''वैसे तो यह संसार ही एक बहुत बड़ी चूहेदानी है। इसमें मनुष्य रूपी चूहा यदि एक बार फँस जाए तो परमपिता परमात्मा की इच्छा के बिना इससे बाहर नहीं निकल सकता। किंतु वास्तविक चूहेदानी में जब कोई चूहा फँसता है तो वह असहाय अवस्था में भी दाँत पीसता हुआ यह सोचता है कि बुरा हो इस पापी पेट की अग्नि का...! इस पातकी मनुष्य ने आज छल से मुझे फँसा दिया।''
झिलंगी खटिया पर पड़े-पड़े पंडित जी की व्याख्यानमाला चल रही थी। वह अर्धनिद्रा में निमग्न अपने नंगे पेट पर हाथ फेरते हुए बड़बड़ा रहे थे और इधर चटाई पर चावल बीनती हुई उनकी पंडिताइन मन ही मन कुढ़ रही थीं। पंडित जी कथा बाँचने की शैली में कहे जा रहे थे -
''मनुष्य चूहेदानी में फँसे चूहे को तीली कोंचकर छेड़ता है कि आज फँसे हैं बच्चू चूहेदानी में...! अरे, देखो तो... ससुरा कितना मोटा हो गया है मेरे ही घर का अन्न खा-खाकर। फिर सोचता है कि चलो अब इसको बिल्लो रानी को खिला दें...। किंतु अगले ही क्षण पुनः यह सोचने पर बाध्य होता है कि राम-राम! ... इस बेचारे को नाहक क्यों मारूँ? चूहा ही तो है। हल्दी की गाँठ-भर से संतुष्ट हो जाने वाला एक क्षुद्र प्राणी।.. अतः इसे किसी दूसरे के घर में छोड़ आता हूँ। बस...! इतना सुनते ही मूषकराज मस्त... टना-टन।''
पंडिताइन ने अपना माथा पीट लिया। उसने पंडित जी का कंधा झकझोरते हुए कहा -
''अरे, ये क्या अनर्गल प्रलाप कर रहे हो स्वामी? बुद्धि भ्रष्ट हो गई है क्या पूरी तरह? सत्यनारायण की कथा तो होती नहीं तुमसे। अब नींद में भी लगे मूषक-पुराण बाँचने...?
''क्या है... क्या है? भाग्यवान...'' कहते हुए पंडित कामेश्वरनाथ हड़बड़ाकर उठ बैठे - ''क्या घर में कोई चोर घुस आया?''
''अरे, चोर को क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो प्राण देने के वास्ते हमारा ही घर चुनेगा? इस घर में है ही क्या जो उसे मिलेगा? भूख के मारे तो इस कोठरी में चूहे भी लोटते फिरते हैं...।''
पंडित जी सिर पकड़कर बैठ गए और पंडिताइन की जीभ कैंची की तरह चलती चली गई।
आखिर अब मेरी समझ में आ गया कि मैं कहाँ हूँ। दरअसल एक दिन एक हारमोनियम के भीतर जब मेरी चुहिया माँ ने मुझे अन्य चार चूहा शिशुओं के साथ जन्म दिया तो उस निपट अंधकार में काफी समय तक मैं यह जान नहीं सका कि आखिर किस लोक में पदार्पण कर चुका हूँ मैं? फिर धीरे-धीरे यह अनुमान लगा कि यह तो अपना वही चिरपरिचित भूलोक है। तदुपरांत इस द्विज-दंपति के स्वरों को सुनकर मेरा अनुमान यथार्थ अनुभूति में बदल गया।
पंडिताइन पंडित जी को खूब खरी-खोटी सुना रही थीं और आश्चर्य! मेरे सब कुछ समझ में आ रहा था। यद्यपि मैं एक नवजात चूहा था, परंतु नवीन परिस्थितियों पर विचार करने पर मुझे इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ा कि वर्तमान में भले ही मुझे मूषक-योनि प्राप्त हो गई हो, परंतु पिछले जन्म में मैं अवश्य कोई मनुष्य रहा होऊँगा और मेरे मूषक मन में मनुष्य की बोली और उसके कारनामों की स्मृतियाँ प्रकृति की किसी भूल के कारण आज भी शेष रह गई थीं। मैं मानवों के बीच होने वाले वार्तालापों, वाद-विवादों और यहाँ तक कि वाक-युद्धों को सुनकर न केवल उनका अर्थ ग्रहण करने में सक्षम था, अपितु उनका गूढ़-गंभीर विवेचन कर सकने में भी मुझे कोई कठिनाई नहीं होती थी।
पंडिताइन अपने पतिदेव से कह रही थीं कि - ''अरे, जब तुम्हारी सत्यनारायण की कथा कोई मुफ्त में भी नहीं सुनता तो काहे को गला फाड़ते हो? वाणी में रस घोले बिना किसी जजमान को अब इस कलिकाल में मार्ग पर नहीं लाया जा सकता। पिताजी का दिया हुआ वह हारमोनियम, जो न जाने कब से पेटी में पड़ा-पड़ा सड़ रहा है, उसे काहे नहीं निकालते हो?
इस पर कामेश्वरनाथ पंडित पत्नी से तुनककर बोले - ''नहीं निकालूँगा... जाओ। हजार बार तुमसे कहा है कि अब मुझे गाना-बजाना बिलकुल नहीं भाता। अरे, दरिद्रता की निशानी है ये संगीत-वंगीत। ... तुम्हारे मायके में होता होगा। मुझे ये सब रास नहीं आता...।''
''आय-हाय-हाय-हाय... '' पंडिताइन के मानो तन-बदन में आग लग गई। हाथ नचाकर कहने लगीं - ''मेरा मायका दरिद्र और तुम्हारा खानदान बड़ा आया धन्नासेठ! अरे ये क्यों नहीं कहते कि अगर मैं अपने पिताजी के घर से ये कपड़े, ये बर्तन, वो हारमोनियम भी न लाती तो तुम्हारे घर में तो बजाने को एक मँजीरा तक न था। और ऊपर से मेरे...''
तभी दरवाजे की कुंडी खटकी। किसी आगंतुक के द्वार पर खड़े होने के अहसास ने पंडित जी को बड़ी साँसत में डाल दिया और उन्होंने स्त्री को रणचंडी का रूप धरते देखकर अपने समस्त अस्त्र-शस्त्र तत्काल उसके चरणों में समर्पित कर दिए। आगंतुक को उलटे पाँव लौटाकर जब वह लौटे तो अपनी रूठी हुई पत्नी को शास्त्रीय ढंग से मनाने लगे।
कामेश्वर की उस कोठरी में समय जैसे कुछ देर के लिए ठहर गया। पहले मान-मनुहार हुई। फिर जोर-जबरदस्ती। फिर चरण वंदना। और तब वैराग्य अनुराग की और लौटा। अंततः चूड़ियों की खनखनाहट और श्वास-प्रश्वास के बाद वहाँ पूर्ण नीरवता छा गई।
वस्तुतः यह दांपत्य जीवन भी बड़ा विचित्र है। कहते हैं, स्त्री के तीन रूप हुआ करते हैं जिनसे पुरुष विवाहोपरांत क्रमशः परिचित होता है। विवाह के पश्चात एक वर्ष तक उसे अपनी अर्धांगिनी 'चंद्रमुखी' सदृश प्रतीत होती है। कालांतर में तीन-चार वर्षों तक वह 'इंद्रमुखी' के समान माननी हो जाती है। फिर उसका एक न एक दिन 'ज्वालामुखी' में परिणत हो जाना अवश्यंभावी है। जो भी हो, वातावरण की निःस्तब्धता से मैं यह भली भाँति समझ चुका था कि फिलहाल पंडित जी अपने अद्वितीय बुद्धि-कौशल का प्रयोग करके अपनी ज्वालामुखी को यदि चंद्रमुखी नहीं तो कम से कम इंद्रमुखी की सीमा तक लाने में कामयाब हो गए थे।
इस प्रकार उन दोनों के मध्य यह समझौता हो गया कि कल से पंडित जी भगवत कथा भजन-कीर्तन शैली में सुनाया करेंगे। अतएव उसके लिए हारमोनियम का जाँचा-परखा जाना नितांत आवश्यक हो गया।
जिस समय हारमोनियम की पेटी खटिया के नीचे से घसीटी हुई, उसके भीतर कुलबुलाते हुए हम नन्हे जीवधारियों की साँसें गले में अटक गईं। हम आश्रयविहीन-से एक-दूसरे पर गिरने-पड़ने लगे। यह वह कठिन काल था जबकि हमारी चुहिया माँ भोजन की तलाश में उस संगीत पेटिका से निकलकर किसी समृद्ध पड़ोसी के घर गई हुई थीं। हमें ऐसा अनुभव हो रहा था कि मानो हम किसी बहुत बड़े पानी के जहाज के तले में स्थित उसके इंजन रूम में पड़े हुए हों और वह जहाज किसी बहुत बड़े समुद्री तूफान में अचानक घिर गया हो।
हवा का दबाव रह-रहकर हमारे चैंबर में बढ़ने-घटने लगा और पंडित जी द्वारा छेड़े गए सरगम के स्वर हमारे माइक्रो-मस्तिष्क पर विभिन्न प्रकार के हथौड़ों की-सी चोट करने लगे। पंडित जी का भजन-अभ्यास आरंभ हो चुका था।
प्राण-रक्षा के निमित्त मेरे साथ के समस्त चूहा शिशुओं में इस कदर खलबली मची कि भीतर की खटर-पटर के अतिरिक्त उसका कुप्रभाव उस वाद्ययंत्र पर भी पड़ा। फलतः संगीत पेटिका के स्वर देखते ही देखते बेसुरे हो गए।
पंडित जी ने अचकचाकर गाना बंद कर दिया। उन्होंने सर्वप्रथम वाद्ययंत्र को दो-तीन बार ठोंका और जब भीतर की खटर-पटर की ध्वनियाँ उससे और भी तेज हो गईं तो उनकी दूरदृष्टि को मानो एक नवीन ऊर्जा मिल गई। वह पूर्ण आत्मविश्वास के साथ पंडिताइन से बोले - ''भाग्यवान!'' जरा पड़ोस से वह स्क्रू ड्राइवर तो लाना''
इतना सुनते ही मेरे ज्ञानचक्षु खुल गए और मैं जान गया कि अब मेरे संघर्षों का मार्ग प्रशस्त होने वाला है। कुछ ही क्षणों में वह संगीत पेटिका खुल गई और जगत के आलोक का हमने प्रथम दर्शन किया।
पंडित जी 'शिव-शिव-शिव' करते हुए उठ खड़े हुए और हमें देखकर पंडिताइन के मुख से चीख निकल गई - ''ई-ई-ई-ई...!''
संगीत पेटिका उलट दी गई और महीन गुलाबी त्वचा से युक्त हम नवजात पाँच चूहा शिशु भूमि पर गिरकर बिलबिलाने लगे। निःसंदेह उन द्विज-दंपति का मन घृणा से और तन रोमांच से सिहर उठा। पत्नी कहने लगी - ''हे राम! छिःछिःछिः! यह नरक भी हमारे ही घर आना था! कितने घृणित हैं ये जीव!''
इस पर पति दार्शनिक भाव से कहने लगा - ''क्या कहती हो भाग्यवान! इसमें बेचारे इन चूहों का क्या दोष?... ईश्वर ने इन्हें जहाँ जन्म देना उचित समझा भेज दिया।''
''हाँ-हाँ, क्यों नहीं?... किसी का क्या दोष? ... दोष तो जो कुछ है मेरे भाग्य का है। अब कहीं ये न कह देना कि भाग्यवान!... इन्हें प्रभुलीला समझकर पाल ही क्यों न लिया जाए?''
''तो इसमें बुराई क्या है?'' पति ने किंचित विनोद की मुद्रा में कहा।
पत्नी ने तत्क्षण पति के हाथ में एक झाडू थमाते हुए कहा - ''मजाक मत करो। ''देखो, मैं तो इन्हें छूने से रही। इन्हें अभी इसी वक्त घर से बाहर करो। ....जाकर दूर किसी घूरे पर फेंक आओ।''
उसके बाद हमें झाडू से बुहारकर एक चिथड़े में भरा गया और पंडित जी महाराज ऊँचे स्वर में 'नारायण! नारायण!...' का जाप करते हुए हमें लटकाकर रातोंरात अपने घर से काफी दूर एक कूड़े से डलाव पर छोड़ आए।
वह रात न जाने कैसे बीती। अगली सुबह मैंने स्वयं को एकदम तन्हा पाया। किसी तरह उस कूड़े के ढेर में मैंने अपने सुरक्षित रहने के उद्देश्य से थोड़ी-सी जगह बना ली। उधर मेरे साथ के दूसरे चूहा शिशु या तो भटककर इधर-उधर निकल गए या चील-कउओं के ग्रास बन गए।
वहाँ रहते हुए मुझे कई दिन गुजर गए। हर पल-हर घड़ी मेरे मन में एक ही डर समाया रहता था कि नगरपालिका की कोई कूड़ागाड़ी अगर वहाँ आ निकली तो उस कूड़े की लदान के साथ-साथ कहीं मेरा भी काम तमाम न हो जाए, परंतु कूड़ागाड़ी को संभवतः अभी कई हफ्ते वहाँ आना नहीं था। न ही वह आई। अतएव मैं यह सोचकर निश्चिंत हो गया कि इस शहर में भी उस नगरपालिका का कामकाज अपनी स्वाभाविक गति से ही चल रहा है।
यह कूड़े का डलाव भी किसी ऐसी-वैसी जगह पर स्थित नहीं था, वरन यह शहर की सबसे बड़ी ऐतिहासिक सैरगाह के रास्ते की शोभा बढ़ा रहा था। कूड़े के इस डलाव के अतिरिक्त आसपास का दृश्य बड़ा रमणीक था। बाउंड्री वॉल से घिरा एक बहुत खूबसूरत बगीचा। पेड़-पौधे, फुलवारियाँ, झूले और पत्थर की बेंचें।
आसपास से गुजरने वाले आदिमियों और पेड़ों की आड़ में बैठने वाले प्रेमी युगलों तथा पत्थर की बेंचों पर बैठकर 'कुछ अपनी और कुछ जग की' चर्चा करने वाले रिटायर्ड लोगों की बातचीत सुनकर मैं इस शहर के बारे में बहुत कुछ जान गया था। साथ ही, कूड़े के ढेर पर निरंतर फेंके जाने वाले खाद्य पदार्थों ने मुझे जीने का सहारा दिया और मैं नित नई शक्ति एवं स्फूर्ति अर्जित करता चला गया। मेरे अंदर ही अंदर आत्मनिर्भरता का तत्व भी बलवान होता गया।