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					हवा ले आई उस सोंधी गंध कोजो गड़ी थी जमीन के भीतर
 जहाँ बारिश उतार रही थी अपनी जड़ें
 
 अब शुरू हो गया है एक मौसम
 बिना पहर, बिना शांति वाला
 अब जो उपजेगा
 हम उसमें नहाएँगे अपने गँदले अहसास लेकर
 
 हमारी भूमिका सच के लिए नहीं होगी
 गो कि वह भटका हुआ है
 हम धरती की तरह खुलेंगे
 हमारे अंदर जो जमा है बरसों से
 आधा-अधूरा, सतहहीन
 वह सर उठाएगा
 
 हमें देखना है
 पिछली बार छूट गए
 खुत्बे, पत्थर, खुले मैदान
 पहाड़, झरने, पगडंडियाँ
 मृत और कुछ अधूरे बीज,
 तैयार हैं किस तरह
 
 बादल हमारे सरों पर हैं
 हमें लंबा अनुभव है एक-दूसरे की
 अज्ञानता के बारे में
 हम जानना चाहते हैं
 इसलिए सर नहीं छिपाते
 हम शक्लें बदल-बदल कर मिलते हैं
 हम गहरा करते हैं एक-दूसरे को
 
 बारिश हमारी यात्राओं में शामिल नहीं है
 यह समझ पाना आसान नहीं कि
 जो बन रहा है, जो जड़ें फेंकी जा रही है
 गहरे अविवेक वाले जीवन में
 हमारी संदिग्ध भूमिका का रचाव
 कितना मेल खाता है
 बिना हस्ताक्षर वाली इस संधि से
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