hindisamay head


अ+ अ-

आत्मकथा

शब्दकाया

सुनीता जैन


डॉ. कमला रत्नम को यों तो मैंने सातवें दशक में देखा था - वे किसी पुस्तक के विमोचन में आई थीं और अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण दूर से ही पहचानी जाती थीं, किंतु उन्हें ठीक से - निकट से जानना तभी हुआ, जब डॉ. परेल रत्नम रूस के राजदूत पद से निवृत्त हो भारत लौट आए और अपने स्थायी निवास-स्थान तिकोनिया पार्क, हौजखास के पास रहने लगे। यह घर मेरे घर के बहुत निकट था और जब कुछेक वर्ष बाद डॉ. परेल रत्नम नहीं रहे, तो कमल जी बहुत उदास और अकेली हो गईं। वे दोनों सच ही एक भव्य दंपति थे, दोनों छह फुट से ऊँचे। कई-कई भाषाओं और कलाओं में पारंगत - भारत के सही राजदूत कहीं भी।

कमल जी कभी-कभी फोन कर अपने घर बुलवा लेतीं मुझे और अन्य लेखिकाओं को भी। उनके घर जाना अच्छा लगता और उनसे डर भी लगता, जैसे किसी शिक्षा संस्थान के प्राचार्य से। उन्हें भी हमारा यों अभिभूत होना अच्छा लगता। वे तरह-तरह के किस्से और अद्भुत बातें बतातीं रहतीं अपनी विदेशी-यात्राओं की। उनके घर की दीवारें उनके लिए कीमती गलीचों और कलाकृतियों एवं अन्य साज-सामान से सजे रहते। सबसे अद्भुत उनका निजी पुस्तकालय था। किसी के पास इतनी पुस्तकों की विपुलता हो सकती है, यह मेरे लिए स्वप्नातीत बात थी। वे कभी-कभी दुखी होतीं। उनका बेटा, भारत, और बेटी - दोनों देश के बाहर थे। वे खिन्न होतीं कि अब इस शुद्ध भारतीय घर का क्या होगा, जब कि बच्चों को विदेश का मोह है। कभी-कभी वे कहतीं, 'यदि भारत यहाँ नहीं रहेगा, तो पेरल जी के बनाए इस घर को मैं चिन्मय मिशन के नाम कर जाऊँगी।'

उनके घर किसी शाम हम थे। बातचीत के सिलसिले में उन्होंने मुझे दो बार किसी शब्द को लेकर मेरे उच्चारण के कारण टोका। उच्चारण तो शुद्ध हो गया, किंतु मेरी अपने पर झेंप बनी रही। कोई बहाना काम न आया कि यह सब अमरीका के लंबे प्रवास के कारण हुआ। वहाँ धुआँधार हिंदी बोलने को तो मिलती नहीं थी - साहित्यिक भाषा तो छोड़ ही दें। तिस पर जो जैसी बंगाली, गुजराती, पंजाबी या गुलाबी हिंदी बोलता था, उसका कुछ-न-कुछ असर स्वयंमेव मुझ पर भी होता। घर आकर मैं कुछ देर सोचती रही कि क्या करना होगा। हिंदी तो दोबारा सीखी नहीं जा सकती। पर कुछ 'सीखने' को मेरा मन था - अवकाश भी। बेटी एक वर्ष पहले और बेटा उसी वर्ष अमरीका चले गए थे, उनके साथ-साथ मेरे पति भी। मैं अकेली थी छोटे बेटे के साथ, जो अब 17 वर्ष का था। उसे भी तो मेरी आवश्यकता नहीं थी, जैसे छोटे बच्चों को होती है।



मैंने अगले दिन सुबह कमला जी को फोन किया, 'कमला जी, मैं संस्कृत सीखना चाहती हूँ।'

वे बहुत प्रसन्न हुईं। मैंने कहा, कौन 'सिखाएगा?'

उन्होंने कहा, 'तुम्हारा निश्चय यदि दृढ़ है तो सिखाने वाला मैं ढूँढ़ दूँगी।'

इसी बीच मुझे एन.सी.ई.आर.टी. के माध्यम से किसी ऐसे व्यक्ति का पता लगा, जो संस्कृत सिखा सकते थे। उन्होंने कहा कि उनके घर मुझे जाना होगा। मैं शाम चार बजे उनकी बताई पुस्तकें लेकर पहुँचती। वे बातों में उलझाए रखते। तीसरे दिन पढ़ाने के बहाने उन्होंने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख दिया। मेरी संस्कृत शिक्षा की यहीं इति हो गई।



यह भी लगा कि कमला जी भी भूल गईं। धीरे-धीरे मैं भी भूल ही जाती, किंतु एक दिन मेरे द्वार पर एक तीस वर्षीय युवक खड़ा था, जो पतला-दुबला होने के कारण बालक-सा अधिक था। अपनी सीमित हिंदी में उसने पूछा, 'आप संस्कृत पढ़ना चाहती हैं?'

'जी।'

'मुझे कमला रत्नेम ने भेजा है तुम्हारे पास।'

मैंने भीतर बैठाया। अपने से कहीं बड़ी शिष्या और उसके घर को देख उपजे आतंक को मेरा यह नन्हा गुरु बार-बार मुझे डपटकर शांत कर रहा था।

'संस्कृत सीखना बड़ी तपस्या है।'

'जी, जानती हूँ।'

'प्रतिदिन ठीक से पढ़ना होगा।'

'आप पढ़ाएँगे तो पढ़ूँगी....'

'ठीक है। घर में रामायण है? वाल्मीकि कृत।'

'जी नहीं।'

'हितोपदेश है?'

'नहीं।'

'ठीक है। मैं लाऊँगी।'

पढ़ाने का समय तय हो गया। चलने से पहले बोले, 'कितनी ट्यूशन दे सकती हैं?'

'आप बताइए।'

'पढ़ना तुम्हें है तुम बताओ....'

मैंने बताया।

वे क्षण-भर को चमत्कृत-से हुए। बोले, 'ठीक है। कल आऊँगा। स्नान इत्यादि करके रखना। धरती पर बैठकर पढ़ना होगा।'

यह अद्भुत भेंट थी - एक ऐसा अनुभव, जो अप्रत्याशित तो था ही, आह्लादकारी भी था। टूटी चप्पल, घिसी पैंट के पीछे कई पेबंद किंतु लगभग लाल आँखों में कैसी ज्वाला - कितनी आत्मविश्वास और कितना भय जैसा, हम दिल्ली वालों से। मेरे बालक-गुरु, लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में पी-एच.डी. के अंतिम वर्ष में थे। अपना शोध-ग्रंथ लिख रहे थे। जाहिर था, उन्हें पैसे की जरूरत थी।



अगले दिन सुबह जब वे आए तो पढ़ने का स्थान तैयार था। एक चौकी पर मेरी कॉपी-पेंसिल थी। दो आसन बिछे थे। उनके बैठ जाने पर मैंने उनके पैर छूए और कहा, 'गुरु जी, मैं काफी मंदबुद्धि हूँ। हो सकता है जल्दी-जल्दी सीख न पाऊँ।'

बोले, 'कोई बात नहीं। बैठों, मैं पढ़ाऊँगा।'

कई स्तुतियाँ उन्होंने गाईं। वाग्देवी की, गणेश जी की व अन्य। बोले 'सब सीखना होगा। प्रतिदिन सुनूँगा एक।' बहुत मधुर कंठ था उनका और मैंने कॉलेज के जमाने के बाद कभी फिल्मी गीत भी नहीं गाए थे। उन्होंने फिर कुछ श्लोक पढ़े, बोले, 'मेरे साथ-साथ बोलो...' मेरी गलती पर हुंकार-सी भर वे फिर सिखाते और अंत में रामायण का पाठ आरंभ हुआ...



एक-आध घंटा पढ़ लेने के बाद मुझे लगा, वे कुछ विचलित से हैं। ध्यान से देखा तो लगा जैसे मूर्च्छना-सी आ रही है। तीन बच्चों की माँ हूँ, एकाएक लगा, 'अरे इन्होंनें तो कुछ खाया ही नहीं लगता।'

किसी बहाने उठी। उठकर रसोईघर गई। एक गिलास दूध लाई। वे चौंके।

'क्यों? जरूरत नहीं।'

'ले लीजिए। मेरे बेटे का नाम भी रवि है (गुरु जी का नाम भानुमूर्ति) वह भी विदेश में है। मैं समझूँगी, मेरे रवि ने पिया।'

उन्होंने दूध और नाश्ता स्वीकार किया। मेरी आँख भर आई।



बहुत महीनों बाद वे जब कुछ स्वस्थ हो चले और मुझसे ममता करने लगे तो बोले, 'जानती हो तुम्हें जब पहली दफे देखा, तो मुझे लगा यह क्या संस्कृत पढ़ेगी! दो-एक दिन में छोड़ देगी। उस दिन मैं पढ़ाने को विशेष उत्सुक न था, किंतु तुम्हारी विनय रज्जु ने मुझे बांध लिया। ऐसी श्रद्धा अब कहाँ है। गुरु का ऐसा मान इस शहर में दुर्लभ है।'

जब महीना समाप्त होने पर 'ट्यूशन' उनके पैरों पर रखी तो वे हँसे।

'जानती हैं, जितना तुमने कहा मैं तो उससे आधे पर पढ़ाने आया था। अब तो तो तुमसे कुछ भी लेने की इच्छा नहीं होती। मैं वैसे ही पढ़ाऊँगा... पर एक गुरु-दक्षिणा देनी होगी...'

'जी, गुरु जी।'

'जब सीख जाओ तो प्रतिदिन रामायण का पारायण करना होगा।' मैं दुविधा में चुप रही। महिलाएँ निवृत होने से पहले 'प्रतिदिन' का संकल्प नहीं ले सकतीं, यह मेरा संस्कारी व्यवहार जानता था। जाने कैसे उन्हें मेरी दुविधा का भान हुआ। बोले, 'अच्छा, जिस दिन न पढ़ सको उस दिन दर्शन अवश्य कर लेना। कुछ तो ऐसे भाग्यहीन हैं, जिन्हें रामायण के दर्शन तक नहीं होते...'



व्यक्ति का 'होना' बहुत कुछ उसकी भाषा-क्षमता में निहित हाता है। किंतु भाषा को भाषा की तरह सीखने वाला व्यक्ति मात्र 'दक्ष' होता है (skillful) भाषा को प्रेम करने वाला व्यक्ति दक्ष न भी हो तो भाषा का संपूर्ण संस्कार आत्मसात करता है।

अब तक के मेरे भाषा-प्रेम ने मुझे बहुत दिया था। अंग्रेजी से मैंने श्रमशील, एकनिष्ठ, जिम्मेदार गत्यात्मक और पारदर्शी होना पाया था। हिंदी ने मुझे रसमय, विनयशील और जीवन के प्रति कौतुक से ओत-प्रोत किया था। अब एक ऐसा भाषा-संसार मेरे सामने था, जिससे मैं चालीस जमा कुछ की अपनी तब की वय में पहली बार रू-ब-रू थी - एक ऐसा भाषा-संसार जो मुझे विस्मय, आनंद और एक दिव्य निरंतरता का बोध दे रहा था। रामायण से लेकर कालिदास तक, वाग्देवी वंदना से लेकर कंठस्थ किए कनकधारा स्तोत्र तक। और मैं वृक्षों की अडिगता से बाँसों का लचीलापन सीख रही थी।

मैं स्वीकार करती हूँ कि मेरा यह संस्कृत का आत्मसात था, संस्कृत का सीख पाना नहीं। सच ही वह मुझे बहुत कम आ पाई, नहीं के बराबर। यद्यपि मेरे नन्हें गुरु मुझे सिखाने को कटिबद्ध थे, कभी-कभी तो सुबह 6 बजे से ही मेरे घर के सामने के बगीचों में बैठ जाते और चक्कर लगाते रहते इस प्रतीक्षा में कि आठ बजे और मेरी शिक्षा प्रारंभ हो (यह उन्हीं ने मुझे बताया बाद में...)।

किंतु मुझे अपनी सीमा का ज्ञान था, अपनी सीमाएँ मुझे कभी लज्जित नहीं करती हैं। पहचान कर ही उनमें सहज जी लेती हूँ। फिर भी कान निरंतर संस्कृत सुन रहे थे, आँख पढ़ना सीख रही थी, कुछ पाठ पहचाने हो गए थे, मेरे लिए यह कम न था। और यह बोध भी कम नहीं कि यदि अंग्रेजी पढ़े-लिखे को हमारे देश में एक वर्ष भी संस्कृत पढ़ने को मिल जाए, तो उसके व्यक्तित्व और चरित्र की बहुत-सी दरारें स्वयमेव भर जाएँ। उसे वह भूमि हाथ लग जाए, जिसके बिना वह स्थिरता नहीं पाता, स्थिर हो नहीं सकता।



कमला जी अब जब मिलती कहती, कुछ सुनाओ। और मेरे पाठ से प्रसन्न दिखातीं। बीच-बीच में कहतीं, भानुमूर्ति से कहना इस शब्द का उच्चारण यह नहीं, यह है। मेरे गुरु जी आंध्रा के थे। सुनकर गुस्सा करते। इसलिए अक्सर मैं उन्हें कुछ न कहती।

शाम को या किसी पर्व पर सुबह, वे मुझे आर.के. पुरम के बालाजी मंदिर ले जाते। वहाँ सब स्तुति हम दोनों मिलकर गाते। मंदिर की अलौकिकता उनकी अंत:शक्ति और अदृश्य ऊर्जा-प्रवाह का बोध, मुझे पहली दफे हुआ। मेरे पिछले जन्मों की संचित कोई आस्था मुझे आच्छादित करती चली गई।



एक दिन गुरु जी ने गीत गोविंद की प्रति मेरे हाथ में रखी। बोले, 'यह मैं नहीं पढ़ाऊँगा। यह पढ़ने की चीज है, स्वयं पढ़ो।'

उन दिनों वे अपनी शिक्षा समाप्त करने मे व्यस्त थे। सर्दी के दिन थे। कॉलेज के लौट अपराहृ धूप में बैठे-बैठे मैंने गीत गोविंद पढ़ डाला, उससे एक वर्ष पूर्व कलकत्ता की एक मारवाड़ी मित्र, सरोज ने मुझे गीत गोविंद के हिंदी रूपांतर की संगीतबद्ध एक टेप सुनने को दी थी। वक कम अद्भुत नहीं थी। अब संस्कृत में उसका मूल और हिंदी में सुने उसके संगीत का सम्मिलित कुछ ऐसा ज्वार या ज्वर मुझमें उठा कि सारा ब्रह्मांड संगीतमय हो गया - मानो राधा मुझमें काया प्रवेश कर गई और पंद्रह दिन तक न खाने, न पीने की, न सोने की स्थिति में जो उन्मादजनित निरंतर रचना हुई, सौ से ऊपर गीत या कविता की, वह रंगरति, मेरी हिंदी को दी, दो या तीन बड़ी रचनाओं में से एक है - बड़ी सांसारिक अर्थों में नहीं, प्राण अर्थ में। वैसी रचना और वैसा रचना-ज्वर किसी भी रचनाशील व्यक्ति के लिए उसके रचनाकार होने की सार्थकता है - शायद बड़ी कसौटी भी। रंगरति को लिखने के किसी भी अर्थों में, मैंने नहीं लिखा, वह मुझसे बस 'लिखी' या लिखवाई गई।

मेरे बाबू जी, डॉ. विद्यानिवास मिश्र को पता था, मैं संस्कृत सीखने का यत्न कर रही हूँ। वे मुस्कराते - जैसे कि स्थिति का रस या आनंद लेते हुए उनको अक्सर मुस्कराते देख सकते हैं। रंगरति पढ़कर वे द्रवित हुए; उसकी भूमिका में उन्होंने जो लिखा, वह रंगरति से भी अधिक सारगर्भित और रसमय है।



इस बीच मुझे एक बड़े ऑपरेशन की आवश्यकता पड़ी, मेरे गुरुजी की पी-एच.डी. भी इसी वर्ष पूरी हो गई। उपाधि मिलने के समय जो पट्ट मिला वह उन्होंने मुझे ही दे दिया। किंतु वे प्रसन्न न थे। डरे हुए थे। अब तक विद्यापीठ के छात्रावास में रहने का सुभीता था। 500 रुपए छात्रवृत्ति भी मिलती थी। घर पर विधवा माँ थी। छोटे भाई थे 4-5। और संस्कृत वालों की नौकरी का कोई ठीक नहीं था। यद्यपि अपने बेटे रवि, का हवाला दे-देकर मैं उनकी सभी आर्थिक कठिनाई पहले से भाँप कर दूर कर रही थी, किंतु मेरा होना नौकरी की बराबरी तो नहीं कर सकता था।

उन्होंने अपना सामान छात्रावास से उठाकर कामाक्षी मंदिर के किसी कमरे में रख लिया था। मेरे अतिरिक्त ग्रीनपार्क में एक सात-आठ वर्ष के मेधावी बालक को पढ़ा रहे थे, जो किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ता था और यह बालक अब अपनी संस्कृत के कारण कितनी ही प्रतियोगिताएँ जीत रहा था। मुझे सुनकर अच्छा लगता। सोचती यदि मुझे तब ज्ञान होता, जब मेरे बच्चे छोटे थे, तो ऐसे ही घर पर अलग से संस्कृत सीखते।



गुरु जी लगातार आवेदन-पत्र भेज रहे थे। एक दिन बहुत ही दुख और रोष से बोले, 'मात्र तीन पोस्ट खाली है; और सूचना है कि साढ़े तीन सौ आवेदन-पत्र आ चुके हैं।' मेरे दी हुई कोई सांत्वना उन्हें शांत न कर सकी। वे राम जी के अनन्य भक्त थे। मैंने कहा, 'आप अपने राम पर तो भरोसा कीजिए, आप ही तो कहते थे कि ईश्वर अपने भक्त का अनिष्ट कभी नहीं करते...।'

उन्हीं दिनों मुझे कलकत्ता रचना पुरस्कार लेने जाना था, जो मुझे कविता, और राजी सेठ को कहानी के लिए मिला था। मैंने गुरुजी को भी साथ ले लिया कि इससे उनका मन कुछ बहलेगा। इससे पहले भी मैं दिल्ली की कई साहित्यिक गोष्ठियों में उन्हें ले जा चुकी थी, उनका सामाजिक 'विजन' कुछ विस्तृत हो।

कलकत्ता में जो अन्य लेखक भाषा परिषद में ठहरे थे, विशेषकर राजी, उन्हें बहुत विस्मय होता कि अपने से इतनी छोटी वय के और ऊपर से अति साधारण दिखने वाले इस बालक गुरु का इतना मान मैं क्यों करती हूँ। उन सबके लिए मेरे 'अव्यावहारिक' होने का यह एक और प्रमाण था।

कलकत्ता से लौटे तो गुरु जी को 'इंटरव्यू काल' का पत्र मिला। मुझे इसी की प्रतीक्षा थी। बाबू जी डॉ. विद्यानिवास मिश्र उन दिनों दिल्ली आए हुए थे और आई.आई.टी. में वागीश जी के यहाँ ठहरे थे। मैं शाम को वहाँ गई। भाग्य से उन्हें कोई नहीं था उस समय। मैंने धीरे से कहा, 'बाबूजी, मेरी गुरुदक्षिणा करवा दीजिए...' बिना कहे वे जान गए कि अपने गुरु की नौकरी का प्रबंध किए बिना इस लड़की की मुक्ति नहीं। बोले, 'तुम्हारे पास गाड़ी है?'

'जी, बाबू जी।'

उन्होंने पास रखा अपना कुर्ता पहना। पैरों में चप्पल डाली। बोले, 'चलो।'

पाँच-सात मिनट बाद, हम कटवरिया सराय स्थित लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ के कुलपति, डॉ. मंडन मिश्र के द्वार पर।

दरवाजे पर आ मंडन मिश्र ने बाऊजी के पैर छुए, भीतर आने को कहा। बाऊजी वहीं खड़े-खड़े बोले, 'भाई, आज तुम्हारे द्वार पर हम याचक हैं। यह लड़की मेरे सिर पर बैठी है। इसकी गुरुदक्षिणा करवानी है।'

शब्दश: ये मेरे बाबू जी के शब्द थे, जिन्हें सुनने और जिनके कहने वाले को अपना बाबू जी कह पाने के लिए शायद मुझे कई जन्म लेने होंगे। इतना पुण्य जल्दी तो अर्जित नहीं होता।

मंडन जी की जो भी प्रबंधन कठिनाइयाँ रही हों, बहरहाल गुरु जी की नियुक्ति जयपुर के संस्कृत विद्यापीठ में हो गई। और यों मेरी गुरुदक्षिणा के साथ-साथ मेरी संस्कृत शिक्षा भी इतिहास की बात हो गई। एक कहानी-भर।

पर सच ही क्या? सच ही क्या मैंने वह सब नहीं पाया, जो अंग्रेजी ने नहीं दिया? अंग्रेजी ने खोजी वृत्ति दी, समाधान नहीं। ज्ञान का प्रकाश दिया, सम्यकता की स्थिरता नहीं। और मेरी हिंदी ने मुझे स्वर तो दिया पर उसकी तरलता नहीं। उसकी लय, उसके लालित्य के लिए मुझे संस्कृत तक जाना ही था। और गुरु जी के आने ने बताया कि विद्या 'श्रद्धावान' को ही आती है, बहुत सारे पैसे देकर बढ़िया स्कूल से तो मात्र प्रमाणपत्र मिलता है, जिसके बदले आप अर्थ तो पाते हैं सिद्धि नहीं, गति पाते हैं निरंतरता नहीं।



कमला जी कभी-कभी बहुत याद आती हैं। मृत्यु के समय वे अकेली थीं। कोई बच्चा न था। एक बार उन्होंने बताया कि 'ऑल इंडिया' में एक नर्स ने उन पर हाथ उठाया। मृत्यु के बाद कई दिन उनका शव, शवगृह के हवाले रहा, जब तक उनका बेटा, भारत, या बेटी आ नहीं गए।

उनके घर के आगे से निकलतीं हूँ, तो उनके नाम की तख्ती खोजती हूँ। चाहती हूँ मेरी किसी भाषा भूल पर वे तर्जनी उठाएँ और मुझे कहें, 'नहीं, यह नहीं - ऐसे।'



गुरुजी से भी वर्षों मिलना नहीं होता। वे जयपुर से श्रृंगेरी, श्रृंगेरी से केरल और केरल से पुरी जा चुके हैं। उनके साथ उनकी सुशिक्षित सुमुखी पत्नी और दो बच्चे हैं। इन वर्षों में उन्होंने संस्कृत पढ़ाने के उपक्रम में अंग्रेजी सीख ली है। बीच-बीच में अंग्रेजी में लिखे उन के पत्र मिलते रहे। मेरे उत्तर हिंदी में ही गए। हाल ही में उनकी पदोन्नति हुई और वे रीडर होने पर दिल्ली किसी सेमिनार में आए तो मुझे मिलने घर पर भी आए।

बात-बात में बोले, 'संस्कृत इज ए ग्रेट लेंगुएज' (Sanskrit is a great language.)।

मैंने हँसकर कहा, 'गुरु जी, संस्कृत के लिए यह बात क्या अंग्रेजी में कहनी होती है...?'


>>पीछे>> >>आगे>>