कुछ दिनों बाद मानसून के बादल आकाश में घिर आए थे। कई दिनों तक लगातार बारिश होती रही थी। पूरा जंगल एकदम से ताजी हरियाली में नहा उठा था। मोर के अनवरत केंका, पपीहे की पीक से वन-वनांतर गूँजते रहते। ऐसी सघन हरीतिमा शायद वह पहली बार देख रही थी। दूर-दूर तक बस मखमली घासों की बिछी हुई कालीन और झूमते-लहराते पेड़-पौधे...
प्रकृति के नयनाभिराम ऐश्वर्य ने अस्थायी तौर पर ही सही, उसके मन के अमित संताप को एक सीमा तक हर लिया था। एक दिन वह बारिश में देर तक भीगी थी, उसे लगा था, उसका बचपन लौट आया है। कोयल और सुगना नदियों की धाराएँ एकदम से उफन आई थीं। उनकी भरी-पूरी देह को देखकर यकीन नहीं आता था, कल तक यही नदियाँ रेत की ढूहों के बीच निस्तेज पड़ी रहती थीं। और भी न जाने कितनी बरसाती नदियाँ जादू की तरह अनायास पहाड़ों से फूट पड़ी थीं। तेज गति से नीचे उतरती उनकी धाराएँ पत्थरों से टकरातीं तो जलकणों के सफेद बादल-से छा जाते। वादियों में उद्दाम हवा की धमक और जल प्रपातों का शोर निरंतर गूँजता रहता। पहाड़ियों के माथे पर धुंध, धुआँ के बादल छाए रहते। जमीन से भाप उड़ता रहता। एकदम स्वप्नवत सब कुछ, मायावी...
एक दिन कौशल भी उसके साथ था। बँगले में लौटते हुए अचानक बारिश शुरू हो गई थी। उनके पास छाता नहीं था। पूरी तरह से भीग गए थे दोनों। यूँ साथ-साथ भीगना उसे अच्छा लगा था। इन दिनों उदासी की धूसर, गहरी अनुभूतियों के बीच रंगीन, पारदर्शी बुलबुलों की तरह कुछ अनायास खिल आता है, उसे एक सुखद आश्चर्य में डुबोते हुए...
वह अपनी हथेली में उन क्षणों की मीठी, अनाम अनुभूतियों को देर तक बाँधे रखती है, एकांत में उलटती-पलटती है, सिरहाने रखकर सो जाती है... सपनों में भी रंगों के हल्के-से छींटे पड़े हैं, सेमल के रेशमी फाहे की तरह कुछ आसपास उड़ता फिरता है रात दिन... न जाने कितने अनाम जंगली फूलों की गंध उसने धीरे-धीरे पहचानी हैं, उनसे मित्रता की है - रकम-रकम की...! कुछ सुंदर है जो फिर से अँखुआ रहा है, आकार ले रहा है रंगोली की तरह सारा मन जोड़कर, एक छोर से दूसरे छोर तक...
छोटी-छोटी चीजों में जादू है। हल्की, नन्हीं बूँदों में इंद्रधनुष सिमटा रहता है, पत्थरों के बीच टलमल करते पानी के मुट्ठी भर सोते में सारा आकाश बँधा पड़ा रहता है। वह देखती है और आश्चर्य में डूब जाती है - यही वह दुनिया है जहाँ वह अब तक जीती आई थी! देखा तो न जाने कब से है, मगर जाना अब है... एक नन्हीं-सी चिड़िया के पंखों में अनंत आकाश होता है, आँखों की पुतलियों में पूरा मन - संवेदनाओं से आर्द्र और आप्लावित... देह अनवरत पड़ती झींसी में गीली होती है और एक गर्म लौ में मन नहाता रहता है सूरजमुखी की तरह, सुनहली हँसी में भीगता रहता है क्षण-क्षण...
अंदर का कोई अँधेरा कोना गाहे-बगाहे कसमसाता है - यह पाप है, बहुत गलत... कोई दूसरा कोना मद से बोझिल मुस्कराता है - तत्क्षण - मगर बहुत खूबसूरत...
दुख और सुख की मायावी धूप-छाँव में वह निरंतर भटकती रहती है। दो जल भीगे नयनों की स्मृति जब-तब मन को छू आकूल कर जाती है तो न जाने किसकी अदृश्य उंगलियाँ देह पर पारदर्शी कविताएँ रचकर उसे समय-समय आपाद-मस्तक सिहरा भी जाती है। कभी उसे लगता है, वह स्वयं के लिए ही एक पहेली हो गई है। कितना असहाय लगता है ऐसे क्षणों में... दुर्बल बाँहों में अपना ही भार नहीं सँभलता। एक क्षण वह पत्थर होती है - ठोस, अडिग; दूसरे क्षण पानी - तरल, बहती हुई... वह सोचना चाहती है, वह कहाँ जा रही है, किस दिशा में... दिशा ज्ञान लुप्त-सा हो आया है। कभी लगता है, बहुत दूर निकल आई है, कभी महसूस होता है, कहीं गए ही नहीं, वहीं खड़े हैं जहाँ से चलना शुरू किया था...