दो सप्ताह के बाद कौशल कोलकाता से लौटा था, बिल्कुल बदला हुआ-सा। लुटा-बिखरा चेहरा, बढ़ी हुई दाढ़ी... आकर देर तक चुपचाप बैठा रह गया था - एकदम अन्यमनस्क, खोया-खोया। न जाने किस सोच में एकदम गहरा डूबा हुआ था। अपर्णा ने अपनी तरफ से कुछ पूछा नहीं था, मगर उसे अचानक से देखकर उसकी आँखें जल उठी थीं। किसी तरह स्वयं को संयत किया था उसने।
- मिस्टर हडसन की लाश मिली है... सिर्फ धड़, सर गायब है... बहुत देर बाद कौशल ने कहा था। सुनकर वह स्तंभित रह गई थी।
- एक कप चाय पिला दो अपर्णा...
न जाने कितनी देर बाद कौशल ने उससे कहा था। फिर थोड़ी देर तक उसे देखता रहा था - तुम ठीक हो?
- हाँ... एक संक्षिप्त-सा जबाव देकर वह चुप रह गई थी, एक मान भरी चुप्पी...
- मुझे यहाँ से जाना पड़ा था अपर्णा... नयन के पिताजी ने खबर भिजवाई थी। कोलकाता में बहुत बड़े राजनीतिज्ञ हैं - बताया था तुम्हें... उनकी मदद नहीं मिलती तो इस बार जरूर अंदर कर दिया जाता, सारी व्यवस्था हो चुकी थी।
- अंदर कर दिए जाते! किस अपराध में? उसे सुनकर आश्चर्य हुआ था।
- अपराध... उसके सवाल पर कौशल मुस्कराया था, एक बहुत थकी हुई मुस्कराहट- गरीबों का साथ देना... यह कम बड़ा अपराध है?
- मगर कोई हमें यह सब करने से कैसे रोक सकता है? लोकतंत्र है... दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी...
उसकी बात सुनकर कौशल के चेहरे पर अजीब-सी मुस्कराहट छा गई थी - लोकतंत्र सिर्फ संविधान में है, सरकारी बयान और राजनेताओं के भाषणों में है, बाकी कहीं नहीं... वास्तविकता यह है कि यहाँ तो पूँजी और पूँजीपतियों का राज्य है। बाजार हर जगह घुस गया है और यही बाजार यहाँ सब कुछ तय करता है - नीति-नियम, कानून... सब कुछ!
- बाजार के पीछे पैसे की ताकत है और यह पैसा आज का सबसे बड़ा भगवान है... और गरीबों, गरीब देशों का यम भी। शहरों, जंगलों में पटी पड़ी ये लाशें... यह सब क्या कहती हैं? पूरी मनुष्य जाति पर चंद लोगों का राज, उनका कब्जा - इसी पैसे के बल पर! इन्हीं के कारण तो आज ये नक्सली, माओवादी इस तरह से सर उठा रहे हैं, विद्रोह पर उतर रहे हैं। आम लोग सामाजिक न्याय के अभाव में विवश होकर प्रतिरक्षा में हथियार उठा रहे हैं, एक आरपार की लड़ाई तो होनी ही है...
उसकी बातें सुनकर अपर्णा गहरे तक हिल गई थी। न जाने आगे क्या होनेवाला है।
- जो कुछ हो रहा है, क्या तुम उससे सहमत हो? क्या सारी समस्याओं का हल इस तरह से हो सकेगा - हथियार उठाकर खड़े हो जाने से...? लोकतंत्र का विकल्प यह माओवाद, नक्सलवाद हो सकता है?
- मैं नहीं जानता अपर्णा, सच कहो तो मैं खुद असमंजस में हूँ... दुनिया में पहले भी ऐसी सशस्त्र क्रांति हो चुकी है, मगर हुआ क्या, रूस जैसे कम्युनिस्ट देशों का हश्र तुम्हारे सामने है। असल में बात यह है कि सत्ता में आते ही लोगों का चरित्र बदल जाता है। मनी करप्ट्स, बट पावर करप्ट्स नेसेसरिली...
- फिर इतने बलिदान, संघर्ष किसलिए, जब होना कुछ नहीं है...
अपर्णा की आवाज में गहरी निराशा थी। अपने ही अनजाने वह उठकर टहलने लगी थी। टहलती हुई खिड़की के पास जाकर वह बाहर देखने लगी थी, गहरे स्लेटी बादलों से आकाश ढँक आया था।
- शायद आज बारिश होगी...
कहते हुए उसके अंदर की हलचल उसके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी। सहज दिखते हुए भी वह गहरे तनाव में थी।
कुछ देर की चुप्पी के बाद कौशल ने सर उठाया था -
ऐसे भी हाथ पर हाथ धरे हम चुपचाप बैठ तो नहीं सकते। कोशिश करना, कर्म करना हमारा फर्ज भी है और धर्म भी... आखिर हम मनुष्य है, पशु की तरह कैसे निर्विरोध अत्याचार सहकर जी सकते हैं। अपर्णा, जीवन की यही जिजीविषा हमें जिंदा रखती है... इनसान सबसे गरीब या दयनीय तब होता है जब उसके पास देखने के लिए कोई सपना नहीं होता या उसके हृदय में प्यार नहीं होता...
- हम हमारे वर्तमान लोकतंत्र में भी तो इन समस्याओं का हल ढूँढ़ सकते हैं कौशल? अपर्णा ने अपनी तरफ से सोचने का प्रयास किया था।
- अब तक तो ढूँढ़ ही रहे थे, आजादी के कितने साल बीत गए, बोलो! आजादी के बाद सत्ता और संसाधनों को हथियाने के चक्कर में पूरे राष्ट्रीय चरित्र का ऐसा गहरा पतन और विचलन हुआ है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस जमीन को घेरकर एक महाभोज लगा है - गिद्धों और भेड़ियों का महाभोज! ऐसी हालत में कितनी उम्मीद की जाय और कहाँ तक?
उसने आज तक कौशल को कभी इतना निराश नहीं देखा था। वह इस तरह से बैठा था कि जैसे सब कुछ हार आया हो। उसके झुके हुए कंधों की तरफ देखते हुए उसका मन भर आया था। क्या करे कि उसे थोड़ी सांत्वना मिल सके, वह यकायक सोच नहीं पाई थी। एक गहरी उदासी माहौल में तैर आई थी। दिन का रंग गहरा धूसर पड़ रहा था। बादल बरसने-बरसने को हो आए थे।
- इतने निराश होने की भी शायद जरूरत नहीं, हो सकता है, इसी संघर्ष से कुछ अच्छा नतीजा निकल आए...
अपर्णा ने कौशल को तसल्ली देनी चाही थी। वातावरण बहुत बोझिल हो आया था। एकदम दमघोटूँ!
- पता नहीं, अब तो एक तरह की निराशा-सी होने लगी है। इन मूवमेंट्स का भी चरित्र और रुख बदल रहा है। हर तरफ से निराश होकर गरीबों ने, आदिवासियों ने - एक पूरे सर्वहारा वर्ग ने - इन नक्सलियों का साथ दिया था, मगर उन्हें क्या मिला - वही सब जो अब तक सामंतवादी ताकतों से उन्हें मिलता रहा था - शोषण और अत्याचार... पूँजीवादी देशों के हाथों की कठपुतली बने अब यह संगठन - अधिकतर संगठन - अपनी नैतिकता और लक्ष्य से भटक चुके हैं। विदेशी पैसों की पट्टी इनकी आँखों में बँध गई है। अब तो यह भी सही-गलत का फैसला करने में बिल्कुल सक्षम नहीं रहे।
थोड़ा रुककर उसने फिर कहा था -
शुरू में कुछ ईमानदार लोग थे जो अपनी पूरी आस्था के साथ अन्याय और अत्याचार के खिलाफ इस लड़ाई में उतरे थे, उन लोगों की लड़ाई, जो अपने हक के लिए खड़े नहीं हो पाते, युगों की प्रताड़ना ने जिन्हें मूक और बधिर बना दिया है, मेरुदंड तोड़ दिया है। उन्हें जगाना, सतर होकर अपनी जमीन पर खड़े रहना सीखना, साथ में अन्यायी के पंजे में पंजे डालकर एक अंतहीन लड़ाई का आगाज करना... ऐसा ही सत था उनकी मंशा में, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता ; मगर... बीच में ही कुछ लोभी और अपराधिक मनोवृत्ति के लोगों ने इसे हाईजैक कर लिया। अब तो यह बहुत ही गलत किस्म के लोगों के हाथों में पँहुच चुका लगता है!
कहते हुए कौशल थोड़ी देर के लिए रुका था, जैसे अपने उलझे विचारों को एक क्रम देने का प्रयत्न कर रहा हो, फिर धीरे-धीरे बात आगे बढ़ाई थी, जैसे स्वयं से ही संबोधित हो-
महत उद्देश्य को लेकर शुरू हुआ यह मुहिम अब अधःपतन के कगार पर पहुँच गया है। महिलाओं पर अत्याचार हो रहा है, पैसों की लूट लगी है। सरकारी अमला, राजनेता, जंगलों के ठेकेदार, बहुराष्ट्रीय, राष्ट्रीय कंपनियाँ और यह तथाकथित क्रांतिकारी- नक्सली और माओवादी... सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं - अंदर से मिले हुए। पैसे और सत्ता की बंदरबाँट लगी है हर जगह...
- तुम क्या चाहते हो कौशल...?
- मैं किसी वाद के मकड़जाल में नहीं उलझना चाहता। एक संवेदनशील मनुष्य होने के नाते बस यही चाहता हूँ कि मनुष्य को मनुष्य होने का सम्मान मिले और वह अपने अधिकारों के साथ एक सुखी, सुरक्षित जीवन जी सके। इतना ही, और कुछ ज्यादा नहीं...
उस दिन कौशल जल्दी चला गया था। अपर्णा उसे रोक नहीं पाई थी। न जाने क्यों पिछले कुछ समय से उसे अपना अकेलापन त्रस्त करने लगा था। कौशल के साथ ने उसकी आदत बदल दिया था। एकांत और अकेलेपन के बीच का अंतर अब धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा था। एकांत उसे अब भी प्रिय था, मगर रिश्तों की दुनिया में एकदम से बेघर हो जाना कहीं रह-रहकर दंश दे जाता था, बहुत गहरी और तकलीफदेह।
इन दिनों हर तरफ से लगातार बुरी खबरें आ रही थीं। रोज कहीं न कहीं विस्फोट, हत्या, पुलिस या आम लोगों की मौत... चारों तरफ पुलिस की गश्ती गाड़ियाँ घूम रही थीं, उन्होंने जंगल के भीतरी इलाके में अपनी दबिश बढ़ा दी थी।
अपर्णा ने आदिवासी बस्तियों में जाना कम कर दिया था, एक तरह से बंद ही। कभी-कभी हेल्थ सेंटर या आँगनबाड़ी जैसी संस्थाओं में जाती थी। कौशल अधिकतर व्यस्त रहता था, उससे मिलने पहले की तरह आ नहीं पाता था।