दुनिया में ऐसे विवेकी पुरुषों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो इस सभ्यता को-जिसके एक छोर पर तो भौतिक समृद्धि की कभी तृप्त न होने वाली आकांक्षा है और दूसरे छोर पर उसके फलस्वरूप पैदा होने वाला युद्ध है-अविश्वास की निगाह से देखते हैं। लेकिन यह सभ्यता अच्छी हो या बुरी, भारत का पश्चिम जैसा उद्योगीकरण करने की क्या जरूरत है? पश्चिमी सभ्यता शहरी सभ्यता है। इंग्लैंड और इटली जैसे छोटे देश अपनी व्यवस्था ओं का शहरीकरण कर सकते हैं। अमेरिका बड़ा देश है, किंतु उसकी आबादी बहुत विरल है। इसलिए उसे भी शायद वैसा ही करना पड़ेगा। लेकिन कोई भी आदमी यदि सोचेगा तो यह मानेगा कि भारत जैसे बड़े देश को, जिसकी आबादी बहुत ज्यादा बड़ी है और ग्राम-जीवन की ऐसी पुरानी परंपरा में पोषित हुई है जो उसकी आवश्यकताओं को बराबर पूरा करती आई है, पश्चिम नमूने की नकल करने की कोई जरूरत नहीं है और न उसे ऐसी नकल करनी चाहिए। विशेष परिस्थितियों वाले किसी एक देश के लिए जो बात अच्छी है वह भिन्न परिस्थितियों वाले किसी दूसरे देश के लिए भी अच्छी ही हो, यह जरूरी नहीं है। जो चीज किसी एक आदमी के लिए पोषक आहार का काम देती हो, वही दूसरे के लिए जहर जैसी सिद्ध होती है। किसी देश की संस्कृति को निर्धारित करने में उसके प्राकृतिक भूगोल का प्रमुख हिस्सा होता है। ध्रुव-प्रदेश के निवासी के लिए ऊनी कोट जरूरी हो सकता है, लेकिन भूमध्य-रेखवर्तीं प्रदेशों के निवासियों का तो उससे दम ही घुट जाएगा।
मेरा स्पष्ट मत है और मैं उसे साफ-साफ कहता हूँ कि बड़े पैमाने पर होने वाला सामूहिक उत्पादन ही दुनिया की मौजूदा संकटमय स्थिति के लिए जिम्मेदार है। एक क्षण के लिए मान भी लिया जाए कि यंत्र मानव-समाज की सारी आवश्यकताएँ पूरी कर सकते हैं, तो भी उसका यह परिणाम तो होगा ही कि उत्पादन कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में केंद्रित हो जाएगा और इसलिए वितरण की योजना के लिए हमें द्राविड़ी प्राणायाम करना पड़ेगा। दूसरी ओर यदि जिन क्षेत्रों में वस्तुओं की आवश्यकता है वहीं उनका उत्पादन हो और वहीं वितरण हो, तो वितरण का नियंत्रण अपने-आप हो जाता है। उसमें धोखाधड़ी के लिए कम गुंजाइश होती है और सट्टे के लिए तो बिलकुल नहीं।
यह तो आप देखते ही हैं कि ये राष्ट्र (यूरोप और अमेरिका) दुनिया की तथाकथित कमजोर या असंगठित जातियों का शोषण करते हैं। यदि एक बार इन जातियों को इस चीज का प्राथमिक ज्ञान हो जाए और वे इस बात का निश्चय कर लें कि वे अब अपना शोषण नहीं देंगी, तो फिर वे जो कुछ खुद पैदा कर सकती हैं उतने से ही संतोष कर लेंगी। ऐसा हो तो जहाँ तक मुख्य आवश्यकताओं का संबंध है सामूहिक उत्पादन मिट जाएगा।
जब उत्पादन और उपभोग दोनों किसी सीमित क्षेत्र में होते हैं, तो उत्पादन को अनिश्चित हद तक और किसी भी मूल्य पर बढ़ाने का लोभ फिर नहीं रह जाता। उस हालत में हमारी मौजूदा अर्थ-व्यवस्था से जो कठिनाइयाँ और समस्याएँ पैदा होती हैं वे भी नहीं रह जाएँगी।
यंत्रों का भी स्थान है। और यंत्रों ने अपना स्थान प्राप्त भी कर लिया है। लेकिन मनुष्यों के लिए जिस प्रकार की मेहनत करना अनिवार्य होना चाहिए, उसी प्रकार की मेहनत का स्थान उन्हें ग्रहण न कर लेना चाहिए। घर में चलाने लायक यंत्रों में सुधार किए जाए, तो मैं उसका स्वागत करूँगा। लेकिन मैं यह भी समझता हूँ कि जब तक लाखों किसानों को उनके घर में कोई दूसरा धंधा करने के लिए न दिया जाए, तब तक हाथ-मेहनत से चरखा चलाने के बदले किसी दूसरी शक्ति से कपड़े का कारखाना चलाना गुनाह है।
यंत्रों की ऊपरी विजय से चमत्कृत होने से मैं इनकार करता हूँ। और मारक यंत्रों के मै एकदम खिलाफ हूँ; उसमें मैं किसी तरह का समझौता स्वीकार नहीं कर सकता। लेकिन ऐसे सादे औजारों, साधनों या यंत्रों का, जो व्यक्ति की मेहनत को बचाएँ और झोंपड़ियों में रहने वाले लाखों-करोड़ों लोगों का बोझ कर करें, मैं जरूर स्वागत करूँगा।
हिंदुस्तान के सात लाख गाँवों में फैले हुए ग्रामवासी-रूपी करोड़ो जीवित यंत्रों के विरुद्ध इन जड़ यंत्रों को प्रतिद्वंद्विता में नहीं लाना चाहिए। यंत्रों का सदुपयोग तो यह कहा जाएगा कि उससे मनुष्य के प्रयत्न को सहारा मिले और उसे वह आसान बना दे। यंत्रों के मौजूदा उपयोग का झुकाव तो इस ओर ही बढ़ता जा रहा है कि कुछ इन-गिने लोगों के हाथ में खूब संपत्ति पहुँचाई जाए और जिन करोड़ों स्त्रि-पुरुषों के मुँह से रोटी छीन ली जाती हैं, उन बचारों की जरा भी परवाह न की जाए।
बड़े पैमाने पर उद्योगीकरण की अनिवार्य परिणाम यह होगा कि ज्यों-त्यों प्रतिस्पर्धा और बाजार की समस्याएँ खड़ी होंगी त्यों-त्यों गाँवों का प्रगट या अप्रगट शोषण होगा। इसलिए हमें अपनी सारी शक्ति इसी प्रयत्न पर केंद्रित करनी चाहिए कि गाँव स्वयं पूर्ण बनें और वस्तुओं का निर्माण और उत्पादन अपने उपयोग के लिए करें। यदि उत्पादन की यह पद्धति स्वीकार कर ली जाए तो फिर गाँव वाले ऐसे आधुनिक यंत्रों और औजारों का जिन्हें वे बना सकते हों और जिनका उपयोग उन्हें आर्थिक दृष्टि से पुसा सकता हो, उपयोग खुशी से करें। उस पर आपत्ति नहीं की जा सकती। अलबत्ता, उनका उपयोग दूसरों का शोषण करने के लिए नहीं होना चाहिए।
मैं नहीं मानता कि उद्योगीकरण हर हालत में किसी भी देश के लिए जरूरी ही है। भारत के लिए तो वह उससे भी कम जरूरी है। मेरा विश्वास है कि आजाद भारत दु:ख से कराहती हुई दुनिया के प्रति अपने कर्तव्य का ऋण अपने गाँवों का विकास करके और दुनिया के साथ मित्रता का व्यवहार करके और इस तरह सादा परंतु उदात्त जीवन अपना कर ही चुका सकता है। धन की पूजा ने हमारे ऊपर भौतिक समृद्धि के जिस जटिल और शीघ्रतागामी जीवन को लाद दिया है, उसके साथ 'उच्च चिंतन' का मेल नहीं बैठता। जीवन का संपूर्ण सौंदर्य तभी खिल सकता है जब हम उच्च कोटि का जीवन जीना सीखें।
खतरों वाला जीवन जीने में रोमांच और उत्तजना का अनुभव हो सकता है। पर खतरों का सामना करते हुए जीने में और खतरों वाला जीवन जीने में भेद है। जो आदमी जंगली जानवरों से और उनसे भी ज्यादा जंगली आदमियों से भरपूर जंगल में अकेले, बिना बंदूक के और केवल ईश्वर के सहारे हरने की हिम्मत दिखाता है, वह खतरों का सामना करते हुए जीता है। दूसरा आदमी लगातार हवा में उड़ता हुआ रहता है और टकटकी लगाकर देखने वाले दर्शक-समुदाय की वाहवाही लूटने के खयाल से नीचे की ओ उड़ी लगाता है; वह खतरों वाला जीवन जीता है। पहले आदमी का जीवन लाक्ष्यपूर्ण है, दूसरे का लक्ष्यहीन।
किसी अलग-थलग रहने वाले देश के लिए, भले वह भूविस्तार और जनसंख्या की दृष्टि से कितना भी बड़ा क्यों न हो, ऐसी दुनिया में जो शस्त्रास्त्रों से सिर से पाँव तक लदी है और जिसमें सर्वत्र वैभव-विलास का ही वातावरण नजर आता है, ऐसा सादा जीवन जीना संभव है या नहीं-यह ऐसा सवाल है जिसमें संशयशील आदमी को अवश्य संदेश होगा। लेकिन इसका उत्तर सीधा है। यदि सादा जीवन जीने योग्य है तो ये प्रयत्न भी करने योग्य है, चाहे वह प्रयत्न किसी एक ही व्यक्ति या किसी एक ही समुदाय द्वारा क्यों न किया जाए।
लेकिन साथ ही मैं यह भी मानता हूँ कि कुछ प्रमुख उद्योग जरूर होन चाहिए। आराम-कुर्सी वाले या हिंसा वाले समाजवाद में मेरा विश्वास नहीं है। मैं तो अपने विश्वास के अनुसार आचरण करने में मानता हूँ और उसके लिए सब लोग मेरी बात मान लें तब तक ठहरना अनावश्यक समझता हूँ। इसलिए इन प्रमुख उद्योगों को गिनाएँ बिना ही मैं कह देता हूँ कि जहाँ कहीं भी लोगों को काफी बड़ी संख्या में मिलकर काम करना पड़ता है वहाँ मैं राज्य की मालिकों की हिमायत करूँगा। उनकी कुशल या अकुशल मेहनत से जो कुछ उत्पन्न होगा, उसकी मालिकी राज्य के द्वारा उनकी ही होगी। लेकिन चूँकि मैं तो इस राज्य के अहिंसा पर ही आधारित होने की कल्पना कर सकता हूँ, इसलिए मैं अमीरों से उनकी संपत्ति बलपूर्वक नहीं छीनूँगा, बल्कि उक्त उद्योगों पर राज्य की मालिकी कायम करने की प्रक्रिया में उनका सहयोग माँगूँगा। अमीर हों या कंगाल, समाज में कोई भी अछूत या पतित नहीं है। अमीर और गरीब दोनों एक ही रोग के दो रूप हैं। और सत्य यह है कि कोई कैसा भी हो, हैं तो सब मनुष्य ही।
और मैं अपना यह विश्वास उन सारी बर्बरताओं के बावजूद घोषित करता हूँ, जो हमने भारत में और दूसरे देशों में घटित होने देखी हैं और जिन्हें शायद हमें आगे और भी देखना पड़े। हम खतरों का सामना करते हुए जीना सीखें।