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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 29 चरखे का संगीत पीछे     आगे

मैं जितनी बार चरखे पर सूत निकालता हूँ उतनी ही बार भारत के गरीबों का विचार करता हूँ। भूख की पीड़ा से व्‍यथित और पेट भरने के सिवा और कोई इच्‍छा न रखने वाले मनुष्‍य के लिए उसका पेट ही ईश्‍वर है। उसे जो रोटी देता है वही उसका मालिक है। उसके द्वारा वह ईश्‍वर के भी दर्शन कर सकता है। ऐसे लोगों को, जिनके हाथ-पैर सही-सलामत हैं, दान देना अपना और उनका दोनों का पतना करना है। उन्‍हें तो किसी-न-किसी तर‍ह के धंधे की जरूरत है; और वह धंधा, जो करोड़ो को काम देगा, केवल हाथ-‍कताई का ही हो सकता है। ... इसलिए मैंने कताई को प्रायश्चित या यज्ञ बताया है। और चूँकि मैं मानता हूँ कि जहाँ गरीबों के लिए युद्ध और सक्रिय प्रेम है वहाँ ईश्‍वर भी है, इसलिए चरखे पर मैं जो सूत निकालता हूँ उसके एक-एक धागे में मुझे ईश्‍वर दिखाई देता है।

मेरा पक्‍का विश्‍वास है कि हाथ-कताई और हाथ-बुनाई के पुनरुज्‍जीवन से भारत के आर्थिक और नैतिक पुनरुद्धार में सबसे बड़ी मदद मिलेगी। करोड़ों आदमियों को खेती की आय में वृद्धि करने के लिए कोई सादा उद्योग चाहिए। बरसों पहले वह गृह-उद्योग कताई का था; और करोड़ो को भूखों मरने से बचाना हो तो उन्‍हें इस योग्‍य बनाना पड़ेगा कि वे अपने घरों में फिर से कताई जारी कर सकें और हर गाँव को अपना ही बुनकर फिर से मिल जाए।

जब मैं सोचता हूँ कि यज्ञार्थ किए जाने वाले शरीर-श्रम का सबसे अच्‍छा और सबको स्‍वकार्य रूप क्‍या होगा, तो मुझे कताई के सिवा और कुछ नहीं सूझता। मैं इससे ज्‍यादा उदात्‍त और ज्‍यादा राष्‍ट्रीय किसी दूसरी चीज की कल्‍पना नहीं कर सकता कि प्रतिदिन एक घंटा हम सब कोई ऐसा परिश्रम करें, जो गरीबों को करना ही पड़ता है, और इस तरह उनके साथ और उनके द्वारा सारी मानव-जाति के साथ अपनी एकता साधें। मैं भगवान की इससे अच्‍छी पूजा की कल्‍पना नहीं कर सकता उसके नाम पर मैं गरीबों के लिए गरीबों की ही तरह परिश्रम करूँ। चरखा दुनिया के धन का अधिक समानतापूर्ण बँटवारा सिद्ध करता है।

मैं... चरखे के लिए इस सम्‍मान का दावा करता हूँ कि वह हमारी गरीबी की समस्‍या को लगभग बिना कुछ खर्च किए और बिना किसी दिखावे के अत्यंत सरल और स्‍वाभाविक ढँग से हल कर सकता है। इसलिए चरखा न केवल निरुपयोगी नहीं हैं... बल्कि वह एक ऐसी आवश्‍यक चीज है जो हर एक घर में होनी चाहिए। वह राष्‍ट्र की समृद्धि का और इसलिए उसकी आजादी का चिह्न है।

चरखा व्‍यापारिक युद्ध की नहीं, व्‍यापारिक शांति की निशानी है। उसका संदेश संसार के राष्‍ट्रों के लिए दुर्भाव का नहीं, परंतु सद्भाव का और स्‍वावलंबन का है। उसे संसार की शांति के लिए खतरा बनने वाली या उसके साधनों का शोषण करने वाली किसी जल सेला के संरक्षण की जरूरत नहीं होगी, परंतु उसे जरूरत होगी ऐसे लाखों लोगों के धार्मिक निश्‍चय की, जो अपने-अपने घरों में उसी तरह सूत कात लें जैसे आज वे अपने-अपने घरों में भोजन बना लेते हैं। मैंने करने के काम न करके ऐसी अनेक भूले की हैं, जिनके लिए मैं भावी संतान के शाप भाजन बन सकता हूँ। मगर मुझे विश्‍वास है कि चरखे का पुनरुद्धार सुझाकर तो मैं उनके आशीर्वाद का ही अधिकारी बना हूँ। मैंने उस पर सारी बाजी लगा दी हैं, क्‍योंकि चरखे के हर तार में शांति, सद्भाव और प्रेम की भावना भीर है और चूँकि चरखे की छोड़ देने से हिंदुस्‍तान गुलाम बना है, इसलिए चरखे के सब फलितार्थों के साथ उसके स्‍वेच्‍छापूर्ण पुनरुद्धार का अर्थ होगा हिंदुस्‍तान की स्‍वतंत्रता।

कताई के पक्ष में जो दावे किए जाते हैं वे ये हैं :

1. जिन लोगों को फुरसत है और जिन्‍हें थोड़े से पैसों की भी जरूरत है, उन्‍हें इससे आसानी से रोजगार मिल जाता है;

2. इसका हजारों को ज्ञान है;

3. यह आसानी से सीखी जाती है;

4. इसमे लगभग कुछ भी पूँजी लगाने की जरूरत नही होती;

5. चरखा आसानी से और सस्‍ते दामों में तैयार किया जा सकता है। हममे से अधिकांश को यह मालूम नहीं है कि कताई एक ठीकरी और बाँस की खपच्‍ची से यानी तकली पर भी की जा सकती है;

6. लोगों को इससे अरुचि नहीं है;

7. इससे अकाल के समय तात्‍कालिक राहत मिल जाती है;

8. विदेशी कपड़ा खरीदने से भारत का जो धन बाहर चला जा रहा है, उसे यही रोक सकती है;

9. इससे करोड़ो रुपयों की जो बाचत होती है, वह अपने-आप सुपात्र गरीबों में बँट जाती है;

10. इसकी छोटी-से-छोटी सफलता से भी लोगों को बहुत कुछ तात्‍कालिक लाभ होता है;

11. लोगों में सहयोग पैदा करने का यह अत्‍यंत प्रबल साधन है।

अब आलोचक यह पूछेगा कि 'अगर हाथ-कताई में वे सब गुण हैं जो आप बताते हैं, तो क्‍या बात है कि अभी तक वह सब जगह नहीं अपनाई गई है?' प्रश्‍न बिलकुल न्‍यायपूर्ण है। उत्‍तर सीधा है। चरखे का संदेश ऐसे लोगों के पास पहुँचाना है, जिनमें कोई आशा, कोई आरंभ-शक्ति रह नहीं गई है और जिन्‍हें यों ही छोड़ दिया जाए तो भूखों मर जाना मंजूर है, परंतु काम करके जिंदा रहना मंजूर नहीं। पहले यह हाल नहीं था, परंतु लंबी उपेक्षा ने आलस्‍य को उनकी आदत बना दिया है। यह आलस्‍य ऐसे चरित्रवान और उद्योगी मनुष्‍यों के सजीव संपर्क से ही मिटाया जा सकता है, जो उनके सामने चरखा चलाएँ और उन्‍हें प्रेमपूर्वक रास्‍ता दिखाएँ। दूसरी बड़ी कठिनाई खादी के लिए यह है कि उसकी तुरंत बिक्री नहीं होती। मैं स्‍वीकार करता हूँ‍ कि फिलहाल वह मिल के कपड़े के साथ स्‍वर्धा नहीं कर सकती। मैं ऐसी किसी घातक स्‍वर्धा में पड़ूँगा भी नही। पूँजीपति लोग बाजार पर कब्‍जा करने के लिए अपना माल मुफ्त में भी बेच सकते हैं। लेकिन जिस आदमी की एकमात्र पूँजी श्रम है, वह ऐसा नहीं कर सकता। क्‍या जड़ कृत्रिम गुलाब में-फिर वह कितना ही सुंदर और सुडौल हो-और जीवित कुदरती गुलाब में, जिसकी कोई दो पंखुंड़िया समान नहीं होतीं, कोई तना हो सकती है? खादी सजीव वस्‍तु है। लेकिन हिंदुस्‍तान ने सच्‍ची कला की परख खो दी है। इसलिए वह बाहरी कृत्रिम सुंदरता से संतुष्‍ट हो जाता है। उस स्‍वस्‍थ राष्‍ट्रीय सुरुचि को फिर से जगाइए और भार का हर गाँव उद्योगों से गूँजने लगेगा। अभी तो खादी-संस्‍थाओं को अपनी अधिकांश शक्ति खादी बेचने में ही लगानी पड़ती है। अद्भुत बात यह है कि भारी कठिनाइयाँ होते हुए भी यह आंदोलन आगे बढ़ रहा है।

मैं हाथ-कताई के पक्ष में ऊपर जो कुछ कहा है, उससे किसी तरह का विचार-भ्रम नहीं होना चाहिए। मैं हाथ-करघे के विरुद्ध नहीं हूँ वह एक महान और फलता-फूलता गृह-उद्योग है। अगर चरखा सफल हुआ तो हाथ-करघे की प्रगति अपने-आप होगी। अगर चरखा असफल हुआ तो हाथ-करघा मरे बिना नहीं रहेगा।

चरखा मुझे जन-साधारण की आशाओं का प्रतीक मालूम होता है। चरखे को खोकर उन्‍होंने अपनी आजादी, जैसी कुछ भी वह थी, खो दी। चरखा देहात की खेती की पूर्ति करता था और उसे गौरव प्रदान करता था। वह विधवाओं का मित्र और सहारा था। वह देहातियों को आलस्‍य से बचाता था, क्‍योंकि चरखें में पहले और पीछे के सब उद्योग-लोढ़ाई, पिंजाई, ताना करना, माँड़ लगाना रंगाई और बुनाई-आ जाते थे। और इनमें गाँव के बढ़ई और लुहार काम में लगे रहते थे। चरखे से सात लाख गाँव आत्‍म -निर्भर रहते थे। चरखे के चले जाने पर तेलघानी आदि दूसरे ग्रामोद्योग भी खतम हो गए। इन धंधों की जगह और किसी धंधे ने नहीं ली इसलिए गाँवों के विविध धंधे, उनकी उत्‍पादक प्रतिभा और उनसे होने वाली थोड़ी आमदनी, सबका सफाया हो गया।

इसलिए अगर ग्रामीणों की फिर से अपनी स्थिति में वापस आना हो, तो सबसे स्‍वाभाविक बात जो सूझती है, वह यह है कि चरखे और उसके साथ लगी हुई बात बातों का पुनरुद्धार हो।

यह पुनरुद्धार तब तक नहीं हो सकता जब तक बुद्धि और देश-भक्ति वाले नि:स्‍वार्थ भारतीयों की एक सेना न हो और वह चरखे का संदेश देहातियों में फैलाने और उनकी निस्‍तेज आँखों में आशा और प्रकाश की किरण जगाने के लिए दत्‍तचित होकर काम न करने लगे। यह सही ढँग के सहयोग और प्रौढ़ शिक्षा का जबरदस्‍त प्रयत्‍न है। यह चरखे की शांत परंतु प्राणदायक गति की तरह ही एक शांत और निश्चित क्रांति को लाने वाला है।


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