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उपन्यास

अथ मूषक उवाच

सुधाकर अदीब


दढ़ियल और कबूतरी बस में पास-पास थे। बस तेज गति से चली जा रही थी। दढ़ियल एक आलीशान बँगले की ओर इंगित करते कबूतरी को समझा रहा था -

''वो देखो... वह उच्चवर्गीय लोग हैं...। कई किस्म की कारों से लेकर हवाई जहाजों तक का सफर। पार्टियाँ-क्लब-डिस्को-कैबरे.... एयरकंडीशनर्स और हाई ब्लडप्रेशर। घर में अजनबी माहौल। ... भिखमंगों के लिए घुड़की और पालतू कुत्तों के लिए दूध-डबलरोटी।''

बस के ड्राइवर ने बस की रफ्तार एकाएक धीमी कर दी। सामने एक फियेट कार के बाहर खड़े कुछ लोग जोर-जोर से हाथ हिलाते हुए बस रुकवाने के लिए चेष्टारत थे। एक स्त्री, एक पुरुष, दो लड़के। लगता था, उनकी कार बिगड़ गई थी। ड्राइवर ने उदारता दिखाते-दिखाते एकबारगी अपना इरादा बदल दिया और बस को पुनः टॉप गेयर में डालकर उसे हेलीकॉप्टर में तब्दील कर दिया। कैसी दया, कैसी माया? भाड़ में जाएँ।

दढ़ियल पुनः कबूतरी को समझाने लगा - ''देखा तुमने?'' ये वही लोग हैं जिनके पास इस महँगाई के युग में भी एक अदद पुरानी अर्थात सेकंड-हैंड कार पाई जाती है। जो कभी-कभी बैटरी गर्माने के इरादे से गुहस्वामी द्वारा सड़कों पर निकाली जाती है। उस कार का प्रयोग दैनिक कार्यों के लिए नहीं बल्कि समाज में अपनी हैसियत दिखाने के वास्ते किया जाता है। ... बीबी-बच्चे अगर कभी गलती से पिकनिक के लिए जिद करके निकल पड़े तो उनके मन में एक खटका हर पल हर घड़ी इस बात का लगा रहता है कि किसी जगह उतरकर उस कंबख्त में धक्का न लगाना पड़ जाए।'' फिर भी चलती का नाम गाड़ी है और ये हमारे का उच्च मध्यवर्गीय परिवार है।''

''और निम्न मध्यवर्गीय परिवार?'' लूसी पूछ रही थी।

''जहाँ मेहमानों के लिए रखी कुर्सियों और उन्हें पेश की जाने वाली चाय के प्यालों का आकार-प्रकार बेमेल दिखे... समझ लो वह किसी निम्न मध्यवर्ग के परिवार का घर है।''

''क्या उसके भी नीचे कोई वर्ग है?''

''उसके बाद गरीबी की सीमा-रेखा शुरू हो जाती है'' - सुवीर का स्वर अब किसी गहरे कुएँ से आता प्रतीत हुआ - ''जहाँ ढेर सारे बच्चे हों... बड़ी बिटिया शाम को पंसारी की दुकान से एक शीशी में कड़ुवा तेल और पुड़ियों में राशन बाँधकर ले जाती हो और तब घर का चूल्हा एक टाइम मुश्किल से जलता हो... जहाँ घर की औरत हर साल एक दुधमुँहा बच्चा सँभालती हो तथा घर का मरद अकसर देर रात दारू के नशे में धुत्त वापस लौटता हो... वही तो समाज का अंतिम वर्ग है... रोज कुआँ खोदने और रोज पानी पीने वाले लोग... सर्वहारा वर्ग के लोग...।''

''सर्वहारा शब्द तुम कहाँ से ले आए?''.... सुवीर! क्या तुम कम्युनिस्ट हो?'' लूसी के चेहरे पर विस्मय का भाव था।

''था कभी... अब तो 'मानवतावादी' दल में हूँ। असल में वो क्या है... कि यह युग अवसरवादिता का युग है। हम लोगों के लिए साम्यवाद, समाजवाद, गांधीवाद, अंबेडकरवाद - सब कुछ अवसरवाद पर ही आधारित है। यह जिंदगी बहुत छोटी है और महत्वाकांक्षाएँ हैं बड़ी-बड़ी। इसलिए जैसे-जैसे हम परिपक्व होते जाते हैं हमारी नीतियाँ और जीवन के लक्ष्य भी परिवर्तित होते जाते हैं।''

लूसी विस्फारित नेत्रों के साथ सुवीर की सारी बातें सुन रही थी और वह अपनी ही धुन में बहा चला जा रहा था। ''हम क्या हैं?'' कहकर सुवीर एक गीत गाने लगा -

''परदेस ने फुसलाया

साम्यवादी हो गए

महँगाई ने रुलाया

पूँजीवादी हो गए।

पूँजीपतियों पे दिल आया

समाजवादी हो गए

स्वदेश याद आया

गाँधीवादी हो गए।...''

''अरे!... वे क्या उलटा-सीधा बोल रहे हो?'' लूसी ने टोका। सुवीर फिर गाने लगा -

''लड़कों ने बैंड बजाया

हठवादी हो गए

सत्ता ने नाच नचाया

कुर्सीवादी हो गए।

जनता का डंडा खाया

राष्ट्रवादी हो गए

बीवी का बेलन खाया

अवसरवादी हो गए।''

''बेलन? वह क्या होता है?'' लूसी ने भोलेपन से पूछा और सुवीर 'हो-हो' करके हँस पड़ा। फिर बोला - ''बेलन एक ऐसे काष्ठनिर्मित उपकरण को कहते हैं जिसका प्रयोग एक भारतीय गृहिणी जठराग्नि से लेकर क्रोधाग्नि तक को शांत करने में कर सकती है। लूसी, तुम नहीं समझोगी।... मोटे अर्थों में बस इतना जान लो कि... बेलन जब तक हाथ में रहता है ये रोटियाँ बेलता है और जब फेंककर किसी को निशाना बनाया जाता है तो एक हथियार बन जाता है... एक ऐसा खौफनाक हथियार जिससे हर भारतीय पति बखूबी परिचित होता है।''

उसी समय बस ने किसी कस्बे की सीमा में प्रवेश किया और एक आधुनिक ढाबे के सामने जाकर रुक गई। बस रुकते ही डंडा हिलाते हुए दो खाकी वर्दीधारियों ने पूरे रोबदाब के साथ अगले गेट से एंट्री ली।

''चलो-चलो-चलो... अपना-अपना सामान दिखाओ... ए सरदार जी! उस अटैची में क्या है?

''जी ये कुछ कपड़े हैं।''

''नहीं-नहीं वो नहीं। उस पैकेट में क्या है?''

''ओ जी आगरे वाली दालमोठ।''

''तो फिर उस डिब्बे में जरूर कुछ होगा... उसे निकालो।''

''दीवान जी, ये तो टैलकम पाउडर का डब्बा है।''

''क्या बकवास करते हो? मुझे तो बम जैसा दिखता है। इसकी...''

''ओए... जरा जबान सँभाल के गल कर... असी ऐसे-वैसे बंदे नई आँ... कित्थे ए त्वाडा इंचार्ज?... अबी उना नूँ दसदे आँ कि डिब्बे विच गन पाउडर ए कि टैलकम पाउडर...।''

सरदार जी तैश में आ गए और पीछे खामोश खड़े मोटे सिपाही ने आगे वाले पतले सिपाही का हाथ दबाया।

अब वे दोनों पुलिस वाले एक साथ तीन सीटें लाँघकर सुवीर और लूसी के पास आ गए। इस बार मोटे सिपाही ने उनकी फलों की डालिया का ढक्कन अपने डंडे से उठाया और कहा - ''इसमें क्या है?''

उस सिपाही की भारी-भरकम काया और ऊपर से मोटी-मोटी मूँछें दिखाई पड़ते ही मैं मूषक भय से थरथर काँपने लगा। परंतु अगले ही क्षण मुझमें न जाने कहाँ से गजब की ऐसी फुर्ती आई कि ढक्कन खुलते ही मैं एक स्प्रिंग की भाँति ऊपर उछला और संयोग से उसी सिपाही की गर्दन पर गिरकर सवार हो गया। मैंने पीछे से उसकी कमीज के कालर को अपने पंजों से कसकर पकड़ लिया। मोटा सिपाही उछलता-कूदता उस बस के पिछले दरवाजे की ओर भागा। उसका डंडा भी छूटकर बस में गिर पड़ा। गिरे हुए डंडे को उठाकर पतला वाला सिपाही भी उसके पीछे भागा। दोनों बस से उतर गए। उनके पीछे मैं भी उतरकर ढाबे में चला गया। पीछे रह गया टूरिस्ट बस के मुसाफिरों का एक जोरदार ठहाका।

यह ढाबा अपेक्षाकृत काफी साफ-सुथरा था। रात्रि में मुसाफिरों को आकर्षित करने के लिए ढाबे के बाहर के पेड़ों पर रंग-बिरंगी ट्यूबलाइटें जगमगा रही थीं। एक पेड़ के निकट कुछ देसी मुर्गे दाना चुग रहे थे। उनकी एक टाँग सुतली से बँधी हुई थी। चमचमाते हुए भगौने लाइन से तंदूर के निकट सजे हुए थे। तंदूर वाला हथेलियों को बजा-बजाकर करारी तंदूरी रोटियाँ तैयार कर रहा था। ढाबे के बाहर चारपाइयाँ बिछी हुई थीं। प्रत्येक चारपाई के पायताने लकड़ी का एक फट्टा रखा था जिन पर विभिन्न तश्तरियों में तरह-तरह के पकवान परोसे गए थे और उन पर झुके हुई कई ट्रक ड्राइवर, क्लीनर और गाड़ियों के मुसाफिर हाथ साफ कर रहे थे।

वह टूरिस्ट बस जा चुकी थी। उसका स्थान खाली था। शीघ्र ही उस स्थान को लखनऊ की दिशा से आने वाली एक ट्रक ने भर दिया।

ट्रक से एक छिपकली मार्का व्यक्ति उतरा। विचित्र वेशभूषा। सिर के बाल बुरी तरह तेल चुपड़े और सीधी कंघी से पीछे की ओर चिपककर कढ़े हुए। आँखों में बाँका सुरमा बरेली वाला। होंठों की कोर से बनारसी पान-पीक की खिंची हुई लकीर। गले में रंग-बिरंगा बंबइया रूमाल। जिस्म पर मढ़ी हुई लाल रंग की कलकतिया कमीज। चूड़ीदार अलीगढ़ी पैजामा और पैरों में लखनऊआ नागरा जूते। एक हाथ में टीन का बक्सा। दूसरी काँख में दबा एक रस्सी बँधा छोटा बिस्तरबंद। और चाल?... चाल एकदम लचकू-कमरिया!

वह ट्रकवाला इस औरतनुमा आदमी को उतारकर एक आँख दबाकर सीटी मारता हुआ अपना ट्रक बढ़ा ले गया। लचकूकमरिया एक खाली चारपाई पर आकर बैठ गया। उसने अपने हाथों का सामान जमीन पर रख दिया। कमीज की ऊपरी जेब से एक छोटा कंघा निकाला और दीन-दुनिया से बेखबर होकर करीने से अपने कढ़े हुए बालों को फिर से काढ़ने लगा। तभी ढाबे का एक छोकरा आकर उसके सामने खड़ा हो गया।

लचकूकमरिया ने पूछा - ''खाने में क्या है?'' लड़का तोतारटंत-सा एक साँस में कह गया - ''चिकनकोर्मा - चिकनकरी - मटनकोर्मा - मटनकरी - मटन दोप्याजा - आलू गोभी - आलू मटर -आलू भिंडी - मटर पनीर - दाल फ्राई - चावल - तंदूर रोटी - अगड़म-बगड़म।''

लचकूकमरिया ने एक लंबी साँस खींची और छोड़ी। उसके बाद अपना शहंशाही ऑर्डर दिया - ''एक दाल फ्राई... तंदूरी रोटी... और प्याज-लहसुन... जरा तबीयत से।''

'तबीयत से' कहने में उसकी भौंहें कत्थक-स्टाइल में उठीं, गिरी और उसके निचले होंठों को उसके ऊपरी दाँतों ने सायास काटा। यह देखकर वह कम उम्र का छोकरा घबराकर खिसक गया।

मैंने देखा कि यह ढाबा खूब चलता हुआ था। एक भी चारपाई अधिक देर तक खाली नहीं रहती थी। ग्राहकों के खाने से बची हुई हड्डियों और जूठन के लालच में वहाँ मँडराने वाले आवारा कुत्तों की खातिर का भी अच्छा-खासा प्रबंध था। एक काले रंग का कुत्ता तो लगता था कि ढाबे के मालिक ने ही पाल रखा था जो काफी खूँखार था। ये कालू कुत्ता सड़क के दूसरे कुत्तों के लिए अच्छी-खासी चुनौती था।

दाल फ्राई और सोंधी-सोंधी तंदूरी रोटियाँ, प्याज-लहसुन, मिर्च के साथ तख्ते पर रख दी गई थीं और लचकूकमरिया उन पर शुरू हो गया था। मैं भी कालू कुत्ते की निगाह बचाकर उसी चारपाई के नीचे बैठा एक गिरे पड़े रोटी के टुकड़े को जल्दी-जल्दी उदरस्थ कर रहा था।

तभी न जाने किधर से एक आफत का मारा खजुहा कुत्ता वहाँ प्रकट हुआ। वहाँ के पालतू कालू कुत्ते की निगाहें जैसे ही उस मरियल से खजुहे कुत्ते पर पड़ीं वह फौरन उस ओर झपट पड़ा। कालू की घुमावदार पूँछ तेजी से हवा में लहराने लगी। इसके विपरीत खजुहे ने अपनी दुम अपनी दोनों पिछली टाँगों के बीच दबा ली, परंतु साथ ही उसकी आँखों में एक खूनी चमक भी आ गई और उसके मुँह के दाँत किसी आरा मशीन के खतरनाक दाँतों की भाँति बाहर की तरफ स्वतः निपुरने लगे। उसके जबड़ों के दोनों कवर ऊपर-नीचे खिंचने लगे और गले से निकलने वाली गुर्राहट गहरी होती चली गई।

कालू और खजुहा म्यान में से तलवार खींचे दो जाँबाजों की तरह अपनी-अपनी पोजीशन लेने लगे। अचानक खाना देने वाले उस छोकरे ने रेफरी की तरह एक डंडा खजुहे कुत्ते की कमर पर रसीद किया। एक मर्मांतक आर्तनाद के साथ ही जैसे ही खजुहा मैदान छोड़कर भागने को हुआ कालू कुत्ते ने सर्वोत्तम अवसर देखकर उस पर अटैक कर दिया।

कहते हैं कि आत्मरक्षा में आक्रमण ही सबसे बड़ा कारगर उपाय होता है। सो खजुहे ने नवीन परिस्थितियों में वही किया। एक बार पटखनी खाने के बाद वह पलटकर कालू पर चढ़ बैठा। गुर्राहट-चिल्लाहट-चिल्लपों के बीच एक-दूसरे से गुत्थगुत्था हुए ये दोनों शूरवीर लचकूकमरिया की चारपाई के ठीक नीचे आ घुसे।

अब क्या था? वहाँ एक हड़कंप-सा मच गया। आसपास की चारपाइयों पर बैठे अनेक भोजनभट्टों की हिम्मत जवाब दे गई और इधर मैं भी घबराकर चारपाई के नीचे रखे टीन के बक्से की एक प्रदक्षिणा करके लचकूकमरिया के बिस्तरबंद के होल में दौड़कर घुस गया। अब मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि अपना मुँह बाहर निकालकर आगे का नजारा देख सकूँ।

पहले चारपाई घसीटे जाने की ध्वनि आई। फिर जमीन पर लाठी पटके जाने की आवाज हुई। फिर लगा कि किसी ने साधकर लाठी का एक करारा प्रहार किसी कुत्ते पर किया। उसके बाद एक लंबी 'कें-कें-कें' के साथ फुर्सत हो गई।

मेरा दिल जोर-जोर से धड़क रहा था और मेरे कान सुन रहे थे - ''ये देखो बैजुआ।... ओ बैजू बावरा... कहाँ था इतने दिनों... अरे इसे ले चलो... बड़े मौके से मिल गया साला।''

''जै हिंद दीवान जी!... का बात है? बड़े परेशान लग रहे हो?''

''चल-चल बैजू! तुझसे एक काम है। दरोगा जी तुझे याद कर रहे हैं।''

उसके बाद टीन का बक्सा खटका। मुझे ऐसा लगा कि जिस बिस्तरबंद में मैं मुँह छिपाए बैठा था उसे अचानक हवा में टाँग लिया गया है।

ये वही मोटू-पतलू सिपाही जी थे जो थोड़ी देर पहले मुझे टूरिस्ट बस में मिले थे। मैंने बिस्तरबंद से मुंडी निकालकर देखा कि वे दोनों उस लचकूकमरिया उर्फ बैजू बावरा को लगभग धकियाते हुए पुलिस चौकी की ओर ले जा रहे थे।

एक अत्यंत पुरानी इमारत के पास आकर उसके मेहराबदार गेट से हम लोग अंदर प्रविष्ट हुए। इमारत क्या थी, लगता था कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से निकला हुआ एक ऐसा खंडहर सामने खड़ा है जो कि मानो पुरातत्व विभाग की पैनी निगाहों से अछूता रह गया हो। इमारत की पुताई एक शताब्दी से भी अधिक काल से नहीं हुई थी। उसकी छत और कंगूरों पर डेढ़-डेढ़ बित्ता की काई जमा थी। स्थान-स्थान पर घास और खर पतवार ऊपर से नीचे लटकी हुई अंगूर की बेलों की भाँति इमारत की खूबसूरती में चार चाँद लगा रही थी।

पुलिस चौकी के भीतर दो तख्त पड़े थे जो कि नवाब वाजिद अली शाह के जमाने के थे। उनमें से एक पर वायरलेस सेट रह-रहकर सन्नाटे को चीर रहा था, जो कि उस रहस्यमय वातावरण में तकनीकी तरक्की का इकलौता साधन प्रतीत होता था। उसे सुनने-समझने वाला होमगार्ड कहीं आस-पास तेल लेने गया हुआ था। वहाँ कुछ ऐसे फर्नीचर भी थे जो संभवतः किसी नीलामी में खरीदे गए हों और कतिपय ऐसे कागज-पत्तर भी तख्तों पर बिखरे हुए थे जो कि राजकीय अभिलेख कम और नल-दमयंती के युग के भोजपत्र अधिक प्रतीत होते थे।

चौकी में पूरा अमन-चैन था। कोई भी वहाँ बेरोकटोक आ-जा सकता था, परंतु वहाँ पड़ी किसी चीज को हाथ लगाने का दुस्साहस कदापि नहीं कर सकता था। आखिर यह पुलिस चौकी जो थी।

इसी बीच मोटा वाला सिपाही जाकर दरोगा जी के क्वार्टर में उन्हें सारी वस्तु स्थिति से अवगत करा आया। उस क्वार्टर के बाहर एक लाल-नीले निशान से युक्त बुलेट मोटरसाइकिल इस तरह खड़ी थी मानो कोई अरबी घोड़ा अपने अस्तबल से खुल निकलने के लिए एकदम तैयार हो। क्वार्टर के सदर दरवाजे का फ्रेम छोटे कद का था। वह इस प्रकार बना था कि हर लंबा आदमी उसमें से सिर झुकाकर ही भीतर जाए। यह ब्रिटिशकालीन दरोगा-आवास था और उसे देखते ही मन में यह अवधारणा दृढ़ हो जाती थी कि अंग्रेज लोग हुकूमत का इकबाल बुलंद करने के लिए किस हद तक सजग रहा करते थे।

दरवाजे के बाहर एक लाल-नीले निशान से युक्त नामपट्टिका टँगी थी जिस पर इस इलाके के सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति का नाम लिखा था - विक्रमादित्य पांडे। नामपट्टिका पर भले ही उपनाम पांडे लिखा था किंतु नई सरकार आने के बाद से बहुतों ने पांडे, मिसिर, चौहान आदि लिखना इन दिनों बंद कर दिया था। ऐसा मैंने टूरिस्ट बस के कंडक्टर को एक यात्री के कहते सुना था। इसलिए अब जो दौर है उसमें पांडे हटाकर विक्रमादित्य लिखना ही श्रेयस्कर है। क्या पता यह दरोगा जी अपनी वर्दी पर लगी नामपट्टिका में ऐसा ही करते हों?

बैजू बावरा को आखिरकार दरवाजे के परदे को सरकाकर भीतर ले जाया गया। वहाँ ट्रांजिस्टर पर समाचार सुने जा रहे थे। हिंदी के बाद अब उर्दू भी निबट रही थी। प्रसारणकर्ता की खनकदार आवाज कह रही थी - ''आल इंडिया रेडियो से खबरें खत्म हुईं। अब आजकल के हालात पर तब्सिरा सुनिए।''

इसी के साथ ट्रांजिस्टर चट से बंद कर दिया गया। मैं भी जिज्ञासावश स्वयं को रोक नहीं सका और अपनी नन्हीं-सी दुम को मरोड़ता हुआ दरोगा जी के दरवाजे से सटकर खड़ा हो गया, यह देखने के लिए कि वह अपने बैजू का अब क्या हाल करते हैं।

दोनों का यक्ष-संवाद प्रारंभ हुआ और मैं ध्यानमग्न होकर चुपचाप सुनने लगा।

''क्यों बे....! कहाँ था इतने दिनों?''

''सरकार! लाइए पहले टाँग दबा दूँ।... सुना है, आजकल बड़ी मेहनत पड़ रही है।''

''रहने दे-रहने दे... फालतू बात मत कर। पहले जो पूछता हूँ बता!''

''नाही माई-बाप!... ई चरनन मा तो हमार स्वर्ग है। पहिले हम आपन स्वर्ग की सेवा कर लें, तब जौन पूछा चाहौ पूछ सकत हौ।''

''अबे!... जरा धीरे-धीरे... क्या करता है? ये मेरी टाँग है, कोई अखाड़े में घुमाने वाला मुग्दर नहीं।''

''हाँ-हाँ सरकार!... ऊ तो हम जानित हैं... टाँग ही दबावत हैं... हमका कउनो कुस्ती लड़ै सा सौक नहीं।''

''अबे चुप साला!... सूअर का बच्चा!... छोड़..... छोड़ मेरी टाँग... उफ! मार डाला''

''अररे सरकार! हम देखत हैं कि दुइ महीना हमरा इधर आना नाहीं भवा तौन आप कितना कमजोर पड़िगै।... का देसी घी खाना बंद कै दिआ?''

''देसी घी? कौन लाता?... तेरा बाप?''

''काहे? ऊ कलुवा का मरि गवा?''

''कलुआ? कौन कलुआ?''

''अरे वही सरकार!... अपने गजाधर महाराज का बेटवा।... याद नाहीं?... जेकी औरतिया भाग गा रही लच्छुवा कै साथ?.... अरे आपै तो बड़ी मदद किए रह्यो ओका बरामद कराए मा अउर मामला रफा-दफा कराए मा!''

''हाँ-हाँ, याद आया!... तो उससे क्या?''

''अरे पिछली बार वही कलुवा से हम बोल गए रहे...''

''किसलिए?''

''आपके वास्ते हजूर, देसी घी पहुँचावे खातिर।... का नाहीं पहुँचाइस?''

''छोड़!... छोड़, छोड़ मेरी टाँग। साला अपनी बात गोल और जमाने भर की बातें लंबी-लंबी छोड़ता है। बोल... बोल कहाँ था इतने दिनों?''

''गों-गों-गों... अरे माई-बाप! हमरी गर्दन छोड़ैं सरकार.... बताता हूँ.... बताता हूँ।''

''ले छोड़ दी। अब बोल।''

''वो अइसा है सरकार कि आजकल धंधा तनि हल्का चल रहा है। लोगबाग इधर काफी चालाक हुए गै हैं। केहू के जेब मा हाथ डालो तौन सीजनल टिकट निकरि आवत है या फिर बैंक का गारंटी कार्ड। अब हम करते तौन का करते?''

''फिर?''

''फिर का? इसी से तनिक हवा-पानी बदले खातिर कुछ समय को राजधानी चले गए रहे।''

''अच्छा बेट्टा!... तो ये बात है।... वहाँ जाकर क्या किया?''

''किया का? कुछ दिन टिकट माँगे वालन की लाइन मा खड़े रहे। मुला जब एक नेताजी हमका धता बताय के ऊ टिकट आपन बेटवा को दिला दिए तौन अपने राम फिर से आपन पुस्तैनी धन्धे पे आय गए।''

''अच्छा सरऊ!... तौन हमरे वास्ते हुवां से क्या लाए?'' - दरोगा जी ने लचकू से मसखरी की।

''सरकार!... अभी-अभी राजधानी से लौटा हूँ। यूँ समझैं कि बहार आते-जाते थम गई। फिलहाल एक मौका अउर दै दें।'' - लचकू इस बार पूरे आत्मविश्वास से बोला।

''अब कितना?''

''हजूर!... बस एक हफ्ता।''


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