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कविता

मनुष्य-लीला

चंद्रेश्वर


हम बार-बार उजड़ते हैं
तो बसने की कहानियाँ भी दुहराते हैं
बार-बार
ये और कुछ नहीं बस
लीला है मनुष्य की
अपरंपार !

 


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