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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम रत्नसेन-पद्मावती-विवाह खंड पीछे     आगे

लगन धारा औ रचा बियाहू । सिंघल नेवत फिरा सब काहू॥

बाजन बाजे कोटि पचासा । भा अनंद सगरौं कैलासा॥

जेहि दिन कहँ निति देव मनाया । सोइ दिवस पदमावति पावा॥

चाँद सुरुज मनि माथे भागू । औ गावहिं सब नखत सोहागू॥

रचि रचि मानिक माँड़व छावा । औ भुइँ रात बिछाव बिछावा॥

चंदन खाँभ रचे बहु भाँती । मानिक दिया बरहिं दिन राती॥

घर घर बंदन रचे दुवारा । जावत नगर गीत झनकारा॥

हाट बाट सब सिंघल, जहँ देखहु तहँ रात।

धानि रानी पदमावति, जेहिकै ऐसि बरात॥1॥

रतनसेन कहँ कापड़ आए । हीरा मोति पदारथ लाए॥

कुँवर सहस दस आइ सभागे । बिनय करहिं राजा सँग लागे॥

जाहि लागि तन साधोहु जोगू । लेहु राज औ मानहु भोगू॥

मंजन करहु, भभूत उतारहु । करि अस्नान चित्रा सब सारहु॥

काढ़हु मुद्रा फटिक अभाऊ । पहिरहु कुंडल कनक जराऊ॥

छोरहु जटा, फुलायल लेहू । झारहु केस, मकुट सिर देहू॥

काढ़हु कंथा चिरकुट लावा । पहिरहु राता दगल सोहावा॥

पाँवरि तजहु देहु पग, पौरि जो बाँक तुषार।

बाँधिा मौर, सिर छत्रा देइ, बेगिं होहु असवार॥2॥

साजा रजा, बाजन बाजे । मदन सहाय दुवौ दर गाजे॥

औ राता सोने रथ साजा । भए बरात गोहने सब राजा॥

बाजत गाजत भा असवारा । सब सिंघल नइ कीन्ह जोहारा॥

चहुँ दिसि मसियर नखत तराईं । सूरुज चढ़ा चाँद के ताईं॥

सब दिन तपे जैस हिय माँहा । तैस राति पाई सुख छाँहा॥

ऊपर रात छत्रा तस छावा । इंद्रलोक सब देखै आवा॥

आजु इंद्र अछरी सौं मिला । सब कविलास होहि सोहिला॥

धारति सरग चहूँ दिसि, पूरि रहे मसियार।

बाजत आवै मँदिर हूँ जहँ, होइ मंगलाचार॥3॥

पदमावति धाौराहर चढ़ी । दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढ़ी॥

देखि बरात सखिन्ह सौं कहा । इन्ह महँ सो जोगी को अहा?॥

केइ सो जोग लै ओर निबाहा । भएउ सूर, चढ़ि चाँद बियाहा॥

कौन सिध्द सो ऐस अकेला । जेइ सिर लाइ पेम सों खेला?॥

का सौं पिता बात अस हारी । उतर न दीन्ह, दीन्ह तेहि बारी1॥

का कहँ दैउ ऐस जिउ दीन्हा । जेइ जयमार जीति रन लीन्हा॥

धान्नि पुरुष अस नवै न नाए । बी सुपुरुष होइ देस पराए॥

को बरिवंड बीर अस, मोहिं देखै कर चाव।

पुनि जाइहि जनवासहि, सखि मोहिं बेगि देखाव॥4॥

सखी देखावहिं चमकै बाहू । तू जस चाँद, सुरुज तोर नाहू॥

छपा न रहै सूर परगासू । देखि कँवल मन होइ बिगासू॥

ऊ उजियार जगत उपराहीं । जग उजियार, सो तेहि परछाहीं॥

जस रवि, देखु, उठै परभाता । उठा छत्रा तस बीच बराता॥

ओहि माँझ भा दूलह सोई । और बरात संग सब कोई॥

सहसौ कला रूप बिधिा गढ़ा । सोने के रथ आवै चढ़ा॥

मनि माथे, दरसन उजियारा । सौंह निरखि नहिं जाइ निहारा॥

रूपवंत जस दरपन, धानि तू जाकर कंत।

चाहिय जैस मनोहर, मिला सो मनभावंत॥5॥

देखा चाँद सूर जस साजा । अस्टौ भाव मदन जनु गाजा॥

हुलसे नैन दरस मद माते । हुलसे अधार रंग रस राते॥

हुलसा बदन ओपि रवि पाई । हुलसि हिया कंचुकि न समाई॥

हुलसे कुच कसनी बँद टूटे । हुलसी भुजा, वलय कर फूटे॥

हुलसी लंक कि रावन राजू । राम लखन दर साजहिं आजू॥

आजु चाँद घर आवा सूरू । आजु सिंगार होइ सब चूरू॥

आजु कटक जोरा है कामू । आजु बिरह सौं होइ संग्रामू॥

अंग अंग सब हुलसे, कोइ कतहूँ न समाइ।

ठावहिं ठाँव बिमोही, गइ मुरछा तनु आइ॥6॥

सखी सँभारि पियावहिं पानी । राजकुँवरि काहे कुँभिलानी॥

हम तौ तोहि देखावा पीऊ । तू मुरझानि, कैस भा जीऊ॥

सुनहु सखी सब कहहिं बियाहू । मोह कहँ भएउ चाँद कर राहू॥

तु जानहु आवै पिउ साजा । यह सब सिर पर धाम धाम बाजा॥

जैत बराती औ असवारा । आए सबै चलावनहारा॥

सो आगम हौं देखति झ्रखी । रहन न आपन देखौं सखी!॥

होइ बियाह पुनि होइहि गवना । गवनब तहाँ बहुरि नहिं अवना॥

अब यह मिलन कहाँ होइ? परा बिछोहा टूटि।

तैसि गाँठि पिउ जोरब, जनम न होइहि छूटि॥7॥

आइ बजावति बैठि बराता । पान, फूल सेंदूर सब राता॥

जहँ सोने कर चित्तारसारी । लेइ बरात सब तहाँ उतारी॥

माँझ सिंघासन पाट सवारा । दूलह आनि तहाँ बैसारा॥

कनक खंभ लागे चहुँ पाँती । मानिक दिया बरहिं दिन राती॥

भएउ अचल धा्रुव जोगि पखेरू । फूलि बैठ थिर जैस सुमेरू॥

आजु दैउ हौं कीन्ह सभागा । जत दुख कीन्ह नेग सब लागा॥

आजु सूर ससि के घर आवा । ससि सूरहि जनु होइ मेरावा॥

आजु इंद्र होइ आएउँ, सजि बरात कबिलास।

आजु मिली मोहिं अपछरा, पूजी मन कै आस ॥8॥

होइ लाग जेवनार पसारा । कनकपत्रा पसरे पनवारा॥

सोन थार मनि मानिक जरे । राय रंक के आगे धारे॥

रतन जड़ाऊ खोरा खोरी । जन जन आगे दस-दस जोरी॥

गडुवन हीर पदारथ लागे । देखि बिमोहे पुरुष सभागे॥

जानहु नखत करहिं उजियारा । छपि गए दीपक औ मसियारा॥

गइ मिलि चाँद सुरुज कै करा । भा उदोत तैसे निरमरा॥

जेहि मानुष कहँ जोति न होती । तेहि भइ जोति देखि वह जोती॥

पाँति पाँति सब बैठे, भाँति भाँति जेवनार।

कनकपत्रा दोनन्ह तर, कननपत्रा पनवार॥9॥

पहिले भात परोसे आना । जनहुँ सुबास कपूर बसाना॥

झालर माँड़े आए पोई । देखत उजर पाग जस धाोई॥

लुचुई और सोहारी धारी । एक तौ ताती औ सुठि कोंवरी॥

ख्रडरा बचका औ डुभकौरी । बरी एकोतर सौ, कोंहड़ौरी॥

पुनि सँधााने आए बसाँधो । दूधा दही के मुरंडा बाँधो॥

औ छप्पन परकार जो आए । नहिं अस देख, न कबहूँ खाए॥

पुनि जाउरि पछियाउरि आई । घिरित खाँड़ कै बनी मिठाई॥

जेंवत अधिाक सुबासित, मुँह महँ परत बिलाइ।

सहस स्वाद सो पावै, एक कौर जो खाइ॥10॥

जेंवन आवा, बीन न बाजा । बिनु बाजन नहिं जेंवै राजा॥

सब कुँवरन्ह पुनि खैंचा हाथू । ठाकुर जेंव तौ जेंवैं साथू॥

विनय करहिं पंडित विद्वाना । काहे नहिं जेवहिं जजमाना?॥

यह कबिलास इंद्र कर बासू । जहाँ न अन्न न माछरि माँसू॥

पान फूल आसी सब कोई । तुम्ह कारन यह कीन्हि रसोई॥

भूख, तौ जनु अमृत है सूखा । धाूप, तौ सीअर नीबी रूखा॥

नींव, तौ भुइँ जनु सेज सपेती । छाँटहुँ का चतुराई एती?॥

कौन काज केहि कारन, बिकल भएउ जजमान।

होइ रजायसु सोई, बेगि देहिं हम आन॥11॥

तुम पंडित जानहु सब भेदू । पहिले नाद भएउ तब बेदू॥

आदि पिता जो बिधिा अवतारा । नाद संग जिउ ज्ञान सँचारा॥

सो तुम बरजि नीक का कीन्हा । जेंवन संग भोग बिधिा दीन्हा॥

नैन, रसन, नासिक, दुइ स्रवना । इन चारहु सँग जेंवै अवना॥

जेंवन देखा नैन सिराने । जीभहिं स्वाद भुगुति रस जाने॥

नासिक सबैं बासना पाई । स्रवनहिं काह करत पहुनाई?॥

तेहि कर होइ नाद सौं पोखा । तब चारिहु कर होइ सँतोखा॥

औ सो सुनहिं सबद एक, जाहि परा किछु सूझि।

पंडित! नाद सुनै कहँ, बरजेहु तुम का बूझि॥12॥

राजा! उतर सुनहु अब सोई । महि डोलै जौ बेद न होई॥

नाद, बेद, मद, पैंड़ जो चारी । काया महँ ते, लेहु बिचारी॥

नाद हिये, मद उपनै काया । जहँ मद तहाँ पैंड़ नहिं छाया॥

होइ उनमद जूझा सो करै । जो न वेद ऑंकुस सिर धारै॥

जोगी होइ नाद सो सुना । जेहि सुनि काय जरै चौगुना॥

कथा जो परम तंत मन लावा । घूम माति, सुनि और न भावा॥

गए जो धारमपंथ होइ राजा । तिन कर मुनि जो सुनै तौ छाजा॥

जस मद पिए घूम कोइ, नाद सुनै पै घूम॥

तेहितें बरजे नीक है, चढ़े रहसि कै दूम॥13॥

भइ जेवनार, फिरा ख्रड़वानी । फिरा अरगजा कुँहकुँह पानी॥

फिरा पान, बहुरा सब कोई । राग बियाहचार सब होई॥

माँड़ौ सोन क गगन सँवारा । बंदनवार लाग सब बारा॥

साजा पाटा छत्रा कै छाँहाँ । रतन चौक पूरा तेहि माहाँ॥

कंचन कलस नीर भरि धारा । इंद्र पास आनी अपछरा॥

गाँठि दुलह दुलहिन कै जोरी । दुऔ जगत जो जाइ न छोरी॥

बेद पढ़ैं पंडित तेहि ठाऊँ । कन्या तुला राशि लेइ नाऊँ॥

चाँद सुरुज दुऔ निरमल, दुऔ संजोग अनूप।

सुरुज चाँद सौं भूला, चाँद सुरुज के रूप॥14॥

दुऔ नाँव लै गावहिं बारा । करहिं सो पदमिनि मंगलचारा॥

चाँद के हाथ दीन्ह जयमाला । चाँद आनि सूरस गिउ घाला॥

सूरुज लीन्ह चाँद पहिराई । हार नखत तरइन्ह स्यों पाई॥

पुनि घनि भरि अंजुलि जल लीन्हा । जोबन जनम कंत कह दीन्हा॥

कंत लीन्ह, दीन्हा धानि हाथा । जोरी गाँठ दुऔ एक साथा॥

चाँद सुरुज सत भाँवरि लेहीं । नखत मोति नेवछावरि देहीं॥

फिरहिं दुऔ सत फेर घुटै कै । सातहु फेर गाँठि सौ एकै॥

भइ भाँवरि, नेवछावरि, राज चार सब कीन्ह।

दायज कहौ कहाँ लगि? लिखि न जाइ जत दीन्ह॥15॥

रतनसेन जब दायज पावा । गंधा्रबसेन आइ सिर नावा॥

मानुस चित्ता आनु किछु कोई । करै गोसाईं सोइ पै होई॥

अब तुम्ह सिंघलदीप गोसाई । हम सेवक अहहीं सेवकाई॥

जस तुम्हार चितउरगढ़ देसू । तस तुम्ह इहाँ हमार नरेसू॥

जंबूदीप दूरि का काजू? । सिंघलदीप करहु अब राजू॥

रतनसेन बिनवा कर जोरी । अस्तुति जोग जीभ कहँ मोरी॥

तुम्ह गोसाई जेइ छार छुड़ाई । कै मानस अब दीन्हि बड़ाई॥

जौ तुम्ह दीन्ह तौ पावा, जिवन जनम सुखभोग।

नातरु खेह पायँ कै, हौं जोगा केहि जोग॥16॥

धाौराहर पर दीन्हा बासू । सात खंड जहवाँ कविलासू।

सखी सहस दस सेवा पाई। जनहुँ चाँद सँग नखत तराई॥

होइ मंडल ससि के चहुँ पासा। ससि सूरहि लेइ चढ़ी अकासा॥

चलु सूरुज दिन अथवै जहाँ । ससि निरमल तू पावसि तहाँ॥

गंधा्रबसेन धाौरहर कीन्हा । दीन्ह न राजहि, जोगिहि दीन्हा॥

मिली जाइ ससि कै चहुँ पाहाँ । सूर न चाँपै पावै छाँहाँ॥

अब जोगी गुरु पावा सोई । उतरा जोग, भसम गा धाोई॥

सात खंड धाौराहर, सात रंग नग लाग।

देखत गा कविलासहि, दिस्टि पाप सब भाग॥17॥

सात खंड सातौ कबिलासा। का बरनौं जग ऊपर बासा॥

हीरा ईंट कपूर गिलावा । मलयागिरि चंदन सब लावा॥

चूना कीन्ह औटि गजमोती । मोतिहु चाहि अधिाक तेहि जोती॥

बिसुकरमै सो हाथ सँवारा । सात खंड सातहि चौपारा॥

अति निरमल नहिं जाइ बिसेखा। जस दरपन महँ दरसन देखा॥

भुइँ गच जानहु समुद हिलोरा । कनकखंभ जनु रचा हिंडोरा॥

रतन पदारथ होइ उजियारा। भूले दीपक औ मसियारा॥

तहँ अछरी पदमावति, रतनसेन के पास।

सातौ सरग हाथ जनु औ सातौ कविलास॥18॥

पुनि तहँ रतनसेन पगु धाारा । जहाँ नौ रतन सेज सँवारा॥

पुतरी गढ़ि गढ़ि खंभन काढ़ी । जनु सजीव सेवा सब ठाढ़ी॥

काहू हाथ चँदन कैं खोरी। कोइ सेंदुर कोइ गहे, सिधाोरी॥

कोइ कुहँकुहँ केसर लिहे रहै। लावै अंग रहसि जनु चहै॥

कोई लिहे कुमकुमा चोवा । धानि कब चहै ठाढ़ि मुख जोवा॥

कोइ बीरा, कोइ लीन्हे बीरी । कोइ परिमल अति सुगँध समीरी॥

काहू हाथ कस्तूरी मेदू । कोइ किछु लिहे लागु तस भेदू॥

पाँतिहि पाँति चहूँ दिसि, सब सोंधो कै हाट।

माँझ रचा इंद्रासन, पदमावति कहँ पाट॥19॥

(1) सोहागू=सौभाग्य या विवाह के गीत। रात=लाल। बिछाव=बिछावन। बंदन=बंदनवार।

(2) लाए=लगाए हुए। चित्रा सारहु=चंदन केसर की खौर बनाओ। अभाऊ=न भानेवाले, न सोहनेवाले। फुलायल=फुलेल। दगल=दगला, ढीला ऍंगरखा। पाँवरि=खड़ाऊँ।

(3) दर=दल। गोहने =साथ में। नइ=झुककर। मसियर=मशाल। सोहिला=सोहला या सोहर नाम के गीत।

(4) जेहि कहँ ससि गढ़ी=जिसके लिए चंद्रमा (पदमावती) बनाई गई। जयमार=जयमाल।

(5) नाहु=नाथ, पति। निरखि=दृष्टि गड़ाकर।

1. पाठांतर-का सौं पिता बैन अस दीन्हा। महादेव जेहि किरपा कीन्हा॥

(6) गाजा=गरजा। अस्टौ भाव=आठों भावों से, पाठांतर-'सहसौ भाव'। कसनी=ऍंगिया। लंक=कटि और लंका। रावन=(1) रमण करनेवाला, (2) रावण। झ्रखी=झीककर, पछताकर।

(8) चित्तारसारी=चित्राशाला। जोगी पखेरू=पक्षी के समान एक स्थान पर जमकर न रहनेवाला योगी। फूलि=आनंद से प्रफुल्ल होकर। नेग लागा=(मुहा.) सार्थक हुआ, सफल हुआ, होने लगा।

(9) पनवार=पत्ताल। खोरा=कटोरा। मसियार=मशाल। करा=कला।

(10) झालर=एक प्रकार का पकवान, झलरा। माँड़े=एक प्रकार की चपाती। पाग=पागड़ी। लुचुई=मैदे की बहुत महीन पूरी। सोहारी=पूरी। कोंवरी=मुलायम। ख्रडरा=फेंटे हुए बेसन के, भाप पर पके हुए, चौखूँटे टुकड़े जो रसे या दही में भिगोए जाते हैं; कतरा रसाज। बचका=बेसन और मैदे को एक में फेंटकर जलेबी के समान टपका घी में छानते हैं, फिर दूधा में भिगोकर रख देते हैं। एकोतर सौ=एकोत्तार शत, एक सौ एक। कोहँड़ौरी=पेठे की बरी। सँधााने=अचार। बसाँधो=सुगंधिात। मुरंडा=भुने गेहूँ और गुड़ के लड्डू, यहाँ लड्डू। जाउरि=खीर। पछियाउरि=एक प्रकार का सिखरन या शरबत।

(11) भूख...सूखा=यदि भूख है तो रूखा-सूखा भी मानो अमृत है। नाद=शब्दब्रह्म, अनाहत नाद।

(12) सिरान=ठंढै हुए। पोख=पोषण।

(13) मद=प्रेममद। पैंड़=ईश्वर की ओर ले जानेवाला मार्ग, मोक्ष का मार्ग (बौध्दों का चौथा सत्य 'मार्ग' है। उन्हीं के यहाँ से वज्रयान योगियों के बीच होता हुआ शायद यह सूफियों तक पहुँचता है)। उनमद=उन्मत्ता। तिनकर पुनि...छाजा=राजधार्म में रत जो राजा हो गए हैं उनका पुण्य तू सुने तो शोभा देता है। चढ़े...दूम=मद चढ़ने पर उमंग में आकर झूमने लगता है।

(14) ख्रड़वानी=शरबत।

(15) हार नखत...सो पाई=हार क्या पाया मानो चंद्रमा के साथ तारों को भी पाया। स्यों=साथ। घुटै कै=गाँठ को दृढ़ करके, जैसे, आन गाँठि घुटि जाय त्यों मान गाँठि छुटि जाय।-बिहारी।

(16) आनु=लाए। नातरु=नहीं तो।

(17) चहुपाहाँ=चारों ओर। चाँपै=पावै दवाने पाता है।

(18) गिलावा=गारा। गच=फर्श। भूले=खो से गए। मसियार=मशाल। अछरी=आसरा।

(19) खोरी=कटोरी। सिंधाोरी=काठ की सुंदर डिबिया जिसमें स्त्रिायाँ ईंगुर या सिंदूर रखती हैं। बीरी=दाँत रँगने का मंजन। परिमल=पुष्पगंधा, इत्रा। सुगँधा समीरी=सुगंधा वायुवाला। सोंधो=गंधाद्रव्य।



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