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उपन्यास

अथ मूषक उवाच

सुधाकर अदीब


सत्ताधारियों और सत्ता की होड़ में लगे हुए लोगों की उस विशालकाय बिल्डिंग से निकालकर जब हमें गटर में फेंक दिया गया तो मुझे पदयात्रा की सूझी।

मेरे साथ के दो चूहों के शवों को गटर के उस प्रदूषित वातावरण में मरणोपरांत जल-समाधि मिल चुकी थी और मैं क्योंकि अभी जीवित था तथा तैरना जानता था, इसलिए विपरीत परिस्थितियों में भी मैं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने लगा।

कभी मुझे लगता कि मैं स्वयं तैर रहा हूँ और कभी लगता कि उस गटर का प्रवाह ही मुझे बहाए लिए जा रहा है। विपत्ति के उन क्षणों में मैंने अपने से भी अधिक निकृष्ट जीवधारियों को उस गटर में जीते और साँस लेते पाया। तभी मैं जान सका कि यह संसार कितना त्रासदीयुक्त है। और कीड़े-मकड़ों की जिंदगी का क्या अर्थ होता है।

पिछले जन्म में मैं भी एक मनुष्य रहा चुका था। इसलिए मुझे उनका भी खयाल आया। गटर का गंदा पानी मुझे मेरे खयालों के साथ-साथ बहाकर काफी दूर ले गया और मैं गटर के अंतःकरण में बहने वाले उस नाले से होकर गोमती नदी में जा मिला।

मैंने देखा कि शहर की गंदगी को बहाने वाले ऐसे कई नाले उस नदी की पवित्रता को भंग कर रहे थे। अतः वह नदी जो नागरिकों को पवित्रता प्रदान करने का सबसे बड़ा स्रोत हो सकती थी, स्वयं ही एक बहुत बड़ा गंदा नाला बनी हुई थी।

काफी दूर तक उस जल-मल-धार में हाथ-पाँव मारते हुए जब मैं थककर चकनाचूर हो गया और मेरी हिम्मत जवाब दे गई तो संयोग से मुझे अपने पास ही तैरता हुआ एक लकड़ी का टुकड़ा मिल गया। डूबते हुए को इतना सहारा पर्याप्त था। मैं उस लकड़ी पर सवार हो गया। वह किसी श्मशान घाट की जली हुई लकड़ी थी। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि यह लकड़ी जो मुर्दों को जलाने में काम आती है, वह आज मुझ चुहे को जिलाने में काम आई।

मैं नदी कि किनारे पहुँचा और फिर से जमीन पर चलने लगा। मैं सोच रहा था इस जमीन पर करोड़ों इंसान ऐसे हैं, जिनका जीवन मेरे जीवन से बहुत भिन्न नहीं है। यह भी, कि जीवन का मर्म जाने बिना जीवनमुक्त होना संभव नहीं है। इसलिए मैंने अब कारों और बँगलों का मोह छोड़कर आम जनता के जीवन को और भी निकट से देखने के लिए पदयात्रा करने का मन बना लिया।

यह पदयात्रा भी कितनी अजीब चीज है। इसमें पग-पग पर नित नए अनुभव होते हैं। मैं क्योंकि एक चूहा था, इसलिए नौ दिन में अढ़ाई कोस ही चल पाता था। ऊपर से मुझे चील-कउवों और कुत्ते-बिल्लियों का भी खतरा रहता था। इसलिए सीधी सड़क पर अथवा किसी राजमार्ग पर चलना मेरे लिए बहुत खतरनाक था।

खतरे तो और भी बहुत से थे। मैं कोई राजनेता तो था नहीं, जिसके साथ-साथ चमचों और कमांडोज की फौज चलती। न मैं कोई अभिनेता था, जिसके पीछे ऑटोग्राफ चाहने वालों की भीड़ दौड़ती। मैं कोई बड़ा अधिकारी भी नहीं था, जो अनेक चापलूस अधीनस्थों से हरदम घिरा रहता। अगर ऐसा हेाता तो मेरी सुरक्षा एवं सुविधा स्वयमेव सुनिश्चित हो जाती।

मैं तो एक मरियल-सा नादान चूहा था, जिसके मन में इस देश को नजदीक से देखने-समझने और महसूस करने का एक अरमान था। मैंने अपना पिछला जीवन तो अमराइयों, स्कूल-कॉलेजों और रेस्टोरेंट्स में हँसी-मजाक, कहकहों और शरारतों में गँवा दिया था और अल्प आयु में ही काल-कवलित हो गया था। अब इस जीवन में मैं जो था, जैसा भी था, इस मृत्युलोक को उसके समस्त दुखों-सुखों के साथ पूर्ण गंभीरता से देख लेने के लिए प्रयत्नशील था।

फलतः मैंने अपने लिए अपेक्षाकृत दुर्गम किंतु अपने हिसाब से थोड़ा सुरक्षित मार्ग चुना। मैं खेतों-खलिहानों, पगडंडियों और पनघटों से होकर गुजरने लगा। सौ-दो सौ कदम चलता। रुककर सुस्ताता और आगे चल देता। चलते-चलते जहाँ कहीं भी मुझे खतरे की गंध सुँघाई पड़ती, फट से किसी झाड़ी में घुस जाता।

मार्ग में जो भी कंद-मूल-फल अथवा उच्छिष्ट मिल जाते, उन्हीं से अपना काम चला लेता। न मुझे दिन की चिंता थी और न ही रात की फिकर। बस, चला करता-चला करता। अब तो चलते जाना ही जैसे मेरे जीवन का लक्ष्य बन चुका था।

वह एक बहुत बड़ा तालाब था। मैंने देखा कि उसके इस पार, जिधर मैं था, घना जंगल था, ऊँचे-ऊँचे छायादार वृक्ष थे। कँटीली झाड़ियाँ थीं और जंगल से सटा हुआ एक बहुत बड़ा चरागाह था। तालाब के उस पार चकरोडों तथा मेड़ों में विभाजित दूर-दूर तक फैले खेत थे। खेतों के उस पास एक गाँव था।

तालाब के दाहिने-बाएँ दोनों सिरे विशाल एवं गोलाकार थे और उसका मध्य सँकरा था। प्रकृति की विचित्र लीला थी। अंग्रेजी के आठ के अंक को यदि लिटा दिया जाए, या यों कहें कि अनंत का चिह्न बना दिया जाए, कुछ-कुछ वैसा ही दृश्य उपस्थित करता था वह तालाब। उसके बीचोबीच आरपार जाने-आने के लिए एक छोटा-सा पुल बना हुआ था।

जब मैं वहाँ सुबह-सुबह पहुँचा तो रात-भर चलने से काफी थका हुआ था। मेरी वहाँ रुककर कुछ विश्राम करने की इच्छा हुई। चारों ओर रंग बिरंगी चिड़ियाँ चहक रही थीं। बगुलों की एक श्वेत पंक्ति कहीं से आकर तालाब के छिछले जल वाले भाग में अभी-अभी उतरी थी।

वहाँ का दृश्य इतना मनोहारी था कि मैं वहाँ कुछ पल के लिए रुके बिना रह नहीं सका। मैं जिस स्थल पर झाड़ियों में छिपा बैठा था वह संभवतः उस तालाब के सन्निकट का सबसे ऊँचा भूभाग था। इसलिए वहाँ से हर चीज साफ-साफ दिखाई देती थी।

मैंने देखा कि पुल के उस पार से एक धोबी अपने एक गधे पर कपड़ों के दो भारी-भारी गट्ठर लादकर खरामा-खरामा चला आ रहा है। उसके हाथों में एक चिलम दबी हुई थी, जिसका वह मजे-मजे आज के दिन का प्राथमिक सेवन कर रहा था। बोझ से लदा गधा निर्विकार भाव से आगे-आगे चल रहा था। धोबी उसके पीछे था। दोनों एक-दूसरे के तटस्थ किंतु फिर भी किसी अनदेखी डोर से बँधे हुए चले आते थे।

पुल के इस पार आकर धोबी ने कपड़ों के दोनों गट्ठर गधे की मरियल काया पर से उतारे और तब वह उस मूक पशु से बड़े प्यार से वार्ता करने लगा -

''चल बेटा बैसाखनंदन! ... अब तुझे कुछ आराम करने दिया जाए।''

गधे ने अपने दोनों खरहा कान जोरों से हिलाए मानो अपने मालिक को धन्यवाद दे रहा हो।

धोबी पुनः उससे बोला -

''मुझे बड़ा दुख है कि कल रात का मेरे ऊपर का सारा गुस्सा धोबिनिया ने तेरे ऊपर उतार दिया। ... देखूँ तो कहाँ-कहाँ मारा है तुझे? यह रूपा भी कितनी निर्दयी है!''

ऐसा कहते ही जैसे ही धोबी उसे छूने को हुआ, बैसाखनंदन ने ''होंची... होंची... होंची...'' का करुण क्रंदन छेड़ दिया। उस आर्तनाद को सुनकर कुछ हरियल तोते पेड़ों की शाखों से भर्रर्र से उड़ गए।

गधे का मालिक गधे की पीठ को बड़े प्यार से सहलाने लगा। सहानुभूति के दो शब्द भी बहुत काफी होते हैं। जब एक गधे तक को ये प्रभावित कर सकते हैं तो फिर मनुष्य की तो बात ही क्या? परंतु शायद उस बेचारे धोबी की स्वयं की किस्मत में वैसा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार नहीं बदा था।

उसने गधे को घास चरने हेतु वहाँ उन्मुक्त छोड़ दिया और कपड़ों की गाँठ खोलकर तालाब के किनारे घुटनो-घुटनों पानी में उतरकर उन्हें धोने लगा। वह कपड़ों पर कास्टिक सोडा, साबुन इत्यादि का प्रयोग करके उन्हें क्रमशः जल में डुबोता। फिर दोनों हाथों से नचा-नचाकर एक पटरे पर पटककर मैल का दम निकाल देता।

तालाब के आसपास का जल साबुन और मैल के संपर्क में आकर रंग बदल रहा था। वहाँ झाग के बुलबुले तैरने लगे थे। दिन चढ़ रहा था और गर्मी बढ़ने लगी थी। अचानक चार लठैत वहाँ आ धमके।

''ओ रामलाल के बच्चे! ... यहाँ क्या कर रहा है?'' उनमें से एक लठैत बोला।

''कपड़े धो रहा हूँ।'' धोबी रामलाल ने कहा।

''अच्छा, बस अब बहुत हो चुका... चल भाग यहाँ से।'' दूसरा लठैत बोला।''

''क्यों भागूँ?'' रामलाल बोला।

''सीधी तरह से जाता है या अकल ठिकाने की जाए तेरी?'' इस बार दाँत पीसकर तीसरा लठैत बोला।

''क्यों भइया, इस तालाब में कपड़े धोना मना है क्या?'' रामलाल ने दबे स्वर से पूछा।

''हाँ, मना है... हमारे ठाकुर साहब का हुक्म है कि आज से इस तालाब में हमारे अलावा कोई मछली नहीं पकड़ेगा और ना ही कोई दूसरी हरकत करेगा।''

''कौन ठाकुर साहब?'' रामलाल पुनः साहस करके पूछ बैठा।

इसके बाद आदिम सभ्यता का परिचय देने वाली वचनावली का प्रयोग करते हुए वे तीनों लठैत पानी में कूद पड़े। उन्होंने रामलाल का गिरेबान, हाथ-पैर या जो भी उनके हाथ लगा, पकड़कर उसे तालाब के बाहर घसीट लिया। फिर उसे जमीन पर पटककर वे लात-घूँसों से मारने लगे। उनमें से एक लठैत ने रामलाल पर वार करने के लिए अपनी लाठी हवा में तानी भर थी कि चौथे लठैत ने, जो बड़ी देर से शांत खड़ा था, हाथ के इशारे से अपने साथियों को रोक दिया। वह रामलाल से कहने लगा -

''देखो भई रामलाल! ... हम खून-खराबा नहीं चाहते... इसलिए आज पहले ही दिन तुम्हें बता देते हैं कि इस तालाब का पट्टा हमारे मालिक के हाथ लग चुका है। ठाकुर जोरावर सिंह का नाम तो तुमने सुना ही होगा? ... बाँसगाँव वाले?''

रामलाल ने स्वीकारोक्ति में अपना सिर हिलाया।

''बस, समझो इस तालाब के अब वही मालिक हैं।''

''मगर अभी तक तो बरसों से यह पट्टा डालचंद मल्लाह के नाम रहा था?'' रामलाल ने जमीन पर कराहते हुए कहा।

''हाँ... आज भी यह एक मछुए के ही नाम है। उसका नाम डालचंद की जगह फूलचंद है ... और फूलचंद हमारा आदमी है। तहसीलदार साहब से ठाकुर साहब के अच्छे संबंध हैं। मगर अपने ठाकुर साहब बड़े मस्त तबीयत के आदमी हैं। पहले कभी उनका इस ओर ध्यान ही नहीं गया। लेकिन भला हो नए कानूनगो साहब का, जिन्होंने ठाकुर साहब को इस बार यह राह दिखा दी।''

''पर भइया डालचंद मल्लाह ने तो हमें कभी यहाँ कपड़े धोने से नहीं रोका, फिर फूलचंद मल्लाह हमें काहे...''

''अरे ये क्या डालचंद-फूलचंद-डालचंद-फूलचंद लगा रखी है?'' अब उस शांत लठैत की लाठी भी उसके हाथों में कसमसाने लगी। वह झल्लाकर कहे जा रहा था - ''सुन बे रामललवा! ... याद रख डालचंद डालचंद था और फूलचंद फूलचंद है। दोनों में जमीन-आसमान का फरक है। फूलचंद तो हमारे ठाकुर साहब की मूँछ का एक बाल है और वो साला डालचंद न जाने कहाँ का बाल साबित हो। इसलिए अब ज्यादा बक-बक मत कर और भाग जा यहाँ से। ... और दुबारा इस तरफ कभी दिखाई न देना।''

रामलाल ने उनकी जान की खैर मनाते हुए जल्दी-जल्दी सारे कपड़े समेटे और सामने के गाँव की ओर भागा। वे चारों लठैत भी उसके बाद देखते ही देखते जंगल में अंतर्धान हो गए।

अब मैं भी वहाँ से चल देने की सोच ही रहा था कि थोड़ी देर बाद मुझे पुल के उस पार से दस-बारह भैंसों का एक झुंड अपनी ओर आता दिखाई दिया। एक बारह-तेरह वर्षीय साँवले रंग का लड़का सबसे आगे की एक मोटी-ताजी भैंस की पीठ पर सवार था और बाँसुरी बजा रहा था। पुल के उस सिरे पर आकर वह लड़का भैंस पर से कूदकर उतर गया और इस पार आने लगा। सारी भैंसे उस पार ही एक-एक करके तालाब के पानी में उतर गईं।

फिर बकरियों के मिमियाने की आवाजें आईं और मैंने देखा कि ढेर सारी बकरियों के साथ एक दस वर्षीय गेहुएँ रंग की लड़की भी दौड़ती-भागती हुई इधर चली आती थी।

वह लड़का जो मस्ती से बाँसुरी बजाता चला आ रहा था, तालाब के इस सिरे पर आ चुका था। जबकि वह लड़की अभी पुल के बीचोबीच में अपनी बकरियों के मध्य भागी चली आ रही थी। ऐसा लगता था कि उसे अपनी बकरियों से अधिक उस लड़के की चिंता थी। उसे वह पीछे से पुकार रही थी -

''श्यामू! ओ श्यामू! ... रुक जा।''

मगर श्यामू जैसे कुछ सुन ही नहीं रहा था। लड़की उसके एकदम पास आ गई।

''श्यामू, मेरी बात नहीं सुनेगा?'' कहकर लड़की ने अपने सिर से अग्रभाग से लड़के की पीठ पर किसी भेड़ की तरह टक्कर मारी।

श्यामू उस धक्के से चार कदम आगे चला गया। फिर पलटकर वह उस लड़की को मारने को हुआ।

''ओहो, रधिया की बच्ची!'' कहकर श्यामू ने उसके खुले हुए केश पकड़ लिए। राधिया 'हाय अम्मा' कहकर चीखी तो श्यामू ने उसके केश छोड़ दिए।

बकरियाँ कँटीली झाड़ियों में बिखर गई थीं और हरी-भरी पत्तियाँ चुन-चुनकर खाने लगी थीं। इधर श्यामू और रधिया दोनों मेरे ही निकट घुटनों के बल बैठकर गुट्टे खेलने लगे थे। छोटे-छोटे पाँच चिकने पत्थरों को वे दोनों बारी-बारी से हवा में उछालते और उन्हें अपनी सीधी या उलटी हथेली पर लपकते या जमीन पर रखकर विभिन्न मुद्राओं में उनसे खेल करते। उस समय रधिया और श्यामू का संसार उन पाँच गुट्टों में ही सिमट आया था।

भैंसे तालाब में अपने शरीर का अधिकांश भाग डुबाए हुए जुगाली कर रही थीं। कुछ बगुले उनकी पीठ पर जाकर खड़े हो गए थे और आपस में कांफ्रेंस कर रहे थे। एक-दो कउवे भैंसों के कान में चोंच डालकर नामालूम कान के कीड़े साफ कर रहे थे या कि भैंसों से किसी अज्ञात दुश्मन की चुगली कर रहे थे। बकरियाँ जंगली झाड़-झंखाड़ों में बहुत दूर तक फैल चुकी थीं।

तभी वहाँ वे चारों लठैत पुनः प्रकट हुए और उन्होंने उन क्रीड़ारत बच्चों को भी ललकारा कि वे भी अपनी भैंसों-बकरियों के साथ फौरन वहाँ से रफूचक्कर हों। बच्चे डर गए और उन्होंने गाँव का रुख करने के लिए अपने जानवरों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया। इस जद्दोजहद में उन लठैतों ने भी तालाब के पानी में घुसकर भैंसों पर लाठी फटकारते हुए कुछ हद तक उनका साथ दिया।

वातावरण में पूर्ण आतंक समा गया। बगुले और कउवे आकाश में उड़ चले। भैंसे, बकरियाँ, श्यामू और रधिया गाँव की ओर भागने लगे। मैं भी उन भागते हुए प्राणियों के पीछे हो लिया और उछलकर सबसे पीछे की एक भैंस की दुम से लटक गया। यह भी एक विचित्र अनुभव था। भैंस की दुम से लटककर किसी अज्ञात गंतव्य की ओर बढ़ना।


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