वह पदमावति चितउर जो आनी । काया कुंदन द्वादसबानी॥
कुंदन कनक ताहि नहिं बासा । वह सुगंधा जस कँवल बिगासा॥
कुंदन कनक कठोर सो अंगा । वह कोमल, रँग पुहुप सुरंगा॥
ओहि छुइ पवन बिरिछ जेहि लागा । सोइ मलयागिरि भयउ सभागा॥
काह न मूठि भरी ओहि देही ? असि मूरति केइ दैउ उरेही?॥
सबै चितेर चित्रा कै हारे । ओहिक रूप कोइ लिखै न पारे॥
कया कपूर हाड़ सब मोती । तिन्हतें अधिाक दीन्ह बिधिा जोती॥
सुरुज किरिन जसि निरमल, तेहितें अधिाक सरीर।
सौंह दिस्टि नहिं जाइ करि नैनन्ह आवै नीर॥1॥
ससि मुख जबहिं कहै किछु बाता । उठत ओठ सूरुज जस राता॥
दसन दसन सौं किरिन जो फूटहिं । सब जग जनहुँ फुलझरीछूटहिं॥
जानहुँ असि महँ बीजु देखावा । चौंधिा परै किछु कहै न आवा॥
कौंधात अह जस भादौं रैनी । साम रैनि जनु चलै उड़ैनी॥
जनु बसंत ऋतु कोकिल बोली । सुरस सुनाइ मारि सर डोली॥
ओहि सिर सेसनाग जौ हरा । जाइ सरन बेनी होइ परा॥
जनु अमृत होइ बचन बिगासा । कँवल जो बास बास धानि पासा॥
सबै मनहि हरि जाइ मरि, जो देखै तस चार।
पहिले सो दुख बरनि के, बरनौं ओहिक सिंगार॥2॥
कित हौं रहा काल कर काढ़ा । जाइ धाौरहर तर भा ठाढ़ा॥
कित वह आइ झरोखे झाँकी । नैन कुरगिनि चितवन बाँकी॥
बिहँसी ससि तरई जनु परी । की सा रैनि छुटीं फुलझरी॥
चमक बीजु जस भादौं रैनी । जगत दिस्टि भरि रहीं उड़ैनी॥
काम कटाछ दिस्टि बिष बसा । नागिनि अलक पलक महँ डसा॥
भौंह धानुष पल काजर बूड़ी । वह भइ धाानुक हौं भा ऊड़ी॥
मारि चली मारत हू हंसा । पाछे नाग रहा हौं डँसा॥
काल घालि पाछे रखा, गरुड़ न मंतर कोइ।
मोरे पेट वह पैठा, कासौं पुकारौं रोइ?॥3॥
बेनी छोरि झार जौ केसा । रैनि होइ जग दीपक लेसा॥
सिर हुँत बिसहर परे भुइँ बारा । सगरौं देस भयउ ऍंधिायारा॥
सकपकाहिं बिष भरे पसारे । लहिर भरे लहकहिं अति कारे॥
जानहुँ लोटहिं चढ़े भुऍंगा । बेधो बास मलयगिरि अंगा॥
लुरहिं मुरहिं जनु मानहिं केली । नाग चढ़े मालति कै बेली॥
लहरै देइ जनहुँ कालिंदी । फिरि फिरि भँवर होइ चित बंदी॥
चँवर ढुरत आछै चहुँ पासा । भँवर न उड़हिं जो लुबुधो बासा॥
होइ ऍंधिायार बीजु धान, लोपै जबहि चीर गहि झाँप।
केस नाग कित देख मैं, सँवरि सँवरि जिय काँप॥4॥
माँग जो मानिक सेंदुर रेखा । जनु बसंत राता जग देखा॥
कै पत्राावलि पाटी पारी । औ रुचि चित्रा बिचित्रा सँवारी॥
भए उरेह पुहुप सब नामा । जनु बग बिखरि रहे घन सामा॥
जमुना माँझ सुरसती मंगा । दुहुँ दिसि रही तरंगिनि गंगा॥
सेंदुर रेख सो ऊपर राती । बीरबहूटिन्ह कै जसि पाँती॥
बलि देवता भए देखि सेंदूरू । पूजै माँग भोर उठि सूरू॥
भोर साँझ रबि होइ जो राता । ओहि रेखा राता होइ गाता॥
बेनी कारी पुहुप लेइ, निकसी जमुना आइ॥
पूज इंद्र आनंद सौं, सेंदुर सीस चढ़ाइ॥5॥
दुइज लिलाट अधिाक मनियारा । संकर देखि माथ तहँ धाारा॥
यह निति दुइज जगत सब दीसा । जगत जोहारै देइ असीसा॥
ससि जो होइ नहिं सरवरि छाजै । होइ सो अमावस छपि मनलाजै॥
तिलक सँवारि जो चुन्नी रची । दुइज माँझ जानहुँ कचपची॥
ससि पर करवत सारा राहू । नखतन्ह भरा दीन्ह बड़ दाहू॥
पारस जोति लिलाटहि ओती । दिस्टि जो करै होइ तेहि जोती॥
सिरी जो रतन माँग बैठारा । जानहु गगन टूट निसितारा॥
ससि औ सूर जो निरमल, तेहि लिलाट के ओप।
निसि दिन दौरि न पूजहिं पुनि पुनि होहिं अलोप॥6॥
भौंहै साम धानुक जनु चढ़ा । बेझ करै मानुष कहँ गढ़ा॥
चंद क मूठि धानुक वह ताना । काजर पनच बरुनि विष बाना॥
जा सहुँ हेर जाइ सो मारा । गिरिवर टरहिं भौंह जो टारा॥
सेतुबंधा जेइ धानुष बिड़ारा । उहौ धानुष भौंहन्ह सौं हारा॥
हारा धानुष जा बेधाा राहू । और धानुष कोइ गनै न काहू॥
कित सो धानुष मैं भौंहन्ह देखा । लाग बान तिन्ह आउ न लेखा॥
तिन्ह बानन्ह झाँझर भा हीया । जा अस मारा कैसे जीया?॥
सूत सूत तन बेधाा, रोवँ रोवँ सब देह।
नस नस महँ ते सालहिं, हाड़ हाड़ भए बेह॥7॥
नैन चित्रा एहि रूप चितेरा । कँवल पत्रा पर मधाुकर फेरा॥
समुद तरंग उठहिं जनु राते । डोलहि औ धाूमहिं रस माते॥
सरद चंद मह खंजन जोरी । फिरि, फिरि लरै बहोरि बहोरी॥
चपल बिलोल डोल उन्ह लागे । थिर न रहै चंचल बैरागे॥
निरखि अघाहिं न हत्या हुँते । फिरि फिरि òवनन्ह लागहिं मते॥
अंग सेत मुख साम सो ओही । तिरछे चलहिं सूधा नहिं होहीं॥
सुर नर गंधा्रब लाल कराहीं । उलब चलहिं सरग कह जाहीं॥
अस वै नयन चक्र दुइ, भँवर समुद उलथाहिं।
जनु जिउ घालि हिंडोलहिं, लेइ आबहिं लेइ जाहिं॥8॥
नासिक खड़ग हरा धानि कीरू । जोग सिंगार जिता औ बीरू॥
ससि मुँह सीहँ खड्ग देइ रामा । रावन सौं चाहै संग्रामा॥
दुहुँ समुद्र महँ जनु बिच नीरू । सेतुबंधा बाँधाा रघुबीरू॥
तिल के पुहुप अस नासिक तासू । औ सुगंधा दीन्हीं बिधिा बासू॥
हीर फूल पहिरे उजियारा । जनहुँ सरद ससि सोहिल तारा॥
सोहिल चाहि फूल वह ऊँचा । धाावहिं नखत न जाइ पहूँचा॥
न जनौं कैस फूल वह गढ़ा । बिगसि फूल सब चाहहिं चढ़ा॥
अस वह फूल सुबासित, भयउ नासिका बंधा।
जेत फूल ओहि हिरकहिं तिन्ह कहँ होइ सुगंधा॥9॥
अधार सुरंग पान अस खीने । राते रंग अमिय रस भीने॥
आछहिं भिजे तँबोल सौं राते । जने गुलाल दीसहिं बिहँसाते॥
मानिक अधार दसन जनु हीरा । बैन रसाल खाँड़ मुख बीरा॥
काढ़े अधार डाभ जिमि चीरा । रुहिर चुवै जौ खाँड़ै बीरा॥
ढारै रसहि रसहि रस गीली । रबत भरी औ सुरँग रँगीली॥
जनु परभात राति रवि रेखा । बिगसे बदन कँवल जनु देखा॥
अलक भुअंगिनि अधार¯ह राखा । गहै जो नागिनि सो रस चाखा॥
अधार अधार रस प्रेम कर, अलक भुअंगिनि बीच।
तब अमृत रस पावै, जब नागिनि गहि खींच॥10॥
दसन साम पानन्ह रँग पाके । बिगसे कँवल माँह अलि ताके॥
ऐसि चमक सुख भीतर होई । जनु दारिउँ औ साम मरोई॥
चमकहिं चौक विहँस जौ नारी । बीजु चमक जस निसि ऍंधिायारी॥
सेत साम अस चमकतदीठी । नीलम हीरक पाँति बईठी॥
केइ सो गढ़े अस दसन अमोला । मारै छीजु बिहँसि जो बोला॥
रतन भीजि रस रँग भए सामा । ओही छाज पदारथ नामा॥
कित वै दसन देख रस भीने । लेइ गइ जोति नैन भए हीने॥
दसन जोति होइ नैन मग, हिरदय माँझ पईठ।
परगट जग ऍंधिायार जनु, गुपुत ओहि मैं दीठ॥11॥
रसना सुनहु जो कह रस बाता । कोकिल बैन सुनत मन राता॥
अमृत कोंप जीभ जनु लाई । पान फूल असि बात सोहाई॥
चातक बैन सुनत होइ साँती । सुनै सो परै प्रेम मधाु माती॥
बिरवा सूख पाव जस नीरू । सुनत बैन तस पलुह सरीरू॥
बोल सेवाति बूँद जनु परहीं । òवन सीप मुख मोती भरहीं॥
धानि वै बैन जो प्रान अधाारू । भूले òवनहिं देहिं अहारू॥
उन्ह बैनन्ह कै काहि न आसा । मोहहि मिरिग बीन बिस्वासा॥
कंठ सारदा मोहै, जीभ सुरसती काह।
इंद्र चंद्र रवि देवता, सबै जगत मुख चाह॥12॥
òवन सुनहु जो कुंदन सीपी । पहिरे कुंडल सिंघलदीपी॥
चाँद सुरुज दुहुँ दिसि चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं॥
खिन खिन करहिं बीजु अस काँपा । ऍंवर मेघ महँ रहहिं नझाँपा॥
सूक सनीचर दुहुँ दिसि मते । होहि निनार न òवनन्ह हुँते॥
काँपत रहहिं बोल जो बैना । òवनन्ह जौ लागहिं फिर नैना॥
जस जस बात सखिन्ह सौं सुना । दुहुँ दिसि करहिं सीस वै धाुना॥
खूँट दुवौ अस दमकहिं खूँटी । जनहु परै कचपचिया टूटी॥
वेद पुरान ग्रंथ जत, òवन सुनत सिखि लीन्ह।
नाद विनोद राग रस बंधाक, òवन ओहि बिधिा दीन्ह॥13॥
कँवल कपोल ओहि अस छाजै । और न काहु दैउ अस साजै॥
पुहुप पंक रस अमिय सँवारे । सुरँग गेंद नारँग रतनारे॥
पुनि कपोल बाएँ तिल परा । सो तिल बिरह चिनगि कै करा॥
जो तिल देख जाइ जरि सोई । बाएँ दिस्टि काहु जिनि होई॥
जानहुँ भँवर पदुम पर टूटा । जीउ दीन्ह औ दिए न छूटा॥
देखत तिल नैनन्ह गा गाड़ी । और न सूझै सो तिल छाँड़ी॥
तेहि पर अलक मनि जरी डोला । छुवै सो नागिनि सुरँग कपोला॥
रच्छा करै मयूर वह, नाँघि न हिय पर लोट।
गहि रे जग को छुइ सकै, दुइ पहार के ओट॥14॥
गीउ मयूर केरि जस ठाढ़ी । कुन्दै फेरि कुँदेरै काढ़ी॥
धानि वह गीउ का बरनौं करा । बाँक तुरंग जनहुँ गहि परा॥
घिरिनि परेवा गीउ का बरनौं करा । बाँक तुरंग जनहुँ गहि परा॥
गीउ सुराही कै अस भई । अमिय पियाला कारन नई॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । तेइ सोइ ठाँव होइ जो देखा॥
सुरुज किरिनि हुँत गिउ निरमली । देखे बेगि जाति हिय चली॥
कंचन तार सोह गिउ भरा । साजि कँवल तेहि ऊपर धारा॥
नागिनि चढ़ी कँवल पर चढ़ि कै बैठ कमंठ।
कर पसार जो काल कहँ सो लागै ओहि कंठ॥15॥
कनक दंड भुज बनी कलाई । डाँडी कँवल फेरि जनु लाई॥
चंदन खाँभहिं भुजा सँवारी । जानहुँ मेलि कँवल पौनारी॥
तेहि डाँड़ी सँग कँवल हथोरी । एक कँवल कै दूनौ जोरी॥
सहजहि जानुहु मेहँदी रची । मुकुताहल लीन्हें जनु घुँघची॥
करपल्लव जो हथोरिन्ह माथा । वै सब रकत भरे तेहि हाथा॥
देखत हिया काढ़ि जनु लेई । हिया काढ़ि कै जाइ न देई॥
कनक ऍंगूठी औ नग जरी । वह हत्यारिनि नखतन्ह भरी॥
जैसी भुजा कलाई, तेहि बिधिा जाइ न भाखि।
कंकन हाथ होइ जहँ, तहँ दरसन का साखि?॥16॥
हिया थार कुच कनक कचोरा । जानहुँ दुवौ सिरीफल जोरा॥
एक पाट वै दूनौ राजा । साम छत्रा दूनहुँ सिर छाजा॥
जानहुँ दोउ लटू एक साथा । जग भा लटू चढ़ै नहिं हाथा॥
पातर पेट आहि जनु पूरी । पान अधाार फूल अस फूरी॥
रोमावलि ऊपर लटु घूमा । जानहु दोउ साम औ रूमा॥
अलक भुअंगिनि तेहि पर लोटा । हिय घर एक खेल दुइ गोटा॥
बान पगार उठे कुच दोऊ । नाँघि सरन्ह उन्ह पाव न कोऊ॥
कैसहु नवहिं न नाए, जोबन गरब उठान।
जो पहिले कर लावै, सो पाछे रति मान॥17॥
भृंग लंक जनु माँझ न लागा । दुइ ख्रड नलिन माँझ जनु तागा॥
जब फिरि चली देख मैं पाछे । अछरी इंद्रलोक जनु काछे॥
जबहि चली मन भा पछिताऊ । अबहूँ दिस्टि लागि ओहि ठाऊँ॥
अछरी लाजि छपीं गति ओही । भईं अलोप न परगट होहीं॥
हंस लजाइ मानसर खेले । हस्ती लाजि धाूरि सिर मेले॥
जगत बहुत तिय देखी महूँ । उदय अस्त अस नारि न कहूँ॥
महिमंडल तौ ऐसि न कोई । ब्रह्ममंडल जौ होइ तौ होई॥
बरनेउँ नारि जहाँ लगि, दिस्टि झरोखे आइ।
और जो अही अदिष्ट धानि, सो किछु बरनि न जाइ॥18॥
का धानि कहौं जैसि सुकुमारा । फल के छुए होइ बेकरारा॥
पखुरी काढ़हिं फूलन सेंती । सोई डासहिं सौंर सपेती॥
फूल समूचै रहै जो पावा । ब्याकुल होइ नींद नहिं आवा॥
सहै न खीर खाँड़ औ घीऊ । पान अधाार रहै तन जीऊ॥
नस पानन्ह कै काढ़हिं हेरी । अधार न गड़ै फाँस ओहि केरी॥
मकरि क तार तेहि कर चीरू । सो पहिरे छिरि जाइ सरीरू॥
पालँग पावँ क आछै पाटा । नेत बिछाव चलै जौ बाटा॥
घालि नैन ओहि राखिय, पल नहिं कीजिय ओट।
पेम क लुबुधाा पाव ओहि, काहु सो बड़ का छोट॥19॥
जौ राघव धानि बरनि सुनाई । सुना साह गइ मुरछा आई॥
जनु मूरति वह परगट भई । दरस देखाइ माहिं छपि गई॥
जो जो मंदिर पदमावति लेखी । सुना जौ कँवल कुमुद अस देखी॥
होइ मालति धानि चित्ता पईठी । और पुहुप कोउ आव न दीठी॥
मन होइ भँवर भयउ बैरागा । कँवल छाँड़ि चित्ता और न लागा॥
चाँद के रंग सुरुज जस राता । और नखत सो पूछ न बाता॥
तब कह अलाउदीं जगसूरू । लेउं नारि चितउर कै चूरू॥
जौ वह पदमावति मानसर, कलि न मलिन होइ जात।
चितउर महँ जो पदमावति, फरि उहै कहु बात॥20॥
ए जगसूर! कहौं तुम पाहाँ । और पाँच नग चितउर माहाँ॥
एक हंस है पंखि अमोला । मोती चुनै पदारथ बोला॥
दूसर नग जो अमृत बसा । सो बिष हरै नाग कर डसा॥
तीसर पाहन परस पखाना । लोह छुए होइ कंचन बाना॥
चौथ अहै सादूर अहेरी । जो बन हस्ति धारै सब घेरी॥
पाँचव नग सो तहाँ लागना । राजपंखि पेखा गरजना॥
हरिन रोझ कोइ भागि न बाँचा । देखत उड़ै सचान होइ नाचा॥
नग अमोल अस पाँचौ, भेंट समुद ओहि दीन्ह।
इसकंदर जो न पावा सो सायर धाँसि लीन्ह॥21॥
पान दीन्ह राघव पहिरावा । दस गज हस्ति घोड़ सो पावा॥
औ दूसर कंकन कै जोरी । रतन लागि ओहि बत्तिास कोरी॥
लाख दिनार देवाई जेंवा । दारिद हरा समुद कै सेवा॥
हौं जेहि दिवस पदमावति पावौं । तोहि राघव! चितउर बैठावौं॥
पहिले करि पाँचौ नग मूठी । सो नग लेउँ जो कनक ऍंगूठी॥
सरजा बीर पुरुष बरियारू । ताजन नाग सिंघ असवारू॥
दीन्ह पत्रा लिखि बेगि चलावा । चितउर गढ़ राजा पहँ आवा॥
राजै पत्रिा बँचावा, लिखी जो करा अनेग।
सिंघल कै जो पदमावति, पठै देहु तेहि बेग॥22॥
(1) बासा=महक, सुगंधा। ओहि छुइ...सभागा=उसको छूकर वायु जिन पेड़ों में लगी वे मलयागिरि चंदन हो गए। काह न मूठि...देही=उस मुट्ठी भर देह में क्या नहीं है? चितेर=चित्राकार।
(2) साम रैनि=ऍंधोरी रात। उड़ैनी=जुगनू। सर=बाण। चार=ढंग, ढब। दुख=उसके दर्शन से उत्पन्न विकलता।
(3) काल कर काढ़ा=काल का चुना हुआ। पल=पलक। बूड़ी=डूबी हुई। धाानुक=धानुष चलानेवाली। ऊड़ी=पनडुब्बी चिड़िया। घालि...रखा=डाल रखा।
(4) झार=झारती है। जग दीपक लेसा=रात समझकर लोग दीया जलाने लगते हैं। सिर हुँत=सिर से। बिसहर=विषधार, साँप। सकपकाहिं=हिलते डोलते हैं। लहकहिं=लहराते हैं, झपटते हैं। लुरहिं=लोटते हैं। फिरि फिरि भँवर=पानी के भँवर में चक्कर खाकर। बंदी=कैदी, बँधाुआ। ढुरत आछै=ढरता रहता है। झाँप=ढाँकती है।
(5) पत्राावलि=पत्राभंगरचना। पाटी=माँग के दोनों ओर बैठाए हुए बाल। उरेह=विचित्रा सजावट। बग=बगला। पूजै=पूजन करता है।
(6) मनियारी=कांतिमान, सोहावना। चुन्नी=चमकी या सितारे जो माथे या कपोलों पर चिपकाए जाते हैं। पारस जोति=ऐसी ज्योति जिससे दूसरी वस्तु को ज्योति हो जाय। सिरी=श्री नाम का आभूषण। ओप=चमक। पूजहिं=बराबरी को पहुँचते हैं।
(7) बेझ करै=बेधा करने के लिए। पनच=पतंचिका, धानुष की डोरी। बिड़ारा=नष्ट किया। धानुष जो बेधाा राहू=मत्स्यवेधा करने वाला अर्जुन का धानुष। आउ न लेखा=आयु को समाप्त समझा। बेह=बेधा, छेद।
(8) नैन चित्रा...चितेरा=नेत्राों का चित्रा इस रूप से चित्रिात हुआ है। चितेरा=चित्रिात किया गया। बहोरि बहोरी=फिर फिर। फिरि फिरि=घूम घूमकर। मते=सलाह करने में। ऍंग सेत...ओही=ऑंखों के सफेद डेले और काली पुतलियाँ। लाल=लालसा।
(9) कीरू=तोता। सोहिल तारा=सुहेल तारा जो चंद्रमा के पास रहता है। बिगसि फूल...चढ़ा=फूल जो खिलते हैं मानों उसी पर निछावर होने के लिए।
(10) काढ़े अधार...चीरा=जैसे कुश का चीरा लगा हो ऐसे पतले ओठ हैं। जौ खाँड़ै बीरा जब=बीड़ा चबाती है। जनु परभात...देख=मानों विकसित कमलमुख पर सूर्य की लाल किरणें पड़ी हों।
(11) ताके=दिखाई पड़े। मकोई=जंगली मकोय जो काली होती है। कित वै दसन...भीने=कहाँ से मैंने उन रंगभीने दाँतों को देखा।
(12) कोंप=कोंपल, नया कल्ला। साँती=शांति। माती=मात कर। बिरवा=पेड़। सूख=सूखा हुआ। पलुह=पनपता है, हरा होता है। बीन बिस्वासा=बीन समझकर।
(13) कुंदन सीपी=कुंदन की सीप (ताल के सीपों का आधाा संपुट)। अंबर=वस्त्रा। खूँट=कोना, ओर। खूँटी=खूँट नाम का गहना। कचपचिया=कृत्तिाका नक्षत्रा।
(14) पुहुप पंक=फूल का कीचड़ या पराग। कै करा=के रूप, के समान। बाएँ दिस्टि...होई=किसी की दृष्टि बाईं ओर न जाय क्योंकि वहाँ तिल है। गा गाड़ी=गड़ गया। दुइ पहार=अर्थात् कुच।
(15) कुंदै=खराद पर। कुँदेरै=कुँदेरे ने। करा=कला, शोभा। घिरिनि परेवा=गिरहबाज कबूतर। तमचूर=मुर्गा। तेइ सोइ ठाउँ...देखा=जो उसे देखता है वह उसी जगह ठक रह जाता है। जाति हिय चली=हृदय में बस जाती है। नागिनि=अर्थात् केश। कमंठ=कछुए के समान पीठ या खोपड़ी।
(16) डाँड़ी कँवल लाई=कमलनाल उलटकर रखा हो। करपल्लव=उँगली। साखि=साक्षी। कंकन हाथ...साखि=हाथ कंगन को आरसी क्या?
(17) कचोरा=कटोरा। पाट=सिंहासन। साम छत्रा=अर्थात् कुच का श्याम अग्रभाग। लटु=लट्टई। फूरी=फूली। साम=शाम (सीरिया) का मुल्क जो अरब के उत्तार है। घर=खाना, कोठा। गोटा=गोटी। पगार=प्राकार या परकोटे पर।(18) देख=देखा। खेले=चले गए। ब्रह्ममंडल=स्वर्ग।
(19) बेकरारा=बेचैन। डासहिं=बिछाती हैं। सौंर=चादर। फाँस=कड़ा तंतु। मकरि क तार=मकड़ी के जाले सा महीन। छिरि जाइ=छिल जाता है। पालँग पावँ‑‑‑पाटा=पैर या तो पलँग पर रहते हैं या सिंहासन पर। नेत=रेशमी कपड़े की चादर (सं. नेत्रा)।
(20) माहिं=भीतर (हृदय के)। जो जो मंदिर...देखी=अपने घर की जिन-जिन स्त्रिायों को पद्मावती समझ रखा था वे पद्मावती (कँवल) का वृत्ताांत सुनने पर कुमुदिनी के समान लगने लगीं। चूरू कै=तोड़कर। मलिन=हतोत्साह।
(21) पदारथ=बहुत उत्ताम बोल। परस पखाना=पारस पत्थर। सादूर=शार्दूल, सिंह। लागना=लगनेवाला, शिकार करनेवाला। गरजना=गरजनेवाला। रोझ=नीलगाय। सचान=बाज। सायर=समुद्र।
(22) जेंवा=दक्षिणा में। ताजन नाग=नाग का कोड़ा। करा=कला से, चतुराई से।