉ. सान्याल के बँगले पर गई थी। उन्होंने ही मुल्की के हाथों खबर भिजवाई थी। वह कोलकाता लौट रहे थे। वहाँ के किसी वृद्धाश्रम में रहने के लिए। फिर शायद कभी लौटना न हो।

डॉ. सान्याल को वह यकायक पहचान नहीं पाई थी। एकदम से बहुत बूढ़े और कमजोर हो गए थे। कुर्सी पर किसी शब की तरह निढाल पड़े थे। वह समझ गई थी, वह ज्यादा दिन नह जी सकेंगे। यह उनकी अंतिम यात्रा है।

उसे देखते ही वह उसके हाथ पकड़कर रोने लगे थे, किसी बच्चे की तरह। उनके प्रति मन में गहरी वितृष्णा के भाव होते हुए भी वह कुछ कह नहीं पाई थी, चुपचाप बैठी रह गई थी। अब यह मनुष्य घृणा के योग्य भी शायद नहीं रह गया था - इतना दयनीय और असहाय... किसी भी क्षण घुन खाई दरख्त की तरह टूट पड़ने को तत्पर...

अपनी गीली, धूसर आँखों से वह उनकी तरफ टुकुर-टुकुर देखते रहे थे, मगर चाहकर भी कुछ कह नहीं पा रहे थे। होंठ किसी पर कटे परिंदे की तरह फरफराकर रह जाते थे। आखिर वह उठ खड़ी हुई थी -

अब मुझे चलना होगा काका बाबू!

- हाँ...

उन्होंने अपनी निरंतर बहती आँखों को उल्टी हथेली से पोंछने का प्रयास किया था-

फिर शायद हम कभी न मिलें... मगर मैं जानता हूँ, मुझे मौत जल्दी नहीं आएगी, सब कुछ यहीं चुकाकर जाना पड़ेगा।।

उनकी बातों का कोई जवाब दिए बगैर वह वहाँ से निकल आई थी। बँगले के गेट से निकलते हुए उसने देखा था - चंपा का पेड़ फूलों से लदा खड़ा है - सितारों-से चमकीले गहरे पीले फूल... जमीन पर झरे हुए फूलों की कालीन-सी बिछी हुई थी, चारों तरफ हवा उनकी बासी, उनींदी गंध से बोझिल हुई जा रही थी। उसने उनकी तरफ अपनी पीठ फेरकर कदम तेज कर दिए थे। चंपा की मादक सुगंध दूर तक उसका पीछा करती रही थी, साथ ही दो भीरु आँखों की कातर चावनी भी - मूक प्रार्थना से भरी हुई... वह जानती है, इनसे छूटने के लिए अब जीवन भर का पलायन भी पर्याप्त नहीं!


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