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लोककथा

लोक और काव्य

खलील जिब्रान


मैंने तुम्‍हें बोया
मैंने तुम्‍हें लगाया
तुममें फसल उगाई
हर ऋतु में

अब, बाद से पहले
तुम मेरी खेती हो
बल्कि उससे अधिक
जो मेरे पास अभी है।
जितना होगा उससे कहीं अधिक
अपनी उत्‍सुक इच्‍छाओं में

मेरे हृदय की
धड़कन तुम हो -
मुलायम सुबह की तरह

तुम्‍हारे पर्वतों के पीछे की रोशनी मुझे छूती है
दोपहर जुड़ी हुई है मुझमें
बहुत छोटी परछाईं की तरह

स्‍वर्ग के विरुद्ध की अग्नि में
शामें, रातों का ताप है
अर्द्धरात्रि में
मेरी बाँहों में
तुम हो
निर्बंध पंक्तियों के बीच में हो जैसे
जब तक मैं रह सकूँगा-रहूँगा
मैं अब तुममें हूँ
फिर-फिर से
हमेशा-हमेशा तुम होता हुआ
मैंने तुम्‍हें बोया
मैंने तुम्‍हें लगाया
मैंने तुम्‍हें बढ़ाया
फिर-फिर से
मैं तुममें रहता हूँ
मैं आश्‍चर्यजनक रूप से
वर्ष भर दोहरी फसल हूँ तुम्‍हारी
जैसे स्‍वागत करनेवाली
हथेलियों के बीच मैं

 


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