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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 34 गाँवों की सफाई पीछे     आगे

श्रम और बुद्धि के बीच जो अलगाव हो गया है, उसके कारण हम अपने गाँवों के प्रति इतने लापरवाह हो गए हैं कि वह एक गुनाह ही माना जा सकता है। नतीजा यह हुआ है कि देश में जगह-जगह सुहावने और मनभावने छोटे-छोटे गाँवों के बदले हमें घूरे जैसे गँदे गाँव देखने को मिलते हैं। बहुत से या यों कहिए कि करीब-करीब सभी गाँवों में घुसते समय जो अनुभव होता है, उससे दिल को खुशी नहीं होती। गाँव के बाहर और आस-पास इतनी गंदगी होती है और वहाँ इतनी बदबू आती है कि अक्‍सर गाँव में जाने वालो को आँख मूँदकर और नाक दबाकर ही जाना पड़ता है। ज्‍यादातर कांग्रेसी गाँव के बा‍शिंदे होने चाहिए; अगर ऐसा हो तो उनका फर्ज हो जाता है कि वे अपने गाँवों को सब तरह से सफाई के नमूने बनाएँ। लेकिन गाँव वालों के हमेशा के यानी रोज-रोज के जीवन में शरीक होने या उनके साथ घुलने-मिलने को उन्‍होंने कभी अपना कर्त्‍तव्‍य माना ही नहीं। हमने राष्‍ट्रीय या सामाजिक सफाई को नतो जरूरी गुण माना, और न उसका विकास ही किया। यों रिवाज के कारण हम अपने ढँग से नहा भर लेते हैं मगर जिस नहीं, तालाब या कुंए के किनारे हम श्राद्ध या वैसी ही दूसरी कोई धार्मिक क्रिया करते हैं और जिन जलाशयों में पवित्र होने के विचार से हम नहाते हो, उनके पानी को बिगाड़ने या गन्‍दा करने में हमें कोई हिचक नहीं होती। हमारी इस कमजोरी को मैं एक बड़ा दुर्गुणमानता हूँ। इस दुर्गुण का ही यह नतीजा है कि हमारे गाँवों की और हमारी पवित्र नदियों के पवित्र तटों की लज्‍जाजनक दुर्दशा और गंदगी से पैदा होने वाली बीमारियां हमें भोगनी पड़ती हैं।

गाँवों में करने के कार्य ये है कि उनमें जहाँ-जहाँ कूड़े-करकट तथा गोबर के ढेर हों, वहाँ-वहाँ से उनको हटाया जाए और कुओं तथा तालाबों की सफाई की जाए। अगर कार्यकर्ता लोग नौकर रखे हुए भंगियों की भाँति खुद रोज सफाई का काम करना शुरू कर दें और साथ ही गाँव वालों को यह भी बतलाते रहें कि उनसे सफाई के कार्य में शरीक होने की आशा रखी जाती है, ताकि आगे चलकर अंत में सारा काम गाँव वाले स्‍वयं करने लग जाएँ, तो यह निश्चित है कि आगे या पीछे गाँव वालें इस कार्य में अवश्‍य सहयोग देने लगेंगे।

वहाँ के बजार तथा गलियों को सब प्रकार का कूड़ा-करकट हटाकर स्‍वच्‍छ बना लेना चाहिए। फिर उस कूड़े का वर्गीकरण कर देना चाहिए। उसमें से कुछ का तो खाद बनाया जा सकता है, कुछ को सिर्फ जीमन में गाड़ देना भर बस होगा और कछ हिस्‍सा ऐसा होगा कि जो सीधा संपत्ति के रूप में परिणत किया जा सकेगा वहाँ मिली हुई प्रत्‍येक हडडी एक बहुमूल्‍य कच्‍चा माल होगी, जिससे बहुत-सी उपयोग चीजें बनाई जा सकेंगी, या जिसे पीसकर कीमती खाद बनाया जा सकेगा। कपड़े के फटे-पुराने चिथड़ों तथा रद्दी कागजों से कागज बनाए जा सकते हैं और इधर-उधर से इकटठा किया हुआ मल-मूत्र गाँव के खेतों के जिए सुनहले खाद का काम देगा। मल-मूत्र को उपयोगी बनाने के लिए यह करना चाहिए कि उसके साथ-चाहे वह सूखा हो या तरल-मिट्टी मिलाकर दसे ज्‍यादा-से-ज्‍यादा एक फुट गहरा गडढा खोदकर जमीन में गाड़ दिया जाए। गाँवों की स्‍वास्‍थ्‍य-रक्षा पर लिखी हुई अपनी पुस्‍तक में डॉ. पूअरे कहते हो कि जमीन में मल-मूत्र नौ या बारह इंच से अधिक गहरा नहीं गाड़ना चाहिए। (मैं यह बात केवल स्‍मृति के आधार पर लिख रहा हूँ।) उनकी मान्‍यता यह है कि जमीन की ऊपरी सतह सूक्ष्‍म जीवों से परिपूर्ण होती हैं और हवा एक रोशनी की सहायता से-जो कि आसानी से वहाँ तक पहुँच जाती है ये जीव मल-मूत्र को एक हफ्ते के अंदर एक अच्‍छी, मुलायम और सुगंधित मिट्टी में बदल देते हैं। कोई भी ग्रामवासी स्‍वयं इस बात की सच्‍चाई का पता लगा सकता है। यह कार्य दो प्रकार से किया जा सकता है। या तो पाखाने बनाकर उनमें शौच जाने के लिए मिट्टी तथा लोहे की बाल्टियाँ रख दी जाएँ और फिर प्रतिदिन उन बाल्टियों को पहले से तैयार की हुई जमीन में खाली करके ऊपर से मिट्टी डाल दी जाए या फिर जमीन में चौरस गडढा खोदकर सीधे उसी में मल-मूत्र का त्‍याग करके ऊपर से मिट्टी डाल दी जाए। यह मल-मूत्र या तो देहात के सामूहिक खेतों में गाड़ा जा सकता है या व्‍यक्तिगत खेतों में। लेकिन यह कार्य तभी संभव है। जब कि गाँव वालें सहयोग दें कोई भी उद्योगी ग्रामवासी कम-से-कम इतना काम तो खुद भी कर ही सकता है कि मल-मूत्र को एकत्र करके उसकों अपने लिए संपत्ति में परिवर्तित कर दें। आजकल तों यह सारा कीमती खाद, जो लाखों रुपएँ की कीमत का है, प्रतिदिन व्‍यर्थ जाता है और बदले में हवा को गंदी करता तथा बीमारियों फैलाता रहता है।

गाँवों के तालाबों से स्‍त्री और पुरुष सब स्‍नान करने, कपड़े धोने, पानी पीने तथा भोजन बनाने का काम लिया करते हैं। बहुत से गाँवों के तालाब पशुओं के काम भी आते हैं। बहुधा उनमें भैंसे बैठी हुई पाई जाती हैं। आश्‍चर्य तो यह है कि तालाबों का इतना पापपूर्ण दुरुपयोग होते रहने पर भी महामारियों से गाँवों का नाश अब तक क्‍यों नहीं हो पाया है? आरोग्‍य-विज्ञान इस विषय में एकमत है कि पानी की सफाईके संबंध में गाँव वालों की उपेक्षा-वृत्ति ही उनकी बहुत-सी बीमारियों का कारण है।

पाठक इस बात को स्‍वीकार करेंगे कि इस प्रकार का सेवा कार्य शिक्षाप्रद होने के साथ-ही-साथ अलौकिक रूप से आनंद दायक भी है और इसमें भारतवर्ष के संतान-पीड़ित जन-समाज का अनिर्वचनीय कल्‍याण भी समाया हुआ है। मुझे उम्‍मीद है कि इस समस्‍या को सुलझाने के तरीके का मैंने ऊपर जो वर्णन किया है, उससे इतना तो साफ हो गया होगा कि अगर ऐसे उत्‍साही कार्यकर्ता मिल जाएँ, जो झाड़ू और फावड़े को भी उतने ही आराम और गर्व के साथ हाथ में ले लें जैसे कि वे कलम और पेंसिल को लेते हैं, तो इस कार्य में खर्च का कोई सवाल ही नहीं उठेगा। और किसी खर्च की जरूरत पड़ेगी भी तो वह केवल झाड़ू, फावड़ा, टोकरी, कुदाली और शायद कुछ कीटाणु-नाशक दवाइयाँ खरीदने तक ही सीमित रहेगा। सूखी राख संभवत: उतनी ही अच्‍छी कीटाणु-नाशक दवा है, जितनी कि कोई रसायनशास्‍त्री दे सकता है।

आदर्श भारतीय गाँव इस तरह बसाया और बनाया जाना चाहिए, जिससे वह संपूर्णतया नीरोग हो सके। उसके झोंपड़ो और मकानों में काफी प्रकाश और वायु आ-जा सके। ये झोंपड़ों और मकानों में काफी प्रकाश और वायु आ-जा सके। ये झोंपड़ों ऐसी चीजों के बने हों जो पाँच मील की सीमा के अंदर उपलब्‍ध हो सकती हैं। हर मकान के आस-पास या आगे-पीछे इतना बड़ा आँगन हो, जिसमें गृहस्‍थ अपने लिए साग-भाजी लगा सकें और अपने पशुओं को रख सकें। गाँव की गलियों और रास्तों पर जहाँ तक हो सके धूल न हो। अपनी जरूरत के अनुसार गाँव में कुएँ हों, जिनसे गाँव के सब लोग पानी भर सकें। सबके लिए प्रार्थना-घर या मंदिर हों, सार्वजनिक सभा वगैरा के लिए एक अलग स्‍थान हो, गाँव की अपनी गोचर-भूमि हो, सहकारी ढँग की एक गोशाला हो ऐसी प्राथमिक और माध्‍यमिक शालाएँ हो जिनमें उद्योग की शिक्षा सर्व-प्रधान वस्‍तु हो, और गाँव के अपने मामलों का निपटारा करने के लिए एक ग्राम-पंचायत भी हो। अपनी जरूरतों के लिए अनाज, साग-भाजी, फल, खादी वगैरा खुद गाँव में ही पैदा हों। एक आदर्श गाँव की मेरी अपनी यह कल्‍पना है। मौजूदा परिस्थित में उसके मकान ज्‍यों-के-त्‍यों रहेंगे, सिर्फ यहाँ-वहाँ थोड़ा-सा सुधार कर देना अभी काफी होगा। अगर कहीं जमींदार हो और वह भला आदमी होग या गाँव के लोगों में सहयोग और प्रेमभाव हो, तो बगैर सरकारी सहायता के खुद ग्रामीण ही जिनमें जमींदार भी शामिल है-अपने बल पर लगभग ये सारी बातें कर सकते हैं। हाँ, सिर्फ नए सिरे से मकानों को बनाने की बात छोड़ दीजिए। और अगर सरकारी सहायता भी मिल जाए तब तो ग्रामों की इस तरह पुनर्रचना हो सकती है कि जिसकी कोई सीमा ही नहीं। पर अभी तो मैं यहीं सोच रहा हूँ कि खुद ग्राम निवासी अपने बल पर परस्‍पर सहयोग के साथ और सारे गाँव के भले के लिए हिल-मिलकर मेहनत करें, तो वे क्‍या-क्‍या कर सकते है? मुझे तो यह निश्‍चय हो गया है कि अगर उन्‍हें उचित सलाह और मार्गदर्शन मिलता रहे, तो गाँव की-मैं व्‍यक्तियों की बात नहीं करता-आय बराबर दूनी हो सकती है। व्‍यापारी दृष्टि से काम में आने लायक अखूट साधन-सामग्री हर गाँव में है। पर सबसे बड़ी बदकिस्‍मती तो यह है कि अपनी दशा सुधारने के लिए गाँव के लोग खुद कुछ नहीं करना चाहते।

एक गाँव के कार्यकर्ता की सबसे पहले गाँव की सफाई और आरोग्‍य के सवाल को अपने हाथ में लेना चाहिए। यों तो ग्रामसेवकों को किंकर्त्‍तव्‍य-विमूढ़ बना देने वाली अनेक समस्याएँ हैं, पर यह समस्‍या ऐसी है जिसकी सबसे अधिक लापरवाही की जा रही है। फलत: गाँव की तंदुरुस्‍ती बिगड़ती रहती है और रोग फैलते रहते हैं। इधर ग्रामसेवक स्‍वेच्‍छापूर्वक भंगी बन जाए, तो वह प्रतिदिन मैला उठाकर उसका खाद बना सकता है और गाँव के रास्‍ते बुहार सकता है। वह लोगों से कहे कि उन्‍हें पाखाना-पेशाब कहाँ करना चाहिए, किस तरह सफाई रखनी चाहिए, उसके क्‍या लाभ हैं, और सफाई के न रखने से क्‍य-क्‍या नुकसान होते हैं। गाँव के लोग उसकी बात चाहे सुनें या न सुनें, वह अपना काम बराबर करता रहे।


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