hindisamay head


अ+ अ-

कविता

बात कुछ और है

प्रेमशंकर मिश्र


सच पूछिए
बात कुछ और है।
यह हर दिशा से
झुंड की झुंड
लहराती हुई अलकें
यह आड़ी जिरदी
दम पर दम
उतरती हुई सर्द तीरें
चारों भुजाओं का हाहाकार
एक ही साथ
कमरें में क्‍यों घुस आए?


अभी
जब परछाई मेरे साथ थी
रात के गमगलत की बात
दुनियादारी की ओट थी
औरइस तरह
शोर शराबा, अनाप शनाप
के बीच
कुछ एक उभरे हुए अँखुए
बिना किसी उत्‍तर के
सूख गए
और हम
देखते ही देखते रह गए।
अब
जब हम अकेले हैं
एक काला-काला सा मौन
हमदर्द
जख्‍मों को सहला रहा है
अस्तित्‍वहीन
अपनी ही इकाई
साँय-साँय करती
अपना दम भरती है
दिन भर की
चली थकी साँसें
साँस लेती हैं
नींद आती है।
फिर दोबारा
एक झकझोर
यह मरोड़
खिड़कियों का इस तरह
खुलना और बंद होना
दरवाजों की उड़ी-उड़ी बेपर्दगी
अब किन और संभावनाओं को जनेगी?

बात
जैसी दिखाई पड़ रही है
दरअसल
वैसी नहीं है
ये काले-काले बादल
इस वक्त दूसरों के गुलाम हैं
इन्‍हें चुकना ही होगा
सँपेरे के फेंके
इन दंतहीन नागों से
कोई भय नहीं है।
हम
अभी-अभी
इनकी बाँबियों से गुजरे हैं।
सुबह-शाम
खाना हराम, सोना हराम
त्राहि त्राहि, राम राम
सच मानिए
यह सारा तामझाम
तूल कलाम धोखा है
इन सब के पीछे
बात कुछ और है
सच पूछिए
बात कुछ और है।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में प्रेमशंकर मिश्र की रचनाएँ