ग्रामोद्योगों का यदि लोप हो गया, तो भारत के 7 लाख गाँवों का सर्वनाश ही समझिए।
ग्रामोद्योग-संबंधी मेरी प्रस्तावित योजना पर इधर दैनिक पत्रों में जो टीकाएँ हुई हैं उन्हें मैंने पढ़ा है। कई पत्रों ने तो मुझे यह सलाह दी है कि मनुष्य की अंवेषण-बुद्धि ने प्रकृति की जिन शक्तियों को अपने वश में कर लिया है, उनका उपयोग करने से ही गाँवों की मुक्ति होगी। उन आलोचकों का यह कहना है कि प्रगतिशील पश्चिम में जिस तरह पानी, हवा, तेल और बिजली का पूरा-पूरा उपयोग हो रहा है, उसी तरह हमें भी इन चीजों को काम में लाना चाहिए। वे कहते हैं कि इन गुप्त प्राकृतिक शक्तियों पर कब्जा कर लेने से प्रत्येक अमेरिका-वासी 33 गुलामों रख सकता है, अर्थात् 33 गुलामों का काम वह इन शक्तियों के द्वारा ले सकता है।
इस रास्तें अगर हम हिंदुस्तान में चले, तो मैं यह बेधड़क कह सकता हूँ कि प्रत्येक मनुष्य को 33 गुलाम मिलने के बजाय इस मुल्क के एक-एक मनुष्य की गुलामी 33 गुनी बढ़ जाएगी।
यंत्रों से काम लेना उसी अवस्था में अच्छा होता है, जब कि किसी निर्धारित काम को पूरा करने के लिए आदमी बहुत ही कम हो, या नपे-तुले हों। पर यह बात हिंदुस्तान में तो है नहीं। यहाँ काम के लिए जितने आदमी चाहिए, उनसे कहीं अधिक बेकार पड़े हुए है। इसलिए उद्योगों के यंत्रीकरण से यहाँ की बेकारी घटेगी या बढ़ेगी? कुछ वर्गगज जमीन खोदने के लिए मैं हल का उपयोग नहीं करूँगा। हमारे यहाँ सवाल यह नहीं हे कि हमारे गाँवों में जो लाखों-करोड़ों आदमी पड़े हैं उन्हें परिश्रम की चक्की से निकालकर किस तरह छुट्टी दिलाई जाए, बल्कि यह है कि उन्हें साल में जो कुछ महीनों का समय यों ही बैठे-बैठे आलस में बिताना पड़ता है उसका उपयोग कैसे किया जाए। कुछ लोगों को मेरी यह बात शायद विचित्र लगेगी, पर दरअसल बात यह है कि प्रत्येक मिल सामान्यत: आज गाँवों की जनता के लिए त्रास रूप हो रही है। उनकी रोजी पर ये मायाविनी मिलें छापा मार रही है। मैंने बारीकी से आंकड़े एकत्र नहीं किए हैं, पर इतना तो मैं कह ही सकता हूँ कि गाँवों में बैठकर कम-से-कम दस मजदूर जितना काम करते हैं उतना ही काम मिल का एक मजदूर करता है। इसे यों भी कह सकते है कि दस आदमियों की रोजी छीनकर यह एक आदमी गाँव में जितना कमाता था उससे कहीं अधिक कमा रहा है। इस तरह कताई और बुनाई की मिलों ने गाँवों के लोगों की जीविका का एक बड़ा भारी साधन छीन लिया है।
ऊपर की दलील का यह कोई जवाब नहीं है कि ये मिलें जो कपड़ा तैयार करती हैं वह अधिक अच्छा और काफी सस्ता होता है। कारण यह है कि इन मिलों ने अगर हजारों मजदूरों का धंधा छीनकर उन्हें बेकार बना दिया है, तो सस्ते-से-सस्ता मिल का कपड़ा गाँवों की बनी हुई महँगी-से-महँगी खादी से भी ज्यादा महँगा है। कोयले की खान में काम करने वाले मजदूर जहाँ रहते हैं वहीं वे कोयले का उपयोग अपनी जरूरत भर के लिए खुद खादी बना लेता है, उसे वह महँगी नहीं पड़ती। पर मिलों का बना कपड़ा अगर गाँवों के लोगों को बेकार बना रहा है, तो चावल कूटने ओर आटा पीसने की मिलें हजारों स्त्रियों की न केवल रोजी ही छीन रही हैं, बल्कि बदले में तमाम जनता के स्वास्थ्य को हानि भी पहुँचा रही हैं। जहाँ लोगों को माँस खाने में कोई आपत्ति न हो और जहाँ माँसाहार पुसाता हो, वहाँ मैदा और पॉलिशदार चावल से शायद हानि न होती हो। लेकिन हमारे देश में, जहाँ करोड़ों आदमी ऐसे हैं जो माँस मिले तो खाने में आपत्ति नहीं करेगे, पर जिन्हें माँस मिलता ही नहीं, उन्हें हाथ की चक्की के पिसे हुए गेहुँ के आटे और हाथ-कुटे चावल के पौष्टिक तथा जीवनप्रद सत्त्वों से वंचित रखना एक प्रकार का पाप है। इसलिए डॉक्टरों तथा दूसरे आहार-विशेषज्ञों को चाहिए कि मैदे और मिल के कुटे पॉलिशदार चावल से लोगों के स्वास्थ्य की जो हानि हो रही है उससे वे जनता को आगाह कर दें।
मैंने सहज ही नजर में आने वाली जो कुद मोटी-मोटी बातों की तरफ यहाँ ध्यान खीचा है, उसका उद्देश्य यही है कि अगर ग्रामवासियों को कुछ काम देना है तो वह यंत्रों के द्वारा संभव नहीं। उनके उद्धार का सच्चा मार्ग तो यही है कि जिन उद्योग-धंधों को वे अब तक किसी कदर करते चले आ रहे हैं, उन्हीं को भलीभाँति जीवित किया जाए।
ग्रामोद्योगों की योजना के पीछे मेरी कल्पना तो यह है कि हमें अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताएँ गाँवों की बनी चीजों से ही पूरी करनी चाहिए; और जहाँ यह मालूम हो कि अमुक चीजें गाँवों में मिलती ही नहीं, वहाँ हमें यह देखना चाहिए कि उन चीजों को थोड़े परिश्रम और संगठन से बनाकर गाँव वाले उनसे कुछ मुनाफा उठा सकते हैं या नहीं। मुनाफे का अंदाज लगाने में हमें अपना नहीं, किंतु गाँव वालों का खयाल रखना चाहिए। संभव है कि शुरू में हमें साधारण भाव से कुछ अधिक देना पड़े और चीज हलकी मिले। पर अगर हम उन चीजों के बनाने वालों के काम में रस लें और यह आग्रह रखें कि वे बढ़िय-से-बढ़िया चीजें तैयार करें, और सिर्फ आग्रह ही नहीं रखे बल्कि उन लोगों को पूरी मदद भी दें, तो यह हो नहीं सकता कि गाँवों की बनी चीजों में दिन-दिन तरक्की न होती जाए।
मैं कहूँगा कि अगर गाँवों का नाश होता है तो भार का भी नाश हो जाएगा। उस हालत में भारत नहीं रहेगा। दुनिया को उसे जो संदेश देना है उस संदेश को वह खो देगा।
गाँवों में फिर से जान तभी आ सकती है, तब वहाँ की लूट-खसोट रुक जाए। बड़े पैमारे पर माल की पैदावार जरूर ही व्यापारिक प्रतिस्पर्धा तथा माल निकालकर की धुन के साथ-साथ गाँवों की प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से होने वाली लूट के लिए जिम्मेवार है। इसलिए हमें इस बात की सबसे ज्यादा कोशिश करनी चाहिए कि गाँव हर बात में स्वावलंबी और स्वयं पूर्ण हो जाए। वे अपनी जरूरतें पूरी करने भर के लिए चीजें तैयार करें। ग्रामोद्योग के इस अंग की अगर अच्छी तरह रक्षा की जाए, तो फिर भले ही देहाती लोगा आजकल के उन यंत्रों और औजारों से भी काम ले सकते हैं, जिन्हें वे बना और खरीद सकते हैं। शर्त सिर्फ यही है कि दूसरों को लूटने के लिए उनका उपयोग नहीं होना चाहिए।
सच तो यह है कि हमें गाँवों वाला भारत और शहरों वाला भारत, इन दो में से एक को चुन लेना है। गाँव उतने ही पुराने हैं जितना कि यह भारत पुराना है। शहरों को विदशी आधिपत्य मिट जाएँगा, तब शहरों को गाँवों के मातहत होकर रहना पड़ेगा। आज तो शहरों का बोलबाला है और वे गाँवों की सारी दौलत खींच लेते हैं। इससे गाँवों का ह्रास और नाश हो रहा है। गाँवों का शोषण खुद एक संगठित हिंसा है। अगर हमें स्वराज्य की रचना अहिंसा के पाए पर करनी है, तो गाँवों को उनका उचित स्थान देना होगा।
खादी
मेरा विचार में हिंदुस्तान की समस्त जनता की एकता की, उसकी आर्थिक स्वतंत्रता और समानता की प्रतीक है, और इसलिए जवाहरलाल के काव्यमय शब्दों में कहूँ तो वह 'हिंदुस्तान की आजादी की पोशक' है।
इसके सिवा, खादीवृत्ति का अर्थ है, जीवन के लिए जरूरी चीजों की उत्पत्ति और उनके बँटवारे का विकेंद्रीकरण। इसलिए अब तक जो सिद्धांत बना है वह यह है कि हर एक गाँव को अपनी जरूरत की सब चीजें खुद पैदा कर लेनी चाहिए, और शहरों की जरूरतें पूरी करने के लिए कुछ अधिक उत्पत्ति करनी चाहिए।
अलबत्ता, बड़े-बड़े उद्योग-धंधों को तो एक जगह केंद्रित करके राष्ट्र के अधीन रखना होगा। लेकिन समूचा देश मिलकर गाँवों में जिन बड़े-बड़े आर्थिक उद्योगों को चलाएगा, उनके सामने ये कोई चीज न रहेंगे।
खादी के उत्पादन में ये काम शामिल हैं कपास बोना, कपास चुनना, उसे सूत को माँड़ लगाना, सूत रंगना, उसका ताना भरना और बाना तैयार करना, सूत बुनना और कपड़ा धोना। इनमें से रंगसाजी को छोड़कर बाकी के सारे काम खादी के सिलसिले में जरूरी और महत्त्व के हैं, और उन्हें किए बिना काम नहीं चल सकता। इनमें से हर एक काम गाँवों में अच्छी तरह हो सकता है; और सच तो यह है कि अखिल भारत चरखा-संघ समूचे हिंदुस्तान के जिन कई गाँवों में काम कर रहा है, वहाँ ये सारे काम आज हो रहे हैं।
जब से गाँवों में चलने वाले अनेक उद्योगों में से इस मुख्य उद्योग का और इसके आस-पास जुड़ी हुई कई दस्तकारियों का बिना सोचे-समझे, मनमाने तरीके से और बेरहमी के साथ नाश किया गया है, तब से हमारे गाँवों की बुद्धि और तेज नष्ट हो गया है। वे सब निस्तेज और निष्प्राण बन गए हैं, और उनकी हालत उनके अपने भूखों मरने वाले मरियल ढोरों की-सी हो गई है।
दूसरे ग्रामोद्योग
खादी के मुकाबले देहात में चलने वाले और देहात के लिए जरूरी दूसरे धंधों की बात अलग है। उन सब धंधों में अपनी राजी-खुशी से मजदूरी करने की बात उपयोगी होने जैसी नहीं हैं। फिर, उनमें से हर एक धंधा या उद्योग ऐसा है, जिसमें एक खाद तादाद में ही लोगों को मजदूरी मिल सकती है। इसलिए ये उद्योग खादी के मुख्य काम में सहायक हो सकते हैं। खादी के अभाव में उनकी कोई हस्ती नहीं, और उनके बिना खादी का गौरव या शोभा नहीं है। हाथ से पीसना, हाथ से कूटना और पछारना, साबुन बनाना, कागज बनाना, चमड़ा कमाना, तेल पेरना और इस तरह के सामाजिक जीवन के लिए जरूरी और महत्त्व के दूसरे धंधों के बिना गाँवों की आर्थिक रचना संपूर्ण नहीं हो सकती, यानी गाँव स्वयंपूर्ण घटक नहीं बन सकते। कांग्रेसी आदमी इन सब धंधों में दिलचस्पी लोगा, और अगर वह गाँव का बाशिंदा होगा या गाँव में जाकर रहता होगा, तो इन धंधों में में नई जान फूँकेगा और इन्हें नए रास्ते ले जाएगा। हर एक आदमी को, हर हिंदुस्तानी को, इसे अपना धर्म समझना चाहिए कि जब-जब और जहाँ-जहाँ मिले, वहाँ वह हमेशा गाँवों की बनी चीजें ही बरते। अगर ऐसी चीजों की माँग पैदा हो जाए, तो इसमें जरा भी शक नहीं कि हमारी ज्यादातर जरूरतें गाँवों से पूरी हो सकती हैं। जब हम गाँवों के लिए सहानुभूति से सोचने लगेंगे और गाँवों की बनी चीजें हमें पसंद आने लगेंगी, तो पश्चिम की नकल के रूप में यंत्रों की बनी चीजें हमें नहीं जँचेंगी; और हम ऐसी राष्ट्रीय अभिरुचि का विकास करेंगे, जो गरीबों, भुखमारी और आलस्य या बेकारी से मुक्त नए हिंदुस्तान के आदर्श के साथ मेल खाती होगी।
मिश्र खाद
भारत की जनता इस प्रयत्न में खुशी से सहयोग करे, तो यह देश न सिर्फ अनाज की कमी को पूरा कर सकता है, बल्कि हमें जितना चाहिए उससे कहीं ज्यादा अनाज पैदा कर सकता है। यह जीवित खाद (आरगेनिक मैन्युर) जमीन के उपजाऊपन को हमेशा बढ़ाता ही है, तभी कम नहीं करता। हर दिन जो कूड़ा-कचरा इकटठा होता है उसे ठीक विधि के अनुसार गड्ढों में इकटठा किया जाए, तो उसका सुनहला खाद बन जाता है; और बत उसे खेत की जमीन में मिला दिया जाए तो उससे अनाज की उपज कई गुनी बढ़ जाती है और फलत: हमें करोड़ों रुपयों की बचत होती है। इसके सिवा कूड़े-कचरे का इस तरह खाद बनाने के लिए उपयोग कर लिया जाए, तो आस-पास की जगह साफ रहती है। और स्वच्छाता एक सद्गुण होने के साथ-साथ स्वास्थ्य की पोषक भी है।
गाँवों में चमड़े का धंधा
हमारे गाँवों का चमड़े का धंधा उतना ही प्राचीन है जितना कि स्वयं भारतवर्ष। यह कोई नहीं बतला सकता कि चमड़ा कमाने का यह धंधा कब अनादर की चीज समझा जाने लगा। प्राचीन काल में तो यह बात हुई नहीं होगी। लेकिन हम जानते हैं कि आज हमारे यहाँ के इस अत्यंत जरूरी और उपयोगी उद्योग ने संभवत: दस लाख आदमियों को पुश्तैनी अछूत बना दिया है। व कुदिन ही होबा जिस दिन से इस अभागे देश में परिश्रम को लोग घृणा की दृष्टि से देखने लगे। और इस प्रकार उसकी उपेक्षा करने लगे होंगे। लाखों-करोड़ों मनुष्य, जो दुनिया के हीरे थे और जिनके उद्योग पर यह देश जी रहा था, नीच समझे जाने लगे। और ऊपर से बड़े दीखने वाले थोड़े से अहदी आदमियों का वर्ग प्रतिष्ठित समझा जाने लगा! इसका दु:ख परिणाम यह हुआ कि भारत को नैतिक और आर्थिक दोनों ही प्रकार की भारी क्षति पहुँची। यह हिसाब लगाना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है कि इन दोनों में से कौन-सी हानि बड़ी थी। किंतु किसानों कारीगरों के प्रति बताई गई अपराध पूर्ण लापरवाही ने हमें दरिद्र, मूढ़ और काहिल बनाकर ही छोड़ा। भारत के पास कौन से साधन हीं है? उसका सुंदर जलवायु, उसके गगनचुंबी पर्वत, उसकी विशाल नदियाँ और उसका विस्तृत समुद्र-ये सब ऐसे असीम साध हैं कि अगर इन सबका पूरा-पूरा उपयोग किया जाए, तो इस स्वर्ण देश में दारिद्रय और रोग आएँ ही क्यों? पर जब से हमने शारीरिक श्रम से बुद्धि का संबंध छुड़ाया, तब से हमारी कौम का सब तरह से पतन हो गया; दुनिया में आज हम सबसे अल्पजीवी, निपट साधनहीन और अत्यंत पराजित प्रजा माने जाते हैं। चमड़े के देशी धंधे की आज जो हालत है, वह शायद मेरे इस कथन का सबसे अच्छा सबूत है।
हिसाब लगाकर देखा गया है कि नौ करोड़ रुपए का कच्चा चमड़ा हर साल हिंदुस्तान से बाहर जाता है और वह सबका सब बनी-बनाई चीजों के रूप में फिर यहाँ वापस आ जाता है। यह यह देश का सिर्फ आर्थिक ही नहीं बौद्धिक शोषण भी है। चमड़ा कमाने और अपने नित्य के उपयोग में आने वाली उसकी अनगिनत चीजें बनाने की शिक्षा हमें आज कहाँ मिल रहीं है?
यहाँ शत-प्रतिशत स्वदेशी-प्रेमी के लिए काफी काम पड़ा हुआ है। साथ ही एक बहुत बड़े सवाल को हल करने में जिस वैज्ञानिक ज्ञान की आवश्यकता है उसे काम में लाने का क्षेत्र भी मौजूद है। इस एक काम से ती अर्थ सधते है। और तीसरे मध्यमवर्ग के जो बुद्धिशाली लोग रोजगार-धंधे की खोज में बेकार फिरते हैं, उन्हें जीविका का एक प्रतिष्ठित साधन मिल जाता है। और यह लाभ तो जुदा ही है कि गाँव की जनता के सीधे संसर्ग में आने का भी उन्हें सुंदर अवसर मिलता है।
आरंभ कैसे करे?
बहुत से सज्जन तो पत्र लिख-लिखकर और अनेक मित्र खुद मुझसे मिलकर यह प्रश्न पूछ रहे है कि किस प्रकार हम ग्रामोद्योग-कार्य का आरंभ करें और सबसे पहले किस चीज को हाथ में लें।
इसका स्पष्ट उत्तर तो यही है कि 'इस कार्य का श्रीगणेश आप खुद ही करें, और सबसे पहले उसी काम को हाथ में ले, जो आपको आसान-से-आसान जान पड़े।
पर इस सूत्रात्मक उत्तर से पूछताछ करने वालों को संतोष थोड़े ही होता है। इसलिए इसे मैं जरा और स्पष्ट कर दूँ। हममें से हर एक आदमी खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने और अपने नित्य के उपयोग की चीजों को जाँच-परख सकता है, और विलायती अथवा शहर की बनी चीजों की जगह ग्रामवासियों की बनाई हुई उन चीजों को काम में ला सकता है जिन्हें कि वे अपनी मढ़ैया में या खेत-खलिहान में चार-छह पैसे के मामूली औजारों से सहज ही तैयार कर सकते हैं। इन औजारों को वे लोग आसानी से चला सकते हैं और बिगड़ जाएँ तो उन्हें सुधार भी सकते हैं। विदेशी या शहर की बनी चीजों की जगह गाँवों की बनीं चीजों को आप काम में लाने लगें, तो ग्रामोद्योग-कार्य का यह बड़ा अच्छा आरंभ होगा, और आपके लिए यह खुद ही एक बड़े महत्त्व की चीज होगी। इसके बाद फिर क्या करना होगा, यह तो आप ही मालूम हो जाएगा। मान लीजिए कि आज तक कोई आदमी बंबई के किसी कल-कारखाने में बने टूथब्रश से दाँत साफ करता आ रहा है। अब उसकी जगह वह गाँव का बना टूथब्रश चाहता है। तो उसे बबूल या नीम की दातौन से दाँत साफ करने की सलाह दें। अगर उसके दाँत साफ कमजोर हैं या दाँत हैं ही नहीं, तो वह दातौन का एक सिरा तो लोढ़ी या हथौड़ी से कुचल ले और दूसरे सिरे को चीरकर उसकी फाँकों से जीभी का काम ले। दातौन का यह ब्रश सस्ता भी काफी पड़ेगा और कारखानों के बने हुए स्वच्छा ब्रशों से स्वच्छ भी अधिक होगा। शहरों के बने दंत-मंजन को वह छुएगा ही नहीं। वह तो लकड़ी के कोयले को खूब महीन पीसकर और उस में थोड़ा-सा साफ नमक मिलाकर अपने घर में ही बढ़िया मंजन तैयार कर लेगा। मिल के बने कपड़े के बजाय वह गाँव की बुनी खादी पहनेगा, मिल के दले चावल कली जगह हाथ के दले बिना पॉलिश किए चावल का और सफेद शक्कर के स्थान पर गाँव के बने गुड़ का उपयोग करेगा। इन चीजों को मैंने यहाँ बतौर नमूने के ही दिया है और इनकी चर्चा यद्यपि मैं 'हरिजन सेवक' में पहले कर चुका हूँ तो भी इस विषय पर मेरे साथ जिन लोगों की लिखा-पढ़ी या बातचीत चल रहीं है, उनकी बताई हुई कठिनाइयों को दृष्टि में रखकर मैंने पुन: खादी, चावल और गुड़ का यहाँ उल्लेख किया है।