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कविता

छोड़ कर दुख पीछे

राजकुमार कुंभज


छोड़ कर दुख पीछे
लहरें निकल गई सदियों आगे
आगे क्या, किसे पता ?
किसे पता कि नहीं आएँगी लहरें वे ही, वे ही
फिर-फिर छोड़ कर दुख पीछे
पीछे से पीछे-पीछे आते हैं सिर्फ कंकाल
कंकाल मनुष्यों के या मवेशियों के
फर्क नहीं करता है शासन
शासन का दिमाग या नीतियाँ
कोल्हू के बैल की आँखों पर बँधी पट्टियाँ हैं
वहाँ बे-मौसम छूटने वाली फुलझड़ियाँ तो हैं
लेकिन, झुलसने वाली आँखें नहीं
मैं चला उस तरफ
कि जिस तरफ कर सकूँ फर्क
नदी और नाले का
अक्षर और अज्ञान का
शान और श्वान का
ढाबों में पक रहे मुर्गों की भी होती है सुंदरता
लोकतंत्र की आँखें देखती हैं सब
छोड़ कर दुख पीछे।

 


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