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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 11 अधिकार या कर्तव्य? पीछे     आगे

मैं आज उस बहुत बड़ी बुराई की चर्चा करना चाहता हूँ, जिसे समाज को मुसीबत में डाल रखा है। एक तरफ पूँजीपति और जमींदार अपने हकों की बात करते हैं, दूसरी तरफ मजदूर अपने हकों की। राजा-महाराजा कहते हैं कि हमें शासन करने का दैवी अधिकार मिला हुआ है, तो दूसरी तरफ उनकी रैयत कहती है कि उसे राजाओं के इस हक का विरोध करने का अधिकार है। अगर सब लोग सिर्फ अपने हकों पर ही जोर दें और फर्जों को भूल जाएँ, तो चारों तरफ बड़ी गड़बड़ी और अंधाधुंधी मच जाए।

अगर हर आदमी हकों पर जोर देने के बजाय अपना फर्ज अदा करे, तो मनुष्‍य-‍जाति में जल्‍दी की व्‍यवस्‍था और अमन का राज्‍य कायम हो जाए। राजाओं के राज करने के दैवी अधिकार जैसी या रैयत के इज्‍जत से अपने मालिकों का हुक्‍म मानने के नम्र कर्तव्‍य जैसी कोई चीज नहीं है। यह सच है कि राजा और रैयत के पैदाइशी भेद मिटने ही चाहिए, क्‍योंकि वे समाज के हित को नुकसान पहुँचाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि अभी तक कुचले और दबाकर रखे गए लाखों-करोड़ों लोगों के हकों का ढिठाई-भरा दावा भी समाज के हित को ज्‍यादा नहीं तो उतना ही नुकसान जरूर पहुँचाता है। उनके इस दावे से दैवी अधिकारों या दूसरे हकों की दुहाई देने वाले राजा-महाराजा या जमींदारों वगैरा के बनिस्‍बत करोड़ों, लोगों को ही ज्‍यादा नुकसान पहुँचेगा। ये मुट्ठीभर जमींदार, राजा-महाराजा, या पूँजीपति बहादुरी या बुजदिली से मर सकते है, लेकिन उनके मरने सी ही सारे समाज का जीवन व्‍यवस्थित, सुखी और संतुष्‍ट नहीं बन सकता। इसलिए यह जरूरी है कि हम हकों और फर्जो का आपसी संबंध समझ लें। मैं यह कहने की हिम्‍मत करूँगा कि जो हक पूरी तरह अदा किए गए फर्ज से नहीं मिलते, वे प्राप्‍त करने और रखने लायक नहीं हैं। वे दूसरों से छीन गए हक होंगे। उन्‍हें जल्‍दी-से-जल्‍दी छोड़ देने में ही भला है। जो अभागे माँ-बाप बच्‍चों के प्रति अपना फर्ज अदा किए बिना उनसे अपना हुक्‍म मनवाने का दावा करते हैं, वे बच्‍चों की नफरत को ही भड़काएँगे। जो बदचलन पति अपनी वफादार पत्‍नी से हर बात मनवाने की आशा करता है, वह धर्म के वचन को गलत समझता है; उसका एकतरफा अर्थ करता है। लेकिन जो बच्‍चे हमेशा फर्ज अदा करने के लिए तैयार रहने वाले माँ-बाप को जलील करते हैं, वे कृतघ्‍न समझे जाएँगे और माँ-बाप के मुकाबले खुद का ज्‍यादा नुकसान करेंगे। यही बात पति और पत्‍नी के बारे में भी कही जा सकती है। अगर यह सादा और सब पर लागू होने वाला कायदा मालिकों और मजदूरों, जमींदारों और किसानों, राजाओं और रैयत, या हिंदू और मुसलमानों पर लगाया जाए, जो हम देखेंगे कि जीवन के हर क्षेत्र में अच्‍छे-से-अच्‍छे संबंध कायम किए जा सकते हैं। और ऐसा करने से न तो हिंदुस्‍तान या दुनिया के दूसरे हिस्‍सों की तरह सामाजिक जीवन या व्‍यापार में किसी तरह की रुकावट आएगी और न गड़बड़ी पैदा होगी। मैं जिसे सत्‍याग्रह कहता हूँ वह नियम अपने-अपने फर्जों और उनके पालन से अपने-आप प्रकट होने वाले हकों के सिद्धांतों को बराबर समझ लेने का नतीजा है।

एक हिंदू का अपने मुसलमान पड़ोसी के प्रति क्‍या फर्ज होना चाहिए? उसे चाहिए कि वह एक मनुष्‍य के नाते उससे दोस्‍ती करे और उसके सुख-दु:ख में हाथ बँटाकर मुसीबत में उसकी मदद करे। तब उसे अपने मुसलमान पड़ोसी से ऐसे ही बरताव की आशा रखने का हक प्राप्‍त होगा। और शायद मुसलमान भी उसके साथ वैसा ही बरताव करें जिसकी उसे उम्‍मीद हो। मान लीजिए कि किसी गाँव में हिंदुओं की तादाद बहुत ज्‍यादा है और मुसलमान वहाँ इने-गिने ही हैं, तो उस ज्‍यादा तादाद वाली जाति की अपने थोड़े से मुसलमान पड़ोसियों की तरफ की जिम्‍मेदारी कई गुनी बढ़ जाती है। यहाँ तक कि उन्‍हें मुसलमानों को यह महसूस करने का मौका भी न देना चाहिए कि उनके धर्म के भेद की वजह से हिंदू यह हक हासिल कर सकेंगे कि मुसलमान उनके सच्‍चे दोस्‍त बन जाएँ और खतरे के सयक दोनों कौमें एक होकर काम करें। लेकिन मान लीजिए कि वे थोड़े से मुसलमान ज्‍यादा तादाद वाले हिंदुओं के अच्‍छे बरताव के बावजूद उनसे अच्‍छा बरताव नहीं करते और हर बात में लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं, यह उनकी कायरता होगी। तब उन ज्‍यादा तादाद वाले हिंदुओं का क्‍या फर्ज होगाᣛ? बेशक, बहुमत की अपनी दानवी शक्ति से उन पर काबू पाना नहीं। यह तो बिना हासिल किए हुए हक को जबरदस्‍ती छीनना होगा। उनका फर्ज यह होगा कि वे मुसलमानों के अमानुषिक बरताव को उसी तरह रोकें, जिस तरह वे अपने सगे भाइयों के ऐसे बरवात को रोकेंगे। इस उदाहरण को और ज्‍यादा बढ़ाना मैं जरूरी नहीं समझता। इतना कहकर मैं अपनी बात पूरी करता हूँ कि जब हिंदुओं की जगह मुसलमान बहुमत में हों और हिंदू सिर्फ इने-गिने हों, तब भी बहुमत वालों को ठीक‍ इसी तरह का बरवात करना चाहिए। जो कुछ मैंने कहा है उसका मोजूदा हालत में हर जगह उपयोग करके फायदा उठाया जा सकता हैं। मौजूदा हालत घबड़ाहट पैदा करने वाली बन गई है, क्‍योंकि लोग अपने बरताव में इस सिद्धांत पर अमल नहीं करते कि कोई फर्ज पूरी तरह अदा करने के बाद ही हमें उससे संबंध रखने वाला हक हासिल होता है।

यही नियम राजाओं और रैयत पर भी लागू होता है। राजाओं का फर्ज है वे रिआया के सच्‍चे सेवकों की तरह काम करें। वे किसी बाहरी सत्‍ता के दिए हुए हकों के बल पर राज्‍य नहीं करेंगे औ तलवार के जोर से तो कभी नहीं। वे सेवा से हासिल किए गए हक से और खुद को मिली हुई विशेष बुद्धि के हक से राज्‍य करेंगे। तब उन्‍हें खुशी से दिए जाने वाले टैक्‍स वसूल करने का और उतनी ही राजी-खुशी से की जाने वाली कुछ सेवाएँ लेने का हक हासिल होगा। और यह टैक्‍स वे अपने लिए नहीं बल्कि अपने आश्रय में रहले वाली प्रजा के लिए वसूल करेंगे। अगर राजा लोग इस सादे और बुनियादी फर्ज को अदा करने में असफल रहते हैं, तो प्रजा के उनके प्रति रहने वाले सारे फर्ज ही खतम नहीं हो जाते, बल्कि प्रजा का यह फर्ज हो जाता है कि वह राजाओं की मनमानी चालों का मुकाबला करे। दूसरे शब्‍दों में यों कहा जा सकता है कि प्रजा राजाओं के बुरे शासन या मनमानी का मुकाबला करने का हक हासिल कर लेती है। अगर हमारा मुकाबला हत्‍या, बरबादी और लूट-मार का रूप ले ले, तो फर्ज के नाते यह कहा जाएगा कि वह मुकाबला मनुष्‍य-जाति के खिलाफ एक गुनाह बन जाता है। जो शक्ति कुदरती तौर पर फर्ज को अदा करने से पैदा होती है, वह सत्‍याग्रह से पैदा होने वाली और किसी से न जीती जा सकने वाली अहिंसक शक्ति होती है।


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