hindisamay head


अ+ अ-

आत्मकथा

शब्दकाया

सुनीता जैन


1965 की ग्रीष्म ऋतु। हम अपने तीनों बच्चों के साथ अमरीका आ गए। सबसे छोटा बेटा, शशि कुल सात-आठ महीने का था। अमरीका यह मेरा दूसरी बार आना हुआ था। पहली दफे विवाह के तुरंत बाद 1959 में। तब से लगभग सात वर्ष बीत गए थे।



न्यूयार्क के स्टोनी ब्रुक शहर में जिस यूनिवर्सिटी में मेरे पति पढ़ाने आए थे, आरंभ के एक-आध महीने हम उसी के गेस्ट हाउस... अस्थायी (Trans accommodation) आवास में रहे। यहाँ से खरीदारी के लिए एक 'ग्रोसरी स्टोर' पास में ही था। दोपहर में बच्चों को लेकर मैं वहाँ से फल-सब्जी इत्यादि लेने जाती। उन दिनों अभी हमारे पास गाड़ी नहीं थी। यहीं दुकान में या आते-जाते मेरी पहचान कई भारतीय महिलाओं से हुई, जो मेरी तरह गृहिणियाँ थीं। लगभग सभी कुछ-न-कुछ कर रही थीं। कोई दुकान पर सेल्स गर्ल, कोई किसी फैक्टरी में।

एक दिन साहस जुटा मैंने पति से कह दिया, 'मैं कुछ करना चाहती हूँ।'

वे अपने स्वभावानुसार कठोरता से बोले, 'क्या?'

'कुछ भी। जैसे मिसेज बनर्जी, मिसेज शर्मा'

'वे तो छोटी-मोटी नौकरी करती हैं - डेलीवेज पर।'

'तो?'

'वह नहीं कर सकती तुम।'

'तो क्या कर सकती हूँ?'

'पढ़ा सकती हो किसी कॉलेज में। पर उसके लिए तो तुम अनपढ़ बराबर हो।' ऐसा कुछ कहा उन्होंने। कहीं गड़ गया भीतर तक।

सच मेरी वह बी.ए. जो अपने बाऊजी की मृत्यु के बाद, अपने परिवार से लगातार हाथापाई कर मैंने हासिल की थी, अनपढ़ जैसा ही होना तो थी। और वह भी कहाँ कोई करने दे रहा था। यदि माँ बीच में न होती, तो मेरा विवाह बाऊजी के जाते ही बी.ए. के पहले या दूसरे वर्ष कर देते सब। कितनी रोई-झींकी थी एम.ए. करने को। 'नहीं,' सबने कहा था, 'एम.ए. लड़की के लिए पी-एच.डी लड़का कहाँ मिलेगा।'



पी-एच.डी. लड़का तो मिला। पर मैं अनपढ़ ही रह गई थी उसके अनुसार।

खैर! एक-डेढ़ महीने बाद जब हमें ढंग का घर किराए पर मिल गया, तो यह जाहिर था कि बिना मोटरगाड़ी के चलेगा नहीं। घर ऐसी जगह था जहाँ आसपास कोई दुकान नहीं। तिस पर कोई-न-कोई बच्चा कभी-न-कभी डॉक्टर के जाता ही रहता चेकअप को। सो तय हुआ कि गाड़ी चलाना मैं सीखूँगी। उन दिनों ये कुछ अधिक व्यस्त थे और मुझमें 'हौसलों' कुछ ज्यादा ही था। गाड़ी चलाने की ट्रेनिंग ले 10-15 दिन में जब लाइसेंस बन गया, तो अच्छे भारतीयों की तरह हमने जितने पैसे थे उतने में एक अच्छी हालत में पुरानी शेवरलेट गाड़ी ली। (इन्हें डर भी था कि नई-नई ड्राइवर है। कहीं मार-वार देगी टक्कर।)

गाड़ी चलाना ज्यों ही आरंभ किया, पैरों की बेड़ी इतने वर्षों में पहली दफे खुली-सी लगी। और एक दिन जब मन किसी बात को लेकर बहुत ही तिक्त था, मैंने पास के घर में रह रही एक महिला से अनुनय की कि वे दो घंटे के लिए मरे दोनों बेटों को देख ले। (बेटी अनु, केजी कक्षा में सुबह स्कूल जाती थी।)



बच्चों को उस महिला को थमा, मैं यूनिवर्सिटी का पता पूछते-पूछते अंग्रेजी विभाग में पहुँच गई। मैंने तब तक अनुमान लगा लिया था कि अपनी दिल्ली की बी.ए. पास कोर्स में केवल अंग्रेजी ही एक ऐसा विषय था, जिसमें शायद मुझे एम.ए. करने की अनुमति मिल जाए।

अंग्रेजी विभाग के डीन से कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद भेंट हुई। उन्हें बताया मैं क्यों वहाँ आई हूँ।

वे बोले, 'किंतु हमारे यहाँ एम.ए. सबसे बड़ी डिग्री है अभी तक। हम इसे प्रोफेशनल डिग्री मानते हैं। और आप कह रही हैं कि आप सात, साल से गृहिणी हैं, तीन बच्चे हैं, तीनों पाँच वर्ष से छोटे; आप कैसे कर पाएँगी?'

'क्यों नहीं कर पाऊँगी? के मेरे हठ को देख उन्होंने पैंतरा बदला, 'हमारे यहाँ आपके देश से अभी तक कोई विद्यार्थी अंग्रेजी में पढ़ने नहीं आया। साइंस में तो हैं। मेरे लिए आपकी बी.ए. को हमारी बी.ए. से आँकना बहुत कठिन है। यदि आप न चल पाई तो...'

'तो आपको मुझे निकालना न होगा, मैं स्वयं छोड़ दूँगी।' और तब मेरे मुँह से वह निकला जो केवल तब निकलता है, जब मेरी सरस्वती मेरी जिहृा पर आविष्ट होती हैं -

'डॉ. लडविग, मुझे दाखिला देकर आप तो केवल अपने डिपार्टमेंट की साख दाँव पर लगाएँगे, मैं तो अपना जीवन लगा रहीं हूँ...'

वे चुप बैठे रहे। फिर बोले, 'आप पढ़ने को इतनी लालायित क्यों हैं?'

'क्योंकि जब कोई हेमिंग्वेप, सॉल बेलो या शेक्सपियर कहता है तो मेरे मस्तिष्क में कोई खिड़की नहीं खुलती, मैं चाहती हूँ कि इन खिड़कियों में तस्वीरें हों, जो इन नामों के लेने से मुझे दिखाई दें...'

तब मैं उठकर चली तो आई पर चलते समय प्रोफेसर जैक लडविग ने मेरा हाथ अतिरिक्त दबाव में अपने हाथ में लिया।



अगले दिन मुझे एम.ए. में प्रवेश फीस भर देने का संदेशा मिला।

शाम को पति घर लौटे तो मैंने बताया, मैंने एम.ए. में प्रवेश ले लिया है। वे हकबकाए। कई समस्याएँ थी उनके सामने -

'बच्चों का क्या होगा? मालूम है, यहाँ बेबी सिस्टर कितने महँगे हैं।'

'मैं शाम की ही क्लासें ले लूँगी।'

'और इतनी फीस? फेल हो गई तो डूबेगा सारा पैसा।'

'नहीं डूबेगा।'



वह एम.ए. मैंने डेढ़ वर्ष में समाप्त की। अपने साथ पढ़ रहे सभी लड़के-लड़कियों से जल्दी। और कितने आतंक में! घर का सारा काम कर छोटे बच्चे को गोद में लेकर एक हाथ से दूध की बोतल थाम दूसरे से पुस्तक थामना। फिर शाम का खाना बनाकर मेज पर रख पति के घर आते ही क्लास में जाना। सर्दी के दिनों में बर्फ गिरी तो गाड़ी उसी में कई बार फँस गई रात को। किंतु मेरे प्रभु की ही माया थी शायद कि किसी-न-किसी ने सहायता कर गाड़ी ठेल दी आज का अमरीका होता तो रात में अकेली महिला का जीवित बचना भी शायद कठिन होता।

और कठिन होता एम.ए. करना - कर पाना, यदि एल्फ्रेकड केजिन जैसे शिक्षक मुझे न मिले होते। प्रो. केजिन का कितना मान है, वे कितने बड़े आलोचक हैं, यह सब मुझे नहीं ज्ञात था। ज्ञात था तो बस यह कि जब वे पढ़ाते थे, तो कमरे में एकदम (या मेरे मस्तिष्क में) प्रकाश होता था। यह किसी और कक्षा में नहीं होता था। जब मैंने उनके हर कोर्स में अपना नाम भरना शुरू किया तो वे मुझे बुलाकर एक दिन बोले, 'मिसेज जैन, आपको औरों के भी कोर्स लेने चाहिए...'

'किंतु सर, आपका ही अच्छा लगता है...'

'अच्छा लगता है इसलिए उसे 'आडिट' कर लो। एम.ए. में अलग-अलग तरह कोर्स लेने से ही जमीन तैयार होती है...'



औरों के कोर्स केवल अंकों के लिए लेती रही। प्रोफेसर केजिन का कोर्स साहित्य के लिए। जब एम.ए. समाप्त हुआ तो, उस यूनिवर्सिटी, सन्नीर, स्टोनी ब्रुक में अभी पी-एच.डी. का प्रावधान नहीं था अंग्रेजी में। विदा के दिन प्रोफेसर केजिन से अंतिम भेंट करने गई। उस दिन हल्की-हल्की बर्फ गिरी रही थी। चलने लगी तो बोले, 'चलो तुम्हारी कार तक पहुँचा दूँ।'

'नहीं सर, बर्फ गिर रही है। चली जाऊँगी।'

तब तक उन्होंने चार-पाँच मोटी-मोटी पुस्तकें उठा लीं। बोले, 'प्रकाशक मुझे कुछ-न-कुछ भेजते रहते हैं। ये तुम्हारे लिए हैं।'

प्रोफेसर केजिन उस समय पैंसठ वर्ष के अवश्य रहे होंगे। गाड़ी तक गए, पुस्तकें गाड़ी में रखी। और क्या कहूँ 'क्या कहूँ' दीन-सी मुझे विदा दी।

घर आकर देखा, वे सारी पुस्तकें बड़े-बड़े शब्दकोश थे, जिन्हें जुटा पाना मेरे लिए संभव न होता और जिनकी मेरी गुरु ने समझ लिया था, मुझे बहुत आवश्यकता है - आगे भी रहने को थी।



जीवन में केजिन पहले नहीं थे, जिनसे इतना भरपूर मान मिला। जो भी मुझे उन-सा कद्दावर मिला, अति उदार मिला। सदाशयता और कल्याण कामना से ओत-प्रोत मिला। जो लघुमानव मिला, वह उतना ही अनुदार, ईर्ष्या और लोलुपता में जड़ मिला।

इस पढ़ाई के दौरान कुछ-न-कुछ ऐसा होता रहा, जो आज भी हैरत में डालता है - मसलन वहीं पास के एक कमरे में बैठकर फिलिप राथ का अपना प्रसिद्ध उपन्यास डैंगलिंग मैन लिखना। साल बेलो की तभी-तभी तलाकशुदा पत्नी का मेरी क्लास में आकर बैठना और यह खुसफुस कि वह प्रोफेसर लडविग की प्रेयसी थी। और दोनों साल बेलो के उपन्यास हरजोग में पात्र भी थे। और एक दोपहर - ब्लैक उपन्यासकार, राल्फी एलीसन को सुन मेरा इतना द्रवित और व्यग्र हो जाना कि अपनी एम.ए. की थीसिस के लिए मैंने जो विषय चुना वह 'अमरीका का ब्लैक साहित्य' था।

किंतु इन सबसे भी अधिक अभिभूत करने वाली बात वह थी, जो मेरे एम.ए. कर लेने के बाद विभाग की सेक्रेटरी ने मुझे बताई। बोलीं, 'अब इस बात की गोपनीयता - 'कॉन्फिडेंशियेल्टी' आवश्यक नहीं रही है, इसी से बता रही हूँ। जिस दिन तुम हमारे डीन, प्रोफेसर लडविग से मिलने आई थीं अपने दाखिले के लिए, उस दिन तुम्हारे जाते ही उन्होंने बोर्ड की मीटिंग बुलवाई और उसमें कहा, 'मैं इस कैंडीडेट को प्रवेश देना चाहता हूँ, क्योंकि मैंने आज तक ऐसा विद्यार्थी नहीं देखा, जो मात्र पढ़ने के लिए इतना आतुर और दृढ़ संकल्प हो।' प्रोफेसर लडविग की सिफारिश पर ही बोर्ड ने तुम्हें 'प्रोविजनल' एडमिशन दिया था कि यदि तुम दो सेमेस्टर में अच्छे अंक न प्राप्त कर सकी, तो तुम्हारा प्रवेश रद्द किया जा सकेगा।'



आज प्रोफेसर लडविग भी नहीं हैं, प्रोफेसर केजिन भी नहीं हैं, किंतु उन दोनों की दी पुस्तकें मेरे पास हैं और एक 'सिफारिस पत्र' (रिकमंडेशन लेटर जिसमें ट्रैडिशन ऑफ लर्निंग। Ms Jain wanted to learn in the best tradition of & learning.)



एम.ए. समाप्त हुई। और छह महीने बीत गए। बेटा भी अब स्कूल जाने लगा। घर पर मैं और सबसे छोटा बेटा रह जाते। यह घर नया था, हमने बनवाया था। उसी के बगीचे में काम करते कुछ समय कटता, कुछ कविता करने में। अंग्रेजी में मेरी अटपटी कविताएँ छपने लगी थीं। संख्या में ये कॉफी थीं और बाद में मैंने इन्हें नष्ट भी कर दिया। भारत से चलने से पहले डॉ. प्रभाकर माचवे ने कुछ पते स्वयं ही मुझे दिए थे कि यहाँ कुछ छपने भेजना। अपनी कहानी 'बिरथा जन्म हमारों' का अंग्रेजी रूपांतर 'ए वूमन इज डैड' (A woman is Dead) एरीजोना क्वाबटरली में भेजी और वह छप भी गई। छपने भेजने से पहले जैक लडविग को दिखाई थी और उन्होंने ही उसका नामांकरण किया था। उन्हीं के प्रोत्साहन से मैंने अपने पहले उपन्यास बोज्यू का भी अनुवाद किया और उसका नाम उन्होंने ही ए गर्ल ऑफ हर एज रखा। यह सब तो चल रहा था पर मेरा 'अनपढ़' होना वैसा का वैसा था। एम.ए. की उपाधि ने मेरी नजर में उसे कुछ बढ़ाया ही था, घटाया नहीं। और मैं भीतर तक उदास थी, जैसे बस किसी यात्री को अनजाने पड़ाव पर छोड़ दे और उसे समझ न आए कि अब क्या करे। हाँ इतना समझ तो आ गया था कि कोई भी सड़क जीवन की, वापिस नहीं जाती - जा सकती। नहीं तो मैं दोबारा एम.ए. करने चली जाती।

सन्नी यूनिवर्सिटी इस बीच तेजी से बड़े-बड़े नामों में गिनी जाने लगी कि उसके विस्तार के साथ स्टोनी ब्रुक का वह छोटा-सा सोया-सोया शहर एकदम जाग उठा और नए-नए घर बनने लगे। ऐसा ही नया घर मेरे पास था और हमारे घर के चारों और बने नए घरों में से एक में एक आइस्नस्टाईन नाम का परिवार था। क्योंकि मेरा घर सबसे पहले पड़ता था उसे पार कर ही बाकी के घरों की सड़क जीती थी, मिसेज आइस्नस्टाईन एक दिन हमारे यहाँ रुकी और बोली, 'मेरा एक ही बेटा है आपके बेटे जितना; क्या ये दोनों संग खेल सकते हैं...'

सो उनका आना-जाना होने लगा। बच्चें खेलते और हम यदा-कदा चाय पीतीं - मैं और डोरिस। वह अंग्रेजी की छात्रा रही थी, किंतु पढ़ाई छोड़ उसे नौकरी करनी पड़ी, ताकि उसका पति आगे उच्च शिक्षा पूरी कर सके। 'हमारे यहाँ अक्सर ऐसा होता है। लड़के आगे पढ़ते हैं महँगी पढ़ाई, और पत्नी नौकरी कर घर चलाती है। इसीलिए हमारा पहला बच्चा भी देर से हुआ - जब मेरे पति की पढ़ाई पूरी हो गई। उसको नौकरी मिलने पर ही मैंने नौकरी छोड़ी और हमारा बेटा हुआ।'

डोरिस आइस्नस्टाईन बहुत ही सरल महिला थी। मेरी वय की या कुछ मुझसे बड़ी। एक दिन दोपहर में वह अचानक आ गई। मैं उस दिन हताशा के किसी कूप में इतने गहरी धँसी थी कि वह पूछ बैठी, 'इतनी उदास क्यों हो तुम? तुम्हारे पास इतनी बड़ी डिग्री है, तुम लेखक हो...'

'क्या लाभ है इस डिग्री का, डेरिस।'

'क्यों? वह बोली, 'इसकी तो बहुत कीमत है।'

'मेरे लिए? बताओ, एक हिंदुस्तानी महिला को यानी एक विदेशी महिला को जिसकी मातृभाषा अंग्रेजी नहीं, कौन अमरीकी अंग्रेजी पढ़ाने की नौकरी देगा?

'यह तुम्हारा वहम है। सुनों, मैंने कल ही कहीं विज्ञापन देखा था। किसी कॉलेज को लेक्चरर की आवश्यकता है। तुम पत्र तो लिखों...'

'नहीं, कोई नतीजा नहीं निकलेगा।'

डोरिस नहीं मानी। जिद कर मेरे सर्टिफिकेट की कॉपी इत्यादि ले गई मुझसे। वह पत्र उसने उसी दोपहर डाक में छोड़ा। अगले दिन सुबह दस बजे (कुल 20 घंटे बाद) फोन बजा। अड़लफाई सफोल्क कॉलेज के डीन का फोन था कि आपकी एप्लिकेशन मिली है, आप आकर मुझसे मिलें। मैं कुछ देर तो खड़ी ही रह गई। डोरिस घर पर नहीं थी। सामने के घर में अपनी एक अन्य मित्र के पास मैंने बच्चों को सँभालने का काम दे (ये कभी-कभी मेरे लिए बेबी सिटिंग कर लेती थीं) गाड़ी उस कॉलेज के रास्ते डाल दी। मन ने कहा, क्यों जा रही हो। साड़ी में तुम्हें देखते ही बात समाप्त हो जाएगी। तिस पर मुझे पता न था कि कॉलेज मेरे घर से 40 मील दूर था। पर नियति जब आगे दौड़ती है तो, व्यक्ति मात्र अनुसरण करता है। पानी के किनारे बना बेहद खूबसूरत कॉलेज था। डीन मिले। मैंने बताया कि मुझे पढ़ाने का कोई भी तजुर्बा नहीं। उन्होंने कहा, 'पढ़ाने से हो जाएगा।' मेरे सारे कागज देखने के बाद उन्होंने बड़े ही निर्णायक स्वर में कहा, 'मिसेज जैन, मैं आपकी 'रेज्यूमी' से बहुत प्रभावित हूँ। आपने न केवल अंग्रेजी में एम.ए. किया हमारे देश में, आप अंग्रेजी में लिख और छप भी रही हैं। हमारा कॉलेज एक प्राइवेट कॉलेज है। इसमें भर्ती होने के लिए छात्रों को बहुत पैसा देना होता है। पर सभी छात्र अच्छे अंक लाने वाले नहीं है। मैं चाहता हूँ, आप यहाँ पढ़ाएँ। इन छात्रों को इस बात से बहुत प्रेरणा मिलेगी कि उनकी भाषा पर किसी अन्य भाषाभाषी का इतना अधिकार हो सकता है।'

ऐसा तर्क! इतना गंभीर और दूर तक देखने वाला। कहने को फिर कुछ रहा नहीं। घर लौटते समय मुझे यकीन नहीं हो रहा था 'कि केवल वह एक काम, जिसे करने की छूट मेरे पति ने मुझे दी थी उसके योग्य मैं हो गई थी और वह काम मुझे अब करना था...

अपने इस सारे रोमांच के बाद भी उस रात मैंने अपने को बहुत अधीर और विचलित पाया। बार-बार भयभीत मेरा मन मुझसे पूछ रहा था, यह ठीक है तुम्हें नौकरी चाहिए, किंतु उन छात्रों का तो सोचो - यदि तुम न पढ़ा पाई तो उनकी कितनी हानि होगी। उनके साथ कैसा अन्याय होगा। फिर तुम्हें नौकरी अनिवार्य तो नहीं?

तब मैंने संकल्प किया कि इस बार 'प्रोविजनल' नियुक्ति मैं स्वयं को दूँगी, भले ही कॉलेज ने मुझे पूरे सेमेस्टर का कांट्रैक्ट दे दिया था, मैं केवल तीन दिन पढ़ाऊँगी - यदि पढ़ा पाई तो आगे पढ़ाऊँगी, नहीं तो त्यागपत्र दे, घर लौट आऊँगी। अपने, या अन्य किसी के प्रति, पैसे या महत्वाकांक्षा के कारण, बेईमानी नहीं करूँगी...।

यह मेरा 'मुझसे' पहला अद्भुत साक्षात्कार था। एक ऐसी सुनीता मेरे सामने थी, जिसका भीतरी आत्मबल अभी तक घर की चारदीवारी में ही नपा हो तो ना हो। व्यक्तिगत स्तर पर निज अर्जित आत्मबल से इस सबला का मेरा भरपूर आमना-सामना था।

वह और बात कि तीन दिन में पहले दिन ही लाख गला बार-बार सूखने के बाद भी जब मैं शेक्सतपियर के किसी नाटक पर अपनी कक्षा पढ़ाकर बाहर आई तो मुझे - नहीं मुझसे, मेरा अंतर्मन यह बता रहा था कि इसी नियति को पूरा करने को तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम जन्मजात शिक्षक हो, पढ़ना तुम्हारे लिए कला है, जिसे सीखने की कोई अवधि नहीं।

यह अद्भुत ही है कि जिस सड़क पर मैं अपनी अस्मिता की छोटी-सी पोटली लिए कभी हताश बैठी थी, वह सड़क तीस से अधिक वर्ष लंबी निकली। और इसी वर्ष वह मेरे चाहने से समाप्त हुई है कि मुझे अब सृजन के लिए जीना है शेष जीवन।



इन तीस वर्षों में मैं अपने पति के प्रति बार-बार अनुगृहीत हुई हूँ, जिन्होंने मुझे मेरी नियति की ओर प्रेरित किया। कॉलेज की नौकरी के मोह से भी उन्होंने ही एक वर्ष बाद मुझे छुड़ाया था यह कहकर, 'अपनी शिक्षा पूरी करो। एम.ए. के बाद भी एक उपाधि है। उसके बिना तुम पर पैर रख लोग आगे निकलते रहेंगे। जो करना है, सदा उच्चतम करना चाहिए। पैसा बड़ा नहीं होता...'

और कुछ उनका डर, कुछ पी-एच.डी. में असफलता से डरी, मैं अगले वर्ष फिर से छात्रा हो गई। इस बार एक नई यूनिवर्सिटी, जहाँ हम थे - नेब्रास्का, और जहाँ पी-एच.डी. की उपाधि का प्रावधान था।



तो भी मैं अक्सर छात्राओं से कहती सुनी जाती हूँ कि पिता की छत्रछाया में जितना पढ़ सकती हो पढ़ लो - यह पढ़ना और बात है, पति की सत्ता तले पढ़ पाना और बात।


>>पीछे>> >>आगे>>