एक दिन कौशल ने न जाने कैसी इच्छा भरी आवाज में कहा था - 'कभी जिंदगी ने तुमसे माँगा तो उसे एक अवसर जरूर देना अपर्णा, मना मत कर देना।'
वह कोई जवाब नहीं दे पाई थी। कौन-सा मौका वह दे इस जीवन को या स्वयं को? अब वह क्या पा सकती है या पाने की इच्छा रह गई है! आँखों के सामने सिर्फ काजोल का
रक्तशून्य चेहरा और उदास आँखें हैं। उसकी कातर मिनती - माँ, मुझे जीना है, मुझे बचा लो माँ, मैं मरना नहीं चाहती, क्रिसमस आ रहा है, मुझे कैरोल गाना है... याद
आते ही अपनी अक्षमता के तीव्र बोध से वह आपाद-मस्तक ढँक जाती है। उस बार क्रिसमस से पहले की रात फायर प्लेस के पास संता क्लॉज के लिए उपहार के मोजे लटकाते हुए
उसने एकाग्र मन से प्रार्थना की थी - इस बार मेरी काजोल के लिए उपहार में खिलौने नहीं, एक लंबी उम्र रखना, एक स्वस्थ जिंदगी...
दूसरे दिन क्रिसमस की सुबह काजोल मर गई थी। संता क्लॉज मिठाई, खिलौने बाँटने के चक्कर में उसकी बेटी के मोजे में जिंदगी का उपहार रखना भूल गया था... चर्च के
घंटे लगातार बज रहे थे, बर्फ गिरकर पूरी दुनिया कफन की तरह सफेद हो गई थी। गहरे मटमैले आकाश के नीचे एक उजली, निखरी दुनिया - दूर-दूर तक... उसने खिड़की पर पड़े
लेश के सफेद पर्दे उठा दिए थे, फिर काजोल की तरफ देखा था। उसके चेहरे पर मौसम का वही बर्फ था, वही सर्द सन्नाटा... देखकर उसके अंदर सब कुछ हिम हो आया था। वह
बुरी तरह हिल उठी थी। और नहीं, यह धैर्य, यह साहस, यह अंतहीन लड़ाई... कुछ तड़का था भीतर शीशे की दीवार की तरह। झनाके के साथ टूटकर बिखरा था। अचानक सुधबुध खोकर
चिल्लाई थी - काजोलऽऽऽ... मगर तभी चर्च में बज उठी घंटियों की आवाज में जैसे उसकी चीख डूबकर रह गई थी।
पूरा संसार खुशी में झूम रहा था, नाच रहा था - ओ माई लॉर्ड! यु सेंट योर सन टु सेव अस, ओ माई लॉर्ड... उसकी काजोल को वह बचा न सकी, कोई बचा न सका... एक उतनी
छोटी-सी जान को... उस दिन काजोल के साथ उसका भगवान, उसकी आस्था, उसका सब कुछ मर गया था। एक ही झटके में सब कुछ... उस दिन जो मर गया था वह आज तक जिंदा कहाँ हो
सका...।
कभी-कभी साथ चलनेवाले किसी मोड़ पर आकर अलग रास्ते पर चल भी देते हैं, मगर आशुतोष ने जिस मुकाम पर उसका साथ छोडा था, वह चाहकर भी भुला नहीं पाती। त्रुटियों को
क्षमा किया जा सकता है, परंतु अपराध...!
पिछली बार पीने के बाद कौशल ब्रांडी की आधी बोतल छोड़ गया था। वही निकालकर वह शाम से पीती रही थी। पुनिया बँगले के अहाते में महुआ सुखाने के लिए डाल रही थी। बाँस
की टोकरी में वह केंद के फल, महुआ, कचरा, आँवला और न जाने क्या-क्या चुनकर लाई थी। उसका दो साल का बेटा उसकी पीठ पर साड़ी से बँधा अँगूठा चूस रहा था। वह ब्रांडी
के धीरे-धीरे गहराते खुमार में पुनिया के गले में तीन-चार लड़ियों में झूलती कूचफल की काली बिंदुओंवाली चटक लाल माला देखती रही थी। नीम तेल से चुपड़कर बाँधे गए
जूड़े में भी उसने गुड़हल के रक्त लाल फूल खोंसे हैं। वह इस क्षण कितना सुखी, संतुष्ट दिख रही थी! उसे अनायास उस अपढ़, निर्धन वनबाला से रश्क-सा हो आया था। जो
उसके पास है, उसके पास नहीं है - उसका बच्चा, उसके रिश्तों की भरी-पूरी दुनिया...
वह अपने में डूबी पड़ी रही थी, न जाने कितनी देर तक... और फिर न जाने अचानक कहाँ से प्रकट होकर कौशल ने उसके कंधे पर पीछे से हाथ रख दिया था। उसने उसे अलस भाव से
मुड़कर देखा था।
'तुम रो रही हो अपर्णा?'
पूछते हुए कौशल के स्वर में कोई आश्चर्य नहीं था। न जाने वह कब से रोती रही थी, कौशल ने पूछा तो आभास हुआ। कौशल ने बैग से निकाकर ब्रांडी की नई बोतल मेज पर रखी
थी। आज वह थर्मस में भरकर बर्फ भी ले आया था। गिलासों में हल्का भूरा द्रव्य उड़ेलकर दोनों धीरे-धीरे घूँट भरते रहे थे। कौशल ने उससे उसके रोने के बाबद कुछ भी
नहीं पूछा था। उसे उसकी यही आदत सबसे भली लगती थी। वह कभी उसके निजी जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता था। उसकी उपस्थिति में कभी भी अतिरिक्त सावधान होने की
आवश्यकता नहीं पड़ती थी।
और फिर न जाने दुर्बलता का वह कौन-सा काँच-सा नाजुक क्षण था जब वह ग्लैशियर की तरह पिघलने लगी थी। युगों से जमा हिमखंड अब नदी बनकर बह जाना चाहता था। हजार
उपेक्षा, उपालंभ में वह जी रही थी, परंतु कौशल का स्नेह भरा हाथ अपने कंधे पर पाकर आज वह छलक आई थी। कौशल के सीने पर अपना सर रखकर सिसकती हुई अपनी आपबीती सुनाती
चली गई थी। कौशल बड़े धैर्य के साथ सब कुछ सुनता रहा था। न बढ़कर अपनी तरफ से कुछ पूछा था, न उसे रोने से ही रोका था। वह बाँध टूटी नदी की तरह निर्वाध बहती रही
थी, आप्लावित होती रही थी। लग रहा था, आज वर्षो से बड़े यत्न से बाँथे गए सारे तटबंध एक-एककर टूट जाएँगे। कौशल भी यही चाहता था, अपर्णा शिला से मानवी बने,
अहिल्या का अभिशाप समाप्त हो, वह फिर से जी उठे, धड़के, साँस ले...
धीरे-धीरे कृष्ण पक्ष का चाँद पलाश की गदरायी डालों के पीछे छिप गया था। ग्रीष्म की उसाँसें भरती-सी हवा महुआ, करोंजे की मादक गंध से बोझिल हो रही थी। बँगले के
पीछे बने सर्वेंट्स क्वाटर से पुनिया के बच्चों के निरंतर बोलने और रोने की आवाजें अब आनी बंद हो गई थीं। बहुत देर तक लगातार बोलने के बाद अब वह बेतरह थककर ईजी
चेयर पर निढाल होकर पड़ी थी। मगर अंदर से स्वयं को हल्का महसूस कर रही थी। लग रहा था, बहुत दिनों से लगातार टीसनेवाला कोई काँटा बाहर निकल गया है।
कौशल अपनी घड़ी देखते हुए उठ खड़ा हुआ था -
'अपर्णा, अब तुम सो जाओ, मैं चलूँगा...'
वह उसे बाँहों का सहारा देकर शयनकक्ष तक ले आया था और फिर एहतियात से उसे उसके बिस्तर पर लिटा दिया था। वह बिना कुछ कहे अपने इर्द-गिर्द उसकी मजबूत बाँहों को
महसूसते हुए बिस्तर पर लेट गई थी। उसे लिटाकर कौशल सीधा खड़ा हो गया था-
'अब मैं चलता हूँ!'
कहते हुए उसकी दृष्टि बगल की मेज पर रखी काजोल की तस्वीर पर पड़ गई थी-
'ये काजोल है न? तुमने कभी उसकी तस्वीर दिखाई नहीं...'
फिर एक गहरी साँस लेकर वह मुड़कर जाने लगा था -
'मेरी दीया भी कुछ-कुछ ऐसी ही दिखती है!'
अचानक अपर्णा ने हाथ बढ़ाकर उसका हाथ पीछे से पकड़ लिया था - 'कौशल, क्या हम दोनों एक बार फिर अपनी-अपनी काजोल को अपने जीवन में लौटाकर नहीं ला सकते?'
उसके प्रश्न पर कौशल निरुत्तर-सा खड़ा रह गया था। एक समय से उसके अंदर ही अंदर पनपती हुई इस अनाम इच्छा को आज अपर्णा ने एक स्पष्ट अभिव्यक्ति दे दी थी।
अपर्णा ने अधीर आग्रह से भरकर उसे अपने पास खींचकर बिठा लिया था -
'मुझे मेरी - हमारी - काजोल फिर से लौटा दो कौशल!'
कौशल बिना कुछ कहे उसके पास बैठ गया था। अपर्णा ने उसके सीने पर सर रखकर अपनी आँखें मूँद ली थी। बहुत दूर तक वह नंगे पाँव धूप और बारिश में निरंतर भागती रही है,
अब उसे आश्रय चाहिए, एक छाँह चाहिए, ठीक ऐसी ही स्नेहिल - सब्ज और शीतल...
- मगर तुम तो अमेरिका लौटना चाहती थी...
कौशल की बाँहें उसके आसपास घिर आई थी।
- जहाँ मुझे लौटना था, अंततः वहीं लौट आई हूँ - तुम्हारे पास, अब ना मत करना...
अपर्णा की आवाज में पूरे आकाश का पिघलाव था, वह सर से पाँव तक पानी हो रही थी, बह रही थी - निर्वाध, निरंकुश... आज तक की सारी वर्जनाएँ ढह कर उसके आसपास ताश के
पत्तों की तरह बिखर रही थीं...
- तुम मेरा ठिकाना हो, तुम्हें लौटाकर खुद कहाँ जाऊँगा...।
कहते हुए कौशल ने उसे अपने सीने में निविड़ होकर समेट लिया था -
तुममें मुझे मेरा घर, मेरा परिवार दिखने लगा है अपर्णा... और यह इश्क-मुहब्बत जैसी चीजों से भी कोई आगे की चीज है - बहुत गहरी और विस्तृत - ठीक तुम्हारे सपनों
के आकाश जैसा... एक अपने परिवार से छूटकर बहुत बड़े सामाजिक परिवार से जुड़ा था... आज फिर उसी में तुम्हें भी पा गया... बहुत पूर्ण, बहुत सतुंष्ट महसूस कर रहा हूँ
स्वयं को...
- तुम निश्चिंत रहना कौशल, तुम्हारे महत काम में मैं, यह हमारा संबंध कभी बाधा नहीं बनेगा, बल्कि मैं भी तुम्हारे हर काम में साथ दूँगी। अब हमारा हर सपना, हर
उद्देश्य साझे का है, जानते हो न... कहकर अपर्णा देर तक अपनी आँसुओं से टलमल आँखें मूँदें पड़ी रही थी कौशल की बाँहों में। आज वह इस जागी हुई आँखों के सपने को
जीना चाहती है, महसूसना चाहती है छूकर कि जब ख्वाब हकीकत बन जाते हैं तब कैसा लगता है... इस क्षण एक गहरी मौन प्रार्थना उसके पूरे वजूद में समाई हुई थी - यह
सपना अब कभी न टूटे, पूरी जिंदगी - आखिरी नींद आने तक...
एक लंबी चुप्पी के बाद वह हल्के से बुदबुदाई थी, गहरी सिसकी के साथ, कुछ इस तरह कि स्वयं भी सुन न सके-
अब तुम आओगी न काजोल...
उसकी गीली, सांद्र आवाज में अबकी बार मुट्ठी भर जुगनुओं की टिमक थी, उनका छींट भर उजाला भी - गहरी उम्मीद और यकीन का, जो इस पल सहज पनपा था, कौशल के आश्वासन भरे
सानिध्य में...
बाहर बँगले के पासवाले पाकड़ पर कोई रात का पक्षी रह-रहकर बोल रहा था। कहीं बहुत दूर जंगल की आदिम दुनिया से संथालों के माँदल की 'धप-धप' के साथ उनके गीतों की
स्वर-लहरी रात के सन्नाटे में बहुत स्पष्ट होकर सुनाई पड़ रही थी। मौसम के अंत में पहुँची महुआ की उनींदी गंध में भीगी पूरब की हवा धीरे-धीरे चल पड़ी थी। सुबह
होने में अब ज्यादा देर नहीं थी शायद...