राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 17 अक्टूबर 1940 के दिन आचार्य विनोबा भावे को व्यक्तिगत सत्याग्रह का प्रथम सत्याग्रही चुना था जबकि जवाहर लाल नेहरू दूसरे सत्साग्रही थे। ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता ने दूसरे महायुद्ध में बिना भारतीय जनता से पूछे, उसे युद्ध में शामिल किया था। कांग्रेस ने विदेशी सत्ता के फैसले का प्रतिवाद करते हुए व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करने का फैसला लिया। इस फैसले के पीछे कांग्रेस आगामी जनव्यापी संघर्ष के लिए अपनी कतार और संगठन को चुस्त-दुरुस्त करना चाहती थी। 15 मई 1941 तक 25 हजार सत्याग्राहियों ने गिरफ्तारी देकर राष्ट्रीय आकांक्षा को नए तेवर प्रदान किए थे। जेल से रिहाई के बाद राष्ट्रीय नेतृत्व की चिंता भारत की सुरक्षा थी। दिसंबर, 1941 में कांग्रेस कार्य समिति ने प्रस्ताव पारित कर युद्ध में अंग्रेज सरकार को सहयोग देने का प्रस्ताव पास किया था, बशर्ते, इंग्लैंड युद्ध के बाद भारत को पूर्ण स्वराज्य देने का आश्वासन दे।
बंदी जीवन में विनोबा जी ने साहित्य साधना की और तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी थीं, जिन में 'स्वराज्य शास्त्र', 'स्थितप्रज्ञ दर्शन' और 'ईशा वास्य वृत्ति', प्रमुख रचनाएँ थीं।
यदि गांधी जी के राजनीतिक गुरू गोखले थे तो आध्यात्मिक शिष्य थे आचार्य विनोबा भावे। 7 जून 1916 को विनायक (विनोबा) अहमदाबाद स्थित गांधी जी के कोचरम आश्रम पहुँचे और दोनों को अहसास हुआ कि उन का जन्म-जन्म का रिश्ता जुड़ा हुआ है। ''मैं बापू के पास पहुँचा और मुझे वहाँ हिमालय की शांति और बंगाल की क्रांति, दोनों का अद्भुत संगम देखने को मिला। उस क्षण से शांतिमय क्रांति के काम को मेरा जीवन समर्पित हो गया।'' बहुत साल बाद विनायक से विनोबा बन जाने पर यह बात विनोबा जी ने कही। 'ज्ञानोबा' तुकोबा कहने की महाराष्ट्र की जो परंपरा है उस के अनुरूप 'विनोबा' नाम गांधी जी का दिया हुआ है।
गांधी जी ने आगे चलकर आश्रम का स्थानांतरण कर उसे कोचरब से साबरमती नदी के किनारे स्थापित किया। आश्रम में रोज सुबह-शाम प्रार्थना होती थी। रसोई में रोटियाँ बेलनी पड़ती थी और संडास साफ करने पड़ते थे। आगे चलकर चरखे पर सूत कताई का काम भी शुरू हुआ। विनोबा भी इन सभी तरह के अनुष्ठान से जुड़े थे।
प्रथम सत्याग्रही विनोबा कौन है, यह सवाल देश के सामने था। उन की मौन साधना के बारे में सारे देश को कोई जानकारी नहीं थी। अंततः महादेव भाई देसाई ने 'हरिजन' में लेख लिख कर देश को विनोबा का परिचय कराया। प्रथम सत्याग्रही का पहला भाषण पवनार की आम सभा में हुआ था।
व्यक्तिगत सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन में विनोबा जी जेल गए। इस बार कारावास की दीर्घ कालावधि में ग्रंथ रचना, अध्ययन तथा प्रथम सत्याग्रही के रूप में देश सेवा की जो जिम्मेदारी गांधी जी ने उन पर डाली थी उसे निभाने की दृष्टि से चिंतन, मनन आदि सब चल रहा था। 9 जुलाई 1945 को वे जेल से रिहा हुए और वापस पवनार आकर पहले की भाँति अपने काम में लगे रहे।
देश विभाजन और बापू का बलिदान स्वतंत्र भारत ने भोगा था। 15 अगस्त 1947 को जब देश स्वतंत्र हुआ, तब गांधी जी सुदूर बंगाल में दीन दुखियों के आँसू पोंछ रहे थे। स्वराज्य के समारोह में महात्मा जी ने हिस्सा नहीं लिया और अंत में 30 जनवरी 1948 का जब सूरज ढला, 'हे राम' कहते हुए महात्मा जी शहीद हो गए।
देश विभाजन के साथ-साथ, डेढ़ करोड़ आबादी की अदला-बदली हुई, दस लाख बेगुनाह, हिंदू-मुसलमान मौत के आगोश में सुला दिए गए और एक लाख महिलाओं का तब अपहरण हुआ। जिन्ना की जिद, अंग्रेज की साजिश और राष्ट्रीय नेतृत्व की मजबूरी से देश का बँटवारा हुआ।
दिल्ली में सांप्रदायिक-सद्भाव कायम करने की बड़ी चुनौती थी। गांधी जी के बुलावे पर इलाहाबाद से पंडित सुंदर लाल दिल्ली आ गए थे। श्रीमती इंदिरा गांधी, सुभद्रा जोशी, अनीस किदवई जैसी जागरूक स्वराज्य की साधिकाओं ने गांधी जी के निर्देश पर सांप्रदायिक सदभाव के लिए घनघोर प्रयास किया। जबकि पंडित सुंदर लाल, कम्युनिस्ट के.एम. अशरफ के साथ मेव मुसलमानों के बीच काम में जुटे थे। पंडित नेहरू के बुलाने पर निर्वासितों के पुनर्वास के लिए विनोबा भी दिल्ली पहुँच गए और उन्होंने राजस्थान के मेव जाति के मुसलमानों को बसाने का काम किया।
आंध्र में तेलंगाना, केरल में पुनप्रा वायलर तथा बंगाल में तेभागा का किसान संघर्ष सारे देश में नूर की किरण बन कर दमक रहा था। तेलंगाना के निजाम शाही के जोर जुल्म के खिलाफ किसानों ने तीन हजार गाँवों को मुक्त कर लिया था और जमीन का वितरण कर जमीन के सवाल को राजनीति के केंद्र में पेश कर दिया था।
जनप्रिय कांग्रेस सरकार ने जमींदारी उन्मूलन और रजवाड़ाशाही के खात्मे की व्यवस्था की। स्वराज्य के संघर्ष में कांग्रेस ने काश्तकारों से वायदा किया था कि स्वराज्य आने पर जमींदारी प्रथा को खत्म कर दिया जाएगा। कानूनी छिद्रों का भूस्वामी वर्ग ने लाभ उठाया अतएव गाँव के गरीबों में असंतोष बढ़ता रहा, और उस असंतोष की आग में तेलंगाना का किसान संघर्ष सुविस्तृत आधार लेता रहा।
जमीन का सवाल जनतंत्र से जुड़ा है। समाजवादी देशों में सहकारी खेती और जन कम्यून के द्वारा भूमि की समस्या का हल खोजा गया, लेकिन स्वतंत्रता से पूर्व चंपारण और खेड़ा सत्याग्रह में गांधी जी के अनूठे प्रयोग की गूँज सुनाई पड़ी। वर्ष 1936 में कांग्रेस की प्रेरणा पर अखिल भारतीय किसान सभा के गठन के द्वारा किसानों के संगठन और समस्या पर नए परिप्रेक्ष्य में काम शुरू हुआ। गांधीवादी प्रयोग की अगली कड़ी आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में भूदान है, जो गांधीवादी हृदय परिवर्तन का अभिनव प्रयोग था।
विनोबा पर गांधी, कबीर और बुद्ध का प्रभाव है। वह अहिंसक क्रांति के उपासक थे। उन के पैर धरती पर, चिंतन विश्व का, मार्ग करुणा का और कार्य क्रांति का। पैर चलायमान और प्रज्ञा स्थिर। 7 मार्च 1951 को सेवाग्राम छोड़ा था, तब से लगभग तैंतालिस हजार मील की पदयात्रा कर के 6 अप्रैल, 1964 को बारह साल तेरह महीनों के बाद सेवाग्राम पहुँचने में विनोबा की लगभग दो पृथ्वी परिक्रमा पूरी हो चुकी थी।
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने संसद में कहा, ''हमारी शक्तिशाली सेवाएँ जो काम नहीं कर पाई, उसे एक दुबले-पतले फकीर ने कर दिखाया... तथागत गौतम बुद्ध ने ढाई हजार साल पहले ही कहा था कि बैर से बैर नहीं मिलता। निर्बैर से ही बैर का नाश होता है, यही सनातन धर्म है।''
विनोबा ने देश का आवाहन किया था कि गरीबी मिटाना एक काम है और उस काम में सभी दल मतभेद भुला कर एक दिल होकर लग जाएँ।
इसी तरह स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने दिसंबर 1962 में कहा था, गरीबी हमारा सब से बड़ा दुश्मन है। उस दुश्मन को खत्म करने के लिए सब को लड़ना चाहिए।
सर्वोदय गांधी और विनोबा का मार्ग था और कम्युनिज्म मार्क्स और लेनिन का पथ था। विनोबा ने बताया कि कम्युनिज्म में हिंसक साधनों का इस्तेमाल जरूर किया जाता है। फिर भी उस की बुनियादी ताकत तो करुणा ही है। गरीबों के दुख दूर करने की जो तीव्र भावना उन में है। वह हम में भी होनी चाहिए। अकसर यह होता हैं कि श्रद्धा, अहिंसा, शांति चाहने वाले यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं और समाज व्यवस्था में परिवर्तन करने वाले हिंसा को अपनाते हैं। मार्क्स के डाइलक्टिस भाषा में कहना हो तो मैं कहूँगा कि अहिंसा यथास्थिति है। थीसिस, हिंसा तथा क्रांति है एंटी थीसिस तथा अहिंसक क्रांति है सिंथिसिस।
सागर की जनसभा में विनोबा ने कहा, देश में पाँच करोड़ भूमिहीन हैं। खेती योग्य भूमि तीस करोड़ एकड़ है। मुझे इस का छठा हिस्सा चाहिए। राजा को छठा हिस्सा देने की अपनी पुरानी परंपरा है। प्रजा का राजा है गरीब जनता, दरिद्र नारायण। उस के लिए पाँच करोड़ जमीन का दान दीजिए। भारतीय संस्कृति की क्रांति की यह अनोखी पद्धति है।
वर्ष 1957 में दूसरी तरफ केरल की प्रथम कम्युनिस्ट सरकार ने भूमि सुधार का कार्यक्रम पेश किया। इस सरकार के खिलाफ स्थापित स्वार्थी वर्ग ने मुक्ति आंदोलन चलाया और अंततः 28 माह के बाद कम्युनिस्ट सरकार का पतन हो गया।
पश्चिमी बंगाल, केरल तथा त्रिपुरा में वामपंथियों का जन उभार रहा है। पश्चिमी बंगाल में चौंतीस वर्ष के वामपंथी शासन को यद्यपि मतदाताओं ने उखाड़ दिया लेकिन वामपंथी सरकार ने हरे कृष्ण कोनार की पहलकदमी पर भूमिहीनों को सरकारी जमीन देने का उल्लेखनीय काम किया। जिस की वजह से देहात में वामपंथ का जनाधार मजबूत हुआ था और गाँव के गरीब जमीन के मालिक बने थे।
आज परिस्थिति में मूलगामी बदलाव हुआ है। औद्योगीकरण तथा शहरीकरण की वजह से कृषि योग्य जमीन पर कंकरीट के जंगल खड़े हो रहे हैं और कृषि योग्य जमीन पर कॉलोनी बन रही है। इससे व्यवस्था के खिलाफ हिंसक संघर्ष उभर रहे हैं। इसलिए आज गांधी और नेहरू की सीख एक बार फिर प्रासंगिक नजर आती है। विनोबा फिर याद आने लगे हैं।
'सबै भूमि गोपाल की' कहने वाले तुलसी बाबा की बात को विनोबा ने सुना था। खून की बूँद गिराए बिना, किसी के दिल को जरा भी चोट पहुँचाए बिना, किसी का भी अहित किए बिना जमीन की व्यक्तिगत मिल्कियत समाप्त करने का प्रयास हुआ।
विनोबा जी पदयात्रा द्वारा ग्राम-ग्राम यही संदेश देते रहे : 'सुरम्य शांति के लिए जमीन दो, जमीन दो / महान क्रांति के लिए जमीन दो, जमीन दो।'
विनोबा के साथ जयप्रकाश थे। पंडित नेहरू गहरी आत्मीयता के साथ भूदान को देख रहे थे। भारत के साढ़े पाँच लाख गाँवों में से एक लाख साठ हजार ग्रामों का ग्राम दान हुआ अर्थात देश के पाँचवे हिस्से की जनता की निजी मिल्कियत छोड़ने के संकल्प पत्र पर हस्ताक्षर किए। लगभग पचास लाख एकड़ जमीन का भूदान मिला। उस में से तेरह लाख एकड़ जमीन का वितरण हुआ। केवल बिहार प्रदेश में ही पाँच लाख भूमिहीनों को जमीन मिली। 'भूदानी बाबा ने हमें जमीन दी' यह बात बीते वर्षों में कही जाती थी। जमीन के उस छोटे से टुकड़े पर पूरा परिवार मेहनत करता और अपनी धरती से प्राप्त रोटी खाते समय उन्हें बाबा विनोबा की याद आती है।
संसार के सुविख्यात अराजकतावादी चिंतक प्रिंस क्रोपाटकिन ने 'रोटी का सवाल' नामक पुस्तक लिखी थी जिस ने संसार के लुटे, पिटे, भूखे, नंगे, व्यवस्था से ठुकराए लोगों की भूख की व्यवस्था को उजागर किया था।
विनोबा के भूमिदान आंदोलन को देश-दुनिया ने देखा और परखा था। अंग्रेजी के महाकवि टेनिसन के पौत्र हॉलय टेनिसन ने कुछ दिनों विनोबा की पदयात्रा में रह कर उन पर किताब लिखी 'सेंट आन द मार्च' (पदयात्री संत) उसमें हॉलय टेनिसन ने लिखा था, ''संतों में भी कहीं एक अति सूक्ष्म आसक्ति होती है, त्याग का अहंकार होता है, पर विनोबा ने इसे पास फटकने तक नहीं दिया है। उन्होंने कभी किसी से अपना अनुकरण करने को नहीं कहा।''
फ्रांस के लान्फादेलवास्ता ने लिखा था, ''भारत की सामाजिक तथा आर्थिक क्रांति में विनोबा का योगदान एक नाट्यपूर्ण चमत्कार है।'' यह थी भूदान की महत्ता के प्रति देश और दुनिया की भावपूर्ण प्रतिक्रिया। पदयात्री संत का नमन, बार बार नमन।