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कविता

माचिस की बाबत

ज्ञानेंद्रपति


बाजार से
माचिसें गायब हैं
दस दुकान ढूँढ़े नहीं मिल रही है एक माचिस
बड़ी आसानी से पाई जाती थी जो हर कहीं
परचून की पसरी दुकानों पर ही नहीं, पान के खड़े पगुराते खोखों पर भी
राह चलते
चाह बलते
मिल जानेवाली माचिस, मुस्तैद
एक मुँहलगी बीड़ी सुलगाने को
एहतियात से !

क्या हमने सारी माचिसें खपा डालीं
जला डालीं बुझा डालीं
गुजरात में, पिछले दिनों
आदमियों को जिंदा जलाने में
आदमीयत का मुर्दा जलाने में ?

जब माचिस मिलने भी लगेगी इफरात, जल्द ही
अगरबत्तियाँ जलाते
क्या हमारी तीलियों की लौ काँपेगी नहीं
ताप से अधिक पश्चात्ताप से ?!

 


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