इस वर्ष 62 वर्ष की हो गई हूँ। कुछ एक महीने पहले कवि केकी दारूवाला के घर कुछ अंग्रेजी आलोचक और लेखकों का जमावड़ा था। ऋतु मेनन के पति मेरे पास बैठे थे। बातचीत के दौरान 'मैं रिटायर हो गई हूँ' जैसी मेरी बात पर किसी ने अविश्वास प्रकट किया, तो मेरे मुख से निकला, 'सबसे विस्मयजनक तो यह है कि मैं आज भी अपने किसी भी पहले दिन से अधिक बड़ी नहीं हूँ।' (I don't feel older than any other day in my life.) क्योंकि बात गढ़ने का मेरा स्वभाव नहीं, मुझे सदा बात कहने के बाद ही उसके अर्थ समझ में आया करते हैं। घर लौटते समय मैं अपनी कही बात पर सोचती रही। सच ही, यह कोई चेतना का ही गुण है कि वह उम्र से न घटती है, न बढ़ती है। उसका विस्मय और आनंद अपार ही बने रहते हैं। रहे हैं...
शायद इसीलिए वे दोनों, आज लगभग पचास वर्ष के बाद भी मुझे ऐसे ही याद हैं जैसे किसी बड़े कलाकार की कृति को देख आप कभी नहीं भूलते - या एक बड़ी पुस्तक पढ़ने के बाद उसे जीते ही रहते हैं - जब तब। ये सब दूरियाँ पार कर पास आना, यह यह निकटता, स्मृति का अनोखा उपहार है - हमारी दरिद्रता और संपन्न ता इसी के न होने या होने के अनुपात से तय होती होगी शायद। जितनी याद में बना रह जाता है, वही तो बस जिया हमने। मैं तब पंद्रह की भी नहीं थी। अमृतसर से दसवीं करने के बाद दिल्ली भेज दी गई थी। उन दिनों दसवीं के बाद कॉलेज में प्रवेश मिलता था, किंतु बी.ए. में नहीं, 'प्रेपरेटिरी में', जिसे संक्षेप में हम 'प्रेप' कहते थे, के करने के बाद यह निर्णय लेना होता था कि अब किस तरह का बी.ए. करना है - 'पास कोर्स' या 'ऑनर्स' लो तो किस विषय में। प्रवेश की यह प्रणाली बी.ए. के लिए आज भी वैसी है - बदला है तो सिर्फ यह कि अब स्कूल में 10 के स्थान पर 12 वर्ष पढ़ना होता है। या बदला है, प्रवेश लेने वाली छात्राओं का रुख, उनका 'एटिच्यूड'। आज ऑनर्स में न आ पाना इस बात का सूचक है कि आपके अंक कम थे और लाचारी में आपको 'पास कोर्स' में पढ़ना पड़ा, क्योंकि ऑनर्स नहीं मिला।
तब ऐसा नहीं था। यदि था भी तो मेरे लिए नहीं। मेरे परिवार में - या उन दिनों - कॉलेज में भर्ती लेने वाली हम लड़कियाँ स्वतंत्रता के पहले दशक में पली थीं। अब तक पढ़ाई को खेल की तरह मैंने पढ़ा था। जब भी स्कूल से उत्तीर्णांक लेकर घर पर दिखाती कि 'प्रथम आई हूँ' तो माँ कहती, 'ठीक है। हमें तो पता है पढ़ाई में तेज हो। पर जाओ अब खेलो...' कभी मैंने मुँह बनाया भी कि 'बस, इतना-सा प्रोत्साहन भी नहीं', तो सब हँसकर कहते, 'तुझे नौकरी करनी है? हमारे यहाँ लड़कियों की कमाई नहीं चाहिए...'
जब बी.ए. का फार्म लेकर मैं घर गई और भाई से पूछा, 'क्या भरूँ?' तो बोले, 'कुछ भर दो, फर्क पड़ता है…' मैंने अपनी अल्प बुद्धि से अनुमान लगाया कि पास कोर्स में चार विषय लेने होंगे - हिंदी या अंग्रेजी या कुछ और। 'कुछ और' विषयों में तो मेरा रुझान था नहीं। हिंदी, अंग्रेजी ही विकल्प थे। और दोनों एक साथ केवल पास कोर्स में मिलते। सो मैंने वही ले लिया।
छात्रों के लिए कोर्स अदल-बदल करने की अवधि जब समाप्त होने को हुई तो एक दिन मुझे दाखिला-अध्यक्ष ने बुलाया। बोलीं, 'तुम्हारी अंग्रेजी अच्छी है। तुम पास कोर्स में क्या कर रही हो? तुम्हें मैं अंग्रेजी ऑनर्स दे सकती हूँ।' मैं हक्की-बक्की उनकी ओर देखती रह गई। अंग्रेजी बोलने की अदा थी - क्यार व्यक्तित्व, रूप और क्या नाम - रति बार्थलोमियो। पंजाब के छोंटे शहरों में पली मैं जानती ही न थी कि एक महिला अंग्रेजी ऐसे भी बोल सकती है जैसे चाकू की तेज साफ धार। वे मेरे उत्तर की प्रतीक्षा में थीं। डरते ही सही, मैंने कह ही दिया, 'किंतु मैम, मेरी हिंदी छूट जाएगी। उसे मैं नहीं छोड़ना चाहती।' इस बार विस्मित होने की बारी उनकी थी।
मैं जितने वर्ष बी.ए. के लिए इंद्रप्रस्थ कॉलेज में रही रति बार्थजलोमियो से एक अदृश्य आकर्षण में बंधी रही। जब वे अपनी दक्षिण भारतीय सूती साड़ी में मेरे पास से गुजरतीं, मैं देखती ही रह जाती - और उनके माथे की चौड़ी बिंदी। वे भी कनखियों से मुझे देख मुस्कुरा देतीं। यह कम बात नहीं थी। इतने बड़े कॉलेज में इतनी सारी छात्राओं के बीच रति जैसी प्रिय प्राचार्य को एक साधारण-सी दिखने वाली पास कोर्स की छात्रा का भान तक भी होना। वे कभी, मेरी क्लास को पढ़ाने न आईं - इसका मुझे दुख अवश्य रहा।
एक अन्य प्राचार्य जो रति के ठीक विपरीत थीं, किंतु जिन पर मैं उतनी ही जी-जान से मुग्ध थी और जो कभी मेरे क्लास पढ़ाने न आईं - वें - डॉ. मधुर मालती सिंह, हिंदी विभाग की थीं।
रति जितना तेज चलती थीं, मधुर मालती उतना ही धीमे लहराती-सी बालों में एक फूल लगाए तनिक बाएँ को झुकाकर चलतीं - अपने में पूरी तरह आत्मलीन और शायद उतनी ही आत्ममुग्ध। उन्हें भी एहसास था कि जैसे ही वे कॉलेज के गेट से अंदर आतीं, इधर-उधर बैठी छात्राएँ उन्हीं को देखकर सिसकारी-सी भरतीं। कई किस्से थे मधुर मालती के जो लड़कियाँ खुस-फुस करती रहतीं कि उन्होंने प्रेम विवाह किया, एक मोने सरदार लड़के करतार, से जो स्वंरय भी किसी कॉलेज में पढ़ता है।
पास कोर्स की लड़कियों को रति और मधुर मालती जैसी प्राध्यापिकाएँ नहीं मिलती थीं - जो मिलीं उनकी मुझे याद नहीं। पर ये जो मेरे प्रशिक्षण में शामिल न थीं, मानो मेरी संपूर्ण शिक्षा थीं। एक अंग्रेजी और दूसरी हिंदी मूर्तिमान।
बी.ए. के पहले वर्ष से ही कविता प्रतियोगिताओं में मैं आने-जाने लगी। दूसरे वर्ष तक हिंदी विभाग के लोग मुझे पहचानने लगे, क्योंकि मेरे साथ यदि कोई पुरस्कृत होता - जैसे पुष्पा् (बाद में रमानाथ अवस्थी जी की पत्नी) तो वे सब हिंदी ऑनर्स की छात्राएँ होतीं। उन्हीं दिनों मधुर मालती ने भी मुझसे वहीं कहा जो कभी रति ने कहा था, 'तुम पास कोर्स में क्या कर रही हो? तुम्हारी हिंदी इतनी अच्छी है, लिखती भी हो... अभी भी स्थानांतर किया जा सकता है...' उन्हें भी उसी तरह हकबकाए से देखा मैंने - महिला को ऐसा होना चाहिए - इतना दिलकश। वे भी मेरी उत्तर की प्रतीक्षा में थीं, मैंने वही कहा जो रति को, 'पर मैम, मेरी अंग्रेजी छूट जाएगी...'
उन्होंने मेरे उत्तर को कुछ भी समझा हो, वे मुझे बहुत प्यार करने लगीं। और प्रेम का यह संबंध कॉलेज छोड़ जाने के बाद भी चलता रहा। मुझे मधुर मालती के बोलने का अंदाज भी उतना ही प्रभावित करता था जितना रति का। किंतु कितना अंतर था उन दोनों के अंदाज में - मधुर बोलतीं तो पहले उनकी नाक थोड़ी फड़कती-सी, फिर वे गला साफ करतीं, बड़ी धीरे-धीरे अपनी बात कहतीं - एक-एक शब्द का रस लेती हुईं, जैसे उनका कहा उनके सुनने की बात थी, न कि रति की तरह जो लक्ष्य बेधक बात कहतीं, नपी-तुली। मेरी इन दो प्रिय भाषाओं के ये दो अलग अंदाज आने वाले वार्षों में मुझमें से ही फूटेंगे तब मुझे मालूम न था।
बी.ए. करते ही मैंने दिल्ली छोड़ा विवाह के साथ-साथ। कई वर्ष बाद जब मेरी रचनाएँ सब जगह छपने लगी तो मधुर से मिलने गई। वे अब इंद्रप्रस्थ कॉलेज के प्राचार्याओं के लिए बने आवास में ही रहती थीं। उनकी दो जुड़वाँ बेटियों के बाद एक प्यारा-सा छोटा बेटा भी था। दो-एक वर्ष बाद पता लगा बेटा नहीं रहा। उनसे मिलने गई। वे कलसा गईं थीं। वह नायिका-सा सौंदर्य उनका धूमिल हो गया था। बड़े कष्ट में बताती रहीं - 'मामूली बुखार था। डॉक्टर ने एंटीबायोटिक दिए किंतु यह नहीं बताया कि उनके साथ बच्चे को बी कॉम्प्लेक्स भी देना चाहिए। उन दवाइयों की वजह से ही उसे लुकीमिया हो गया - ब्लड कैंसर...'
समय के साथ फिर अपने में लौटीं तो - या मेरे लिए वैसी ही बनी रहीं। जब फोन करतीं, मेरी छपी किसी रचना का उत्साह से जिक्र करतीं। इस तरह से मुझे पढ़ाया नहीं तो भी वे मेरी साहित्यिक गुरु जैसी मेरे लिए रहीं।
1964 में जब मैं एक बार फिर विदेश जाने लगी तो उनसे मिलने गई। उनके घर के बाहर पहुँची, तो जैसे मैं ठिठक रह गईं - कहीं अपने भीतर। मुझे याद है उनके बँगले के बाहर छोटी-सी पानी की हौदी में कुमुदनी खिली थीं। भीतर भी बंगला कलात्मक था। मेरे आने से कुछ देर पहले ही वे पढ़ाकर पुस्तकें हाथ में लिए लौटी थीं। घर पर काम करने वाला एक दक्ष सेवक या सेविका थी - दो बड़ी हो रही लड़कियाँ। ठिठकर मैं खड़ी रही क्षण-भर। ऐसा होना चाहिए एक महिला को - इतना उद्विकासित (evolved) और सफल। मेरे लिए मधुर मालती जैसा हो पाना एक बड़ा दिवास्वप्न ही तो था। यह इच्छा या आकांक्षा मात्र एक ऐसी आकाशबेल, जिसे मैं तो क्या ही छू सकती - मैं जो मात्र बी.ए. पास थी, मात्र गृहिणी थी, तीन छोटे-छोटे बच्चों की गिरफ्त में एक ऐसी नारी जो कहीं से भी स्वावलंबी हो ही नहीं सकती थी - इंद्रप्रस्त कॉलेज में लेक्चरर हो पाना तो असंभव था मेरे लिए इस जीवन में। किंतु मुझे याद है साफ-साफ कि उस क्षण मैंने इच्छा की थी काश ऐसा होता...
जोने क्या था उस इच्छा से भरे उस पल में कि उसके ठीक सात वर्ष बाद मैं उसी कॉलेज में लेक्चरर नियुक्त हुई - हिंदी की नहीं अंग्रेजी की - और चाहती तो कभी-न-कभी, मधुर मालती वाला आवास भी मुझे मिल जाता, कॉलेज कैंपस में। क्योंकि वे अपने प्राचार्य पति को कॉलेज में मिले निवास पर रहने चली गई थीं।
आज न रति इंद्रप्रस्थ कॉलेज में पढ़ा रही हैं, न मधुर मालती - पर मधुर मालती के ही कॉलेज में रति बार्थलोमियो का विषय, अंग्रेजी, पढ़ाकार भी मुझे कभी नहीं लगा कि मैं उन दोनों के बराबर हो गई। वे सदा मेरी स्मृति में दो बड़े वृक्षों-सी हैं - रति देवदार-सी सीधी लंबी नुकीली, और मधुर मालती कदंब-सी, जिसमें हर बरखा से पहले जाने कितने सुनहरी झुमके झूलने लगते हैं - कुछ रास के, कुछ विलास के।
मैं नहीं जानती कि ये दो महिलाएँ एक-दूसरे की मित्र थीं भी कि नहीं किंतु मैं जानती हूँ - जानने से भी अधिक जीती हूँ, उन दोनों को रति को अपने अंग्रेजी के पठन-पाठन, चाल-ढाल में, दो टूक बोलने और खुरदरेपन में मधुर मालती को अपने हिंदी के आत्मसात में, साहित्य के इस लगातार चलते आ रहे सृजन में, अपने भीतर के रस में, राग में।
इंद्रप्रस्त कॉलेज में मेरा नियुक्ति पत्र मेरे हाथ में देते हुए प्रिंसिपल, मिस राम, ने कहा था, 'तुम हमारी पहली छात्रा हो जिसने अमरीका से अंग्रेजी में पी-एच.डी किया है। तुम्हें हमारे ही कॉलेज में पढ़ाना होगा।' किंतु तब तक रति अवकाश ले चुकी थीं। मैं उनके पास जा कर यह न कह सकी कि 'उस दिन मेरा ललाट जिसने पढ़ लिया था, वह दूर-दृष्टि आप ही की थी।'
और हिंदी में जब भी अपनी नई छपी पुस्तक देखती हूँ तथा अपने अकेलेपन में सोचती हूँ, 'ऐसा कौन है, जिसे यह दूँ और देने पर वह प्रसन्न हो?' तो मधुर मालती याद हो आती हैं।
उन्हें अवश्य अच्छा लगता, गर्व भी होता अपनी इस मानस-शिष्य पर। शायद इसलिए भी कि मैंने जब-जब संभव हआ, अपने घर से लेकर अपने फार्म हाउस तक में हौदी ही नहीं, छोटे-छोटे कई जलकुंड बनाए, जिनमें अपने हाथों से कुमुदनियाँ रोपीं और उन्हीं खिलते देखती रही हूँ साल दर साल। आज तक।
रति और मधुर मालती जहाँ भी हैं, मुझमें हैं, मुझसे दूर नहीं।