जैसा कि कहा जाता है, शराब शैतान की ईजाद है। इस्लाम की किताबों में कहा गया हैं कि जब शैतान न पुरुषों और स्त्रियों को ललचाना शुरू किया,तो उसने उन्हें शराब दिखाई थी। मैंने कितने ही मामलें में यह देखा है कि शराब आदमियों से न सिर्फ उनका पैसा छीन लेती है, बल्कि उनकी बुद्धि भी हर लेती है। उसके नशे में वे कुछ क्षणों के लिए उचित और अनुचित का, पुण्य और पाप का, यहाँ तक कि माँ और पत्नी का भेद भी भूल जाते हैं। मैंने शराब के नशे में मस्त बैरिस्टरों को नालियों में लोटते और पुलिस के द्वारा घर ले जोय जाते देखा है। दो अवसरों पर मैंने जहाज के कप्तानों को शराब के नशे में एकसा गर्क देखा है कि उनकी हालत जब तक उनका होश वापिस नहीं आया तब तक अपने जहाजों का नियंत्रण करने योग्य नहीं रह गई थी। माँसाहार और शराब, दोनों के बारे में उत्तम नियम तो यह है कि हमें खान, पीने और आमोद-प्रमोद के लिए नहीं जीना चाहिए, बल्कि इसलिए खाना और पीना चाहिए कि हमारे शरीर ईश्वर के मंदिर बन जाएँ और हम उनका उपयोग मनुष्य की सेवा में कर सकें। औषधि के रूप में कभी-कभी शराब की आवश्यकता हो सकती है और मुमकिन है कि जब आदमी मरने के करीब हो तो शराब का घंट उसकी जिंदगी को थोड़ा और बढ़ा दे। लेकिन शराब के पक्ष में इससे अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता।
अपको ऊपर से ठीक दिखाई देने वाली इस दलील के भुलावे में नहीं आना चाहिए कि शराब बंदी जोर-जबरदस्ती के आधार पर नहीं होनी चाहिए और जो लोग शराब पीना चाहते हैं उन्हें उसकी सुविधाएँ मिलनी ही चाहिए। राज्य का यह कोई कर्त्तव्य नहीं है कि वह अपनी प्रज्ञा की कुटेवों के लिए अपनी ओर से सुविधाएँ दे। हम वेश्यालयों को अपना व्यापार चलाने के लिए अनुमति-पत्र नहीं देते। इसी तरह हम चोरों को अपनी चोरी की प्रवृत्ति पूरी करने की सुविधाएँ नहीं देते। मैं शराब को चोरी और व्यभिचार, दोनों से ज्यादा निंद्य मानता हूँ। क्या वह अक्सर इन दोनों बुराइयों की जननी नहीं होती?
शराब की लत कुटेव तो है ही, लेकिन कुटेव से भी ज्यादा वह एक बीमारी है। मैं ऐसी बीसियों आदमियों को जानता हूँ, जो यदि छोड़ सकें तो शराब पीना बड़ी खुशी से छोड़ दें। मैं ऐसे भी कुछ लोगों को जानता हूँ, जिन्होंने यह कहा है कि शराब उनके सामने न लाई जाए। और जब उनके कहने के अनुसार शराब उनके सामने नहीं लाई गई, तो मैंने उन्हें लाचार होकर शराब की चोरी करते हुए देखा है। लेकिन इसलिए मैं यह नहीं मानता कि शराब उनके पास से हटा लेना गलत था। बीमारों को अपने-आपसे यानी अपनी अनुचित इच्छाओं से लड़ने में हमें मदद देनी ही चाहिए।
मजदूरों के साथ अपनी आत्मीयता के फलस्परूप मैं जानता हूँ कि शराब की लत में फँसे हुए मजदूरों के घरों का शराब ने कैसा नाश किया है। मैं जानता हूँ कि शराब आसानी से न मिल सकती हो तो वे शराब को छूते भी नहीं। इसके सिवा, हमारे पास हाल के ऐसे प्रमाण मौजूद हैं कि शराबियों में से ही कई खुद शराबबंदी की माँग कर रहे हैं।
शराब की आदत मनुष्य की आत्माका नाश कर देती है और उसे धीरे-धीरे पशु बना डालती है, जो पत्नी, माँ और बहन में भेद करना भूल जाता है। शराब के नशे में यह भेद भूल जाने वाले लोगों को मैंने खुद देखा है।
शराब और अन्य मादक द्रव्यों से होने वाली हानि कई अंशों में मलेरिया आदि बीमारियों से तो केवल शरीर को ही हानि पहुँचती है, जब कि शराब आदि से शरीर और आत्मा, दोनों का नाश हो जाता है।
मैं भारत का गरीब होना पसंद करूँगा, लेकिन मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि हमारे हजारों लोग शराबी हों। अगर भारत में शराबबंदी जारी करने के लिए लोगों को शिक्षा देना बंद करना पड़े तो कोई परवाह नहीं; मैं यह कीमत चुकाकर भी शराब खोरी को बंद करूँगा।
जो राष्ट्र शराब की आदत का शिकार है, कहना चाहिए कि उसके सामने विनाश मुँह बाए खड़ा है। इतिहास में इस बात के कितने ही प्रमाण हैं कि इस बुराई के कारण कई साम्राज्य मिट्टी में मिल गए हैं। प्रचीन भारतीय इतिहास में हम जानते हैं कि वह पराक्रमी जाति, जिसमें श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था, इसी बुराई के कारण नष्ट हो गई। रोम-साम्राज्य के पतन का एक सहायक कारण निस्संदेह यह बुराई ही थी।
यदि मुझे एक घंटे के लिए भारत का डिक्टेटर बन दिया जाए, तो मरा पहना काम यह होगा कि शराब की दुकानों को बिना मुआवजा दिए बंद करा दिया जाए और कारखानों के मालिकों को अपने मजदूरों के लिए मनुष्योचित परिस्थितियाँ निर्माण करने तथा उनके हित में ऐसे उपाहार-गृह और मनोरंज-गृह खोलने के लिए मजबूर किया जाए, जहाँ मजदूरों को ताजगी देने वाले निर्दोष पाए और उतने ही निर्दोष मनोरंजन प्राप्त हो सकें।
ताड़ी
एक पक्ष ऐसा है कि जो निश्चित (मर्यादित)मात्रा में शराब पीने का समर्थन करता है और कहता है कि इससे फायदा होता है। मुझे इस दलील में कुछ सार नहीं लगता। पर घड़ी भर के लिए इस दलील को मान लें, तो भी अनेक ऐसे लोगों के खातिर, जो कि मर्यादा में रह ही नहीं सकते, इस चीज का त्याग करना चाहिए।
पारसी भाइयों ने ताड़ी का बहुत समर्थन किया है। वे कहते हैं कि ताड़ी में मादकता तो है, मगर ताड़ी एक खुराक है और दूसरी खुराक को हजम करने में मदद पहुँचाती है। इस दालील पर मैंने खूब विचार किया है और इस बारे में काफी पड़ा भी है। मगर ताड़ी पीने वाले बहुत से गरीबों की मैंने जो दुर्दशा देखी है, उस पर से मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि ताड़ी को मनुष्य की खुराक में स्थान देने की कोई आवश्यकता नहीं है।
ताड़ी में जो गुण माने गए हैं वे सब हमें दूसरी खुराक में मिल जाते है। ताड़ी खजूरी के रस से बनती है। खजूरी के शुद्ध रस में मादकता बिलकुल नहीं होती। उसे नीरा कहते हैं। ताजी नीरा को ऐसी-की-ऐसी पीने से कोई लोगों को दस्त साफ आता है। मैंने खुद नीरा पीकर देखी है। मुझ पर उसका ऐसा असर नहीं हुआ। परंतु वह खुराक का काम तो अच्छी तरह से देती है। चाय इत्यादी के बदले मनुष्य सबेरे नीरा ले, तो उसे दूसरा कुछ पीने या खाने की आवश्यकता नहीं रहनी चाहिए।
नीरा को गन्ने के रस की तरह पकाया जाए, तो उससे बहुत अच्छा गुड़ तैयार होता है। खजूरी ताड़ की एक किस्म है। हमारे देश में अनेक प्रकार के ताड़ कुदरती तौर पर उगते हैं। उन सबमें से नीरा निकल सकती है। नीर ऐसी चीज है जिसे निकालने की जगह पर ही तुरंत पीना अच्छा है। नीरा में मादकता जल्दी पैदा हो जाती है। इसलिए जहाँ उसका तुरंत उपयोग न हो सके वहाँ उसका गुड़ बना लिया जाए, तो वह गन्ने के गुड़ कि जगह ले सकता है। कई लोग मानते है कि ताड़-गुड़ गन्ने के गुड़ के अधिक गुणकारी है। उसमें मिठास कम होती है, इसलिए वह गन्ने के गुड़ की अपेक्षा अधिक मात्रा में खाया जा सकता है। जिन ताड़ों के रस से ताड़ी बनाई जाती है उन्हीं से गुड़ बनाया जाए, तो हिंदुस्तान में गुड़ और खांड़ की कभी तंगी पैदा न हो और गरीबों को सस्ते दाम में अच्छा गुड़ मिल सकें।
ताड़-गुड़ की मिश्री और शक्कर भी बनाई जा सकती है। मगर गुड़ शक्कर या चीनी से बहुत अधिक गुणकारी है। गुड़ में जो क्षार होते हैं वे शक्कर या चीनी में नहीं होते। जैसे बिना भूसी का आटा और बिना भूसी का चावल होता है, वैसे ही बिना क्षार की शक्कर को समझना चाहिए। अर्थात यह कहा जा सकता है कि खुराक जितनी अधिक स्वाभाविक स्थिति में खाई जाए,उतना ही अधिक पोषण उसमें से हमें मिलता है।
बीड़ी और सिगरेट पीना
शराब की तरह बीड़ी और सिगरेट के लिए भी मेरे मन में गहरा तिरस्कार है। बीड़ी और सिगरेट को मैं कुटेव ही मानता हूँ। वह मनुष्य की विवेक-बद्धि को जड़ बना देती है और अक्सर शराब से ज्यादा बुरी सिद्ध होती है,क्योंकि उसका परिणाम अप्रत्यक्ष रीति से होता है। यह आदत आदमी को एक बार लग भर जाए, फिर उससे पिंड छुड़ाना बहुत कठिन होता है। इसके सिवा वह खर्चीली भी है। वह मुँह को दुर्गंध-युक्त बनाती है, दाँतों का रंग बिगाड़ती है और कभी-कभी कैंसर जैसी भयानक बीमारी को जन्म देती है। वह एक गंदी आदत है।
एक दृष्टि से बीड़ी और सिगरेट पीना शराब से भी ज्यादा बड़ी बुराई है, क्योंकि इस व्यसन का शिकार उससे होने वाली हानि को समय रहते अनुभव नहीं करता। वह जंगलीपन का चिह्र नहीं मानी जाती, बल्कि सभ्य लोग तो उसका गुणगान भी करते हैं। मैं इतना कहूँगा कि जो लोग छोड़ सकते हैं वे उसे छोड़ दे और दूसरों के लिए उदाहरण पेश करें।
तंबाकू ने तो गजब ही ढाया है। भाग्य से ही कोई इसके पंजे से छूटता है। ...टॉल्स्टॉय ने इसे व्यानों में सबसे खराब व्यसन माना है।
हिंदुस्तान में हम लोग तंबाकू केवल पीते ही नहीं, सूंघते भी हैं और जरदे के रूप में खाते भी हैं। ...आरोग्य का पुजारी दृढ़ निश्चय करके सब व्यसनों की गुलामी से छूट जाएगा। बहुतों को इसमें से एक या दो तीनों व्यसन लगे होते है। इसलिए उन्हें इससे घृणा नहीं होती। मगर शान्त चित्त से विचार किया जाए तो तंबाकू फूँकने की क्रिया मे या लगभग सारा दिन जरदे या पान के बीड़े से गाल भर रखने में या नसवार की डिबिया खोलकर सूंघते रहने में कोई शोभा नही है। ये तीनों व्यसन गंदे हैं।