कौशल को गए कई दिन हो गए थे। उसका उपन्यास का काम भी खत्म हो चुका था। दो दिन पहले ही वह उसका फाइनल ड्राफ्ट अपने प्रकाशक को कुरियर करवा चुकी थी। अमेरिका जाने के लिए उसे टिकट आदि की व्यवस्था करने के लिए दिल्ली लौटना था। मगर कौशल से मिले बगैर वह जाना नहीं चाहती थी। न जाने क्यों कोलकाता जाने के बाद कौशल ने एक बार भी उसके साथ संपर्क नहीं किया था। उसकी मित्र अपने पूरे परिवार के साथ आनेवाली थी, मगर वह भी किसी कारण से अब आ नहीं पा रही थी।
वह रेंजर साहब से भी पूछ आई थी, उन्हें भी कौशल की तरफ से कोई सूचना नहीं मिली थी। वे कौशल के लिए चिंतित लग रहे थे।
- क्या करूँ मिस अपर्णा, यहाँ की हालत बहुत निराशाजनक है। या तो आप सब कुछ देखकर भी आँखें मूँदकर रहें या इनके दल में शामिल हो जाइए। दूसरा कोई विकल्प नहीं... अब सोच रहा हूँ यहाँ से चला जाऊँ, इस तरह से खुली आँख से सब कुछ देखते हुए चुपचाप रहा नहीं जाता... अंदर एक अदालत है जो कभी खारिज नहीं होती, चलती रहती है! बहुत त्रासद है यह सब...
वह अकेली पड़ी-पड़ी निराश होने लगी थी। कौशल का न होना एक अभाव-सा बनकर उसे दंश देने लगा था। पूरा जंगल ही नहीं, वह भी अंदर से एकदम निर्जन हो आई थी। किसी तस्वीर के यकायक हट जाने के बाद के दीवार की-सी हो रही थी जिंदगी - एक भद्दा दाग और खालीपन - एकदम निचाट... तस्वीर का न होना तस्वीर के कभी होने का बहुत शिद्दत से अहसास दिलाता है। वह तस्वीर जो दीवार के साथ-साथ जीवन का भी हिस्सा हो जाता है, अनजाने ही। उसका हट जाना जीवन के एक अहम हिस्से को एक नंगी, बदसूरत दीवार में तब्दील कर देता है... ठीक इस तरह से! वह आईने में खुद को देखती है और कहती है...
इन दिनों वह फिर खुद से बोलने लगी है! एकांत अंदर घोंसला डाल रहा है, अंधकार के विशाल डैने फैल रहे हैं, सब कुछ धूसर, विवर्ण है...
सकालो अपनी बहन के साथ जंगल जाती है, लकड़ियाँ बिनकर लाती है, महुआ सुखाती है और इन सब के बीच कभी अचानक बैठकर आकाश की तरफ देखने लगती है। ऐसे में उसकी आँखों में न जाने क्या होता है - किसी खंडहर की तरह भाँय-भाँय करता हुआ।
कई बार अपर्णा उससे बात करने की कोशिश करती है, मगर उसके अंदर सब कुछ सील की तरह बँधकर स्तब्ध हो गया-सा प्रतीत होता था। बस देखती रहती थी चुपचाप, आँखों में टँका उसका कहन शब्दों से परे होकर निसृत होता रहता था, अदृश्य उंगलियों से उसे छूता हुआ लगातार... वह सिहर-सिहर जाती थी।
एक बार पूछा भी था उससे उसने -
तुम्हारे मन में बदला लेने की बात नहीं उठती? उस जैसी तो कितनी औरतें स्वयं पर हुए अन्याय के विरोध में हाथ में हथियार उठा चुकी है, नक्सलियों या माओवादिओ के संगठन से जुड़ गई है...
उसकी बात सुनकर वह गहरी साँस लेकर रह गई थी -
इन बातों का भी कुच्छो मतलब नहीं दीदिया... गरीबों का कोई सच्चा हमदर्द नहीं। सब हमरी ही चिता पर हाथ सेंकते हैं! सबके अपने-अपने सवार्थ हैं - फिर वह परशासन के लोग हों, पुलिस हो, पूँजीपति या यह नक्सलवादी... हमको तो हर तरफ से मरना है। पुलिस, महाजनों के हाथ से छूटते हैं तो नक्सलवादियों की गिरफ्त में आ जाते हैं। औरतों का हाल तो और बुरा है, उसे घेरकर महाभोज लगा है। पुलिस लॉकअप में भी उसका बलात्कार होता है और अपने इन तथाकथित कामरेडों, गरीबों के हमदर्दों के द्वारा भी। उसके बचने का कोई उपाय नहीं दीदिया!
सुनकर वह सन्न रह गई थी। यह सब भी होता है। आखिर किसका यकीन किया जाय! सकालो पढी-लिखी है यह वह जानती थी, मगर इतनी समझदार भी है, यह पहली बार समझ सकी थी। उसने अपने आस-पास के हालात को बिल्कुल सही पकड़ा था।
- जितनी भी औरतें गई थी इन लोगों का साथ देने उनमें से अधिकतर के साथ यही हुआ है - बलात्कार, शोषण... कल ही एक ग्यारह वर्ष की बच्ची का हमल गिराया गया था, वह भी जंगल में... इतना खून बहा की मर गई! सूखे नाले के पास से उसके माँ-बाप उसकी अधखाई लाश उठाकर ले गए। हाईना खा गए थे उसे! ट्रेनिंग दिलवाने की बात करके उठा ले गए थे यही लोग। अब कहिए!
सुनकर वह भागती हुई अपने कमरे में आ गई थी। उस समय वह अपनी उबकाई रोक नहीं पा रही थी।