यहाँ आए दसेक दिन हो गए हैं यात्रा की खिन्नता समाप्त-सी है। दिनचर्या ने भी अपने ढर्रे को पकड़ लिया है। न ड्राइवर, न सेवक। हाथ के काम का अपना सुख होता है - शायद बहुत वर्ष बाद। आती तो पहले भी रही हूँ, पर इस तरह से पूर्णरूपेण गृहिणी नहीं। कहीं दफ्तर की तिक्तता और रिक्तता बनी रहती थी। अवकाशग्रस्ति होने का यह सुख कि अपना और मात्र अपना जीवन एक बड़े फलक-सामने है। मैं हूँ उसमें और वे सब नहीं है जो निरर्थक या मात्र संयोगवश साथ रहे।
लगातार बारिश हो रही है। सभी कह रहे हैं कि इस वर्ष ग्रीष्म तो आरंभ ही नहीं हो रहा। फिर भी कल धूप निकली। दोपहर में सैर को निकल पड़ी। वही देवदार, वही चीड़ और उनकी पहचानी गंध। और कितने ही पर्वतीय वनस्पति जिन्हें छुटपन में कसौली, मसूरी या ऐसे ही किसी हिल स्टेशन पर पहचाना था। रोमांच-सा होता है दिनों को यों पीछे खिसकते देख जैसे कोई बच्चा दूर से दौड़ता आया हो फिर वहीं दौड़कर दोबारा चला जाए, कभी आगे, कभी पीछे...
स्मृति की यह खलबली 1994 में माँ के जाने से आरंभ हुई। या उससे पहले कभी जब स्विट्जरलैंड में चुप बैठी रहती थी। पर तब अतीत मात्र पिछले 4-5 वर्ष का था। अब एक लंबा, गहरा समय है। अपनी स्मृति से भी आगे कहीं माँ के बचपन की कल्पना तक।
...रात होते ही जब यहाँ की भाषा का शोर थमता है, तो फिर मन हिंदी मे तैरता है। घेरता है अपना घर अपनी दिल्ली। जाने कैसे इतना ललकते हैं सब विदेश के लिए। और क्यों विदेश में ही मेरे सबसे करीब होता है... होता रहा है पिछले 44 वर्षों से।
वय के इस पड़ाव पर कुछ कहने का मन होता है। मौन में ही जैसे यह कहना चलता रहता है। अज्ञेय जी याद आ जाते हैं। कितने वर्ष चुप रहे और चुप रहकर चुप्पी के आरोपों को सहा। जाने के कुछ वर्ष पहले बोलने लगे थे - बोलना चाहने लगे थे। अपनी जीवनी तक लिखवाने में वे सहायक होने को राजी हो गए थे। बाबू जी (डॉ. विद्यानिवास मिश्र) लिखने भी लगे थे। जब कभी अज्ञेय जी सी मेरा मिलने का सुयोग होता तो कवेंटर लेने के निवास स्थान पर ही। वे बगीचे की तरफ टहल जाते या वहाँ ही उनसे भेंट होती। कभी पानी देते कभी यूँ ही फूल-पौधों आनंद लेते। यह रसिकता भी तो कितनी जानी-पहचानी है, आदमी है। एक-एक वृक्ष या पौधों का इतिहास बताना - कहाँ से लाए थे, कैसे लगाया, कैसे दिल्ली की लू से बचाया, और सबके संस्कृत में नाम सुनाते; जैसे जीवन उनकी उँगलियों से बहकर वापिस धरती में जा रहा था, उन्हीं पेड़-पौधों के संग - या हवा में घुल रही थी जिजीविषा सुगंध।
पश्चिमी चित्रकला का इतिहास आज ही पढ़कर समाप्त किया है। मोने (Monet) पर एक आलेख अलग से पढ़ा। शायद इसलिए और भी याद आए अज्ञेय - मेरे गुरुवर। मोने का वही चोगा-सा, वही बिखरापन और अपने बगीचे को देखकर वही उन्माद। और जाने के दिन भी लाइलेक के बल्बों का पार्सल आने की प्रतीक्षा में चले गए। यही क्या अज्ञेय जी का भी चित्र नहीं - यह पीछे छूटा वनस्पति संसार, यही तो कविता थी। गुरुदेव का वह काष्ठ प्रकोष्ठ (tree house) वृक्ष के जिसमें बैठकर कविता सुनाने का आश्वासन दिया और सुनने वाले के आने से पहले उसी की प्रतीक्षा में चले गए। मोने के वे बल्ब आए होंगे, लाइलेक उगे होंगे। कविता भी सुनी होगी गुरुदेव की पक्षियों ने कवेंटर लेने में, उनके जाने के बाद। वाणी छूट जाती है यही हर कलाकार की।
दिल्ली से चली तो मेरे पचगांवा के फार्म पर आम के सभी वृक्ष धरती तक झुके थे फल से। जानती हूँ तोते और गिलहरी - यदाकदा की तेज आँधी में सभी चले गए होंगे पकने से पहले। पर उस आनंद को तो छोड़ ही गए, जो फल से लदे वृक्ष को देखकर आँख को होता है। वृक्ष जो हाथ से रोपा गया हो, बड़ी कठिनता से बचाया हो, दीमक से, लू से, पानी की कमी से, सर्दी में पाले से, मालियों की मूढ़ता और उपेक्षा से। इस वर्ष तो लीची के पेड़ पर भी फल था पहली दफे मात्र दसेक लीची। अभी छोटी थीं और बड़ी भी क्या ही हुई होंगी इस गर्मी में। पर हुई तो वे कई वर्ष की उत्सुक प्रतीक्षा के बाद।
यहाँ के लिए चलने से पहले एक काम करना जोने क्यों बहुत जरूरी लगा था। अपनी नई पुस्तक, अब तक की दो प्रतियाँ - खंड 1, खंड 2 लेकर पद्मा सचदेव से मिलने गई। कभी अच्छी मित्रता थी। उनका दबंग होना अच्छा लगता था। लेखिका को ऐसा होना चाहिए - अपनी जमीन पर खड़ा - पूरे आत्मविश्वास से। लेखक को सदा उतना ही नहीं मिलता जितना उसका श्रेय होता है। कभी नहीं मिलता बिल्कुल भी, कभी थोड़ा-सा, कभी ठीक-ठीक या कभी बहुत अधिक। पद्मा को उनके नामानुरूप मिला जैसे। जितना लिखा उसके अनुपात में भरपूर। ऐसा प्राय: नहीं होता। किंतु हो सकता है - पद्मा इस बात की प्रमाण-सी हैं मेरे लिए।
बीच के वर्षों में उनसे मिलना नहीं हुआ। अपने जीवन की बीहड़ता कभी संयोग से इतनी हो जाती है कि कुछ छूट-टूट भी जाता है। बहुत छूटा नौकरी की व्यस्तता में। और यह नौकरी दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों-सी तो थी नहीं बँधे-बँधाए पाठ्यक्रम की और छुट्टियों और हड़तालों से मिली छूट की।
जिन वर्षों में हिंदी वालों से मेल-मिलाप कम रहा उन वर्षों में कितनी भ्रांतियों का सुभीता रहा मेरे 'शुभचितंकों' को। उन्हीं में से किसी की भड़काई पद्मा जो भी जब-जब भी मिलीं तो तनी-सी मिलीं। जब बोलीं तो दंश देने को ही बोलीं। मेरे नाम के साथ 'कर्णकवुशब्द' भी जोड़ने लगी - जहाँ मैं आने वाली होती, वहाँ उन्हें आपत्ति होती, मेरे साथ स्टेज पर बैठने में।
समझ में नहीं आया यह सब क्यों? क्यों हम गिनती के चार-पाँच जन भी एक-दूसरे को यों झपट-कपट में लेते रहते हैं। यहाँ के लिए चलने से पहले उनसे मिलने गई। मन में था कि यह तनाव 'प्रेम' का अधिक है, और इसका होना दुर्भाग्य-सा तो है ही; हिंदी लेखन की दरिद्रता भी।
फोन करके गई थी। वे प्रसन्न हुई। बिस्तर पर बैठी ऑक्सीजन ले रहीं थीं। उसे हटाया। खिड़की खोलीं। कमरे की भी, मन की भी। दो दिन बाद उनका फोन आया, बोलीं, 'तू जिऊँदी रह'। (तुम जियो/जीती रहो) रोमांच हुआ। माँ के बाद किसी ने ये तीन शब्द ही नहीं कहे थे। बाकी तो यथावत था। उन्होंने कहानियाँ पढ़ी। सराहीं। पहले भी यदि वो कभी उदार हुई थीं, तो मेरे कहानी पालना पढ़कर। जब मिलतीं उसी कहानी का जिक्र करती। इस बार वह गाँठ आवाज में नहीं थी, जो पिछली कई वर्ष से थी। यही होता है लेखक से लेखक का असली साक्षात्कार - असली पहचान - उसके शब्दों के माध्यम से। ये शब्द ही एक दूसरे की आत्मा का अवलोकन हैं (map of one's Soul)। इन्हीं को देखना बंद कर दिया हिंदी के उन सभी लेखकों ने जो दिखने में व्यस्त हो गए। लिखने की माया गौण होती चली गई इस तरह से, इन पिछले 15 वर्षों में।
चलने लगी थी तो पद्मा जी ने अपनी पुस्तकों की अलमारी की और देखकर कहा था, 'इन्हें कहीं देना चाहती हूँ, पर अभी नहीं। अभी मुझे दस वर्ष तक और लिखना है... इनकी जरूरत है।...'
रचनात्मक ऊर्जा से लकदक ऐसा ही होता है कलाकार का कालबोध, काल की सीमाओं के पार। फिर मोने की याद आई। जाने के कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने अपने मित्र आंद्रक बाबियर को 1925 में लिखा था, 'बहुत काम कर रहा हूँ, बहुत प्रसन्न हूँ। शायद सौ वर्ष पार कर ही लूँ...' सौ वर्ष नहीं हुए न सही। (5 दिसंबर, 1926 को निधन)
जब लौटूँ पद्मा जी ऐसे ही मिले, लिखते हुई - दस नहीं दस से कहीं अधिक कला वर्षों में जीतीं।