जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति-सी छाई।
दुर्दिन में आँसू बनकर वह आज बरसने आई।।
इन पंक्तियों के कवि अपने को कवित्व के गुणों से सदा के लिए वंचित कर लेते हैं। इनके जीवन में स्मृतियों से उमड़कर आँसू की बरसात होने लगती है। वे साधारण मानव बन उसमें भीगने लगते हैं। वे आँसू बहाते हैं और इसका सारा दोष स्मृतियों पर मढ़ देते हैं। स्मृतियाँ कवि के कवित्व को समाप्त कर दें-ऐसा साहस उनमें कैसे दिखने लगा। आम जन के समान आँसुओं से भीग उठना, कवि के कवित्व में कहाँ? यह तो सूर की गोपियों को भाता था, जो केवल नारी थीं, कवि नहीं। तभी तो उर बीच पनारा बहाया करती थीं। यही नहीं, यह कार्य तो गुप्तजी ने अपनी यशोधरा से कराया था, पर उनका कवि यशोधरा में स्मृतियों की पीड़ा को पालकर भी उसे रोने नहीं देता है।
वह आँसुओं में भीगती नहीं। वह कहती है कि हाय मुझे रोने का भी दे न गए अधिकार। आँसू उसकी आँखों के कोर तक आते जरूर थे, पर उसी क्षण होंठों पर मुस्कराहट बनकर नाचने लगते थे। आँखों के ये आँसू आँचल के दूध को देखकर पानी में परिवर्तित हो जाते थे, जो मन को आह्लादित करने लगते थे। उसका कवि कहता है कि आँसूओं में तो हँसी ही हँसी है - रुदन का हँसना ही तो गान। यशोधरा के आँसू उसे पुचकारने लग जाते हैं, अत: गुप्तजी के कवि ने नारी होने पर भी उसे कभी आँसू नहीं बहाने दिया। 'आँचल में दूध आँखों में पानी' कहकर चुप करा दिया एवं अपने कवित्व की गरिमा को बचा लिया। गुप्तजी ने ही बताया कि यशोधरा ने अपनी 'नारी शक्ति' इन आँसुओं को बटोरकर ही प्राप्त की थी, तथी तो 'तथागत' को कहना पड़ा - 'दीन नर होते, सुनो दीन नहीं नारी कभी।' तथागत सारी आध्यात्मिक सिद्धियों से पूर्ण हैं, इसके बावजूद एक नारी उनकी भिक्षा की झोली में अपने आँसुओं में पालकर एवं संजोकर अपने आँचल धन को डाल देती है -
तुम भिक्षुक बनकर आए थे, गोपा क्या देती स्वामी।
था अनुरूप एक राहुल ही, रहे सदा यह अनुगामी।
ऐसा करके गुप्तजी के कवि ने 'आँसुओं में ही नारी-शक्ति, नारी-धर और नारी-गरिमा सब कुछ निहित है' को खुलकर दर्शाया है। ये आँसू प्रसाद के कवित्व के आँसू नहीं थे, जो केवल बहते ही रहे और उनका अकेला कवि अपनी उन घनीभूत स्मृतियों में भीगता रहा।
गुप्तजी के कवित्व ने तो देवी उर्मिला तक को भी आँसू बहाने नहीं दिए। उर्मिला चौदह वर्ष तक अपनी सखियों के बीच अपने आँसुओं को इन आँखो के कोर में ही सुखाती रही, उसमें भीगी नहीं। वह कहती है - ''पोषित पतिकाएँ जितनी भी हों, सखी उन्हें निमंत्रण दे आ।'' उर्मिला अपनी घनीभूत स्मृतियों को अपने समान सखियों के बीच ही बिखेरती रही, बाँटती रही, जो आँसू न बनकर चुहल बन अठखेलियाँ करने लगते थे। शायद गुप्तजी ने उर्मिला के आँसुओं के बीच में फैले इस धैर्य को ही लक्ष्मण की परीक्षा से जोड़ रखा था, तभी तो वे उस कठिन सेवा कार्य में सफलता पा सके थे।
यही नहीं, पंत के कवि ने भी अपनी आँखों से आँसू कभी भी प्रवाहित नहीं होने दिए। उन्हें तो इन स्मृतियों के आँसुओं में कविता दिख गई, तो कह पड़े -
वियोगी होगा पहला कवि, आह! से उपजा होगा गान।
उमड़कर आँखों में चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।।
पंत के कवि की स्मृतियो में भी आह है, जो आँखों मे उमड़-उमड़कर भरती है, पर उन्हें कवि आँसू बन बहने नहीं देता, वह तो वही गाने बैठ जाता है। वह कविता करने में ही उन आँसुओं को भूल जाता है।
ऐसे ही अगर हम बेनीपुरीजी की ओर झुकते हैं, तो वे इन घनीभूत स्मृतियों में आँसू की जगह वंशी बजाते मिलते हैं। वह अपने आम्रपाली में कहते हैं - 'नारी जब दु:ख में होती है, तो आँसू बहाती है। पुरुष जब गम में होता है, तो बाँसुरी बजाता है।' पुरुषों के इसी गम की स्मृतियों ने तो भोजपुरी साहित्य में बिरहा की लड़ी बिछा रखी है। कवि विराम के बिरहा से कौन व्यक्ति परिचित नहीं होगा। तो क्या कवि प्रसाद का दिल सूर की गोपियों का है, जो नारी बन अपनी घनीभूत स्मृतियों को आँसू बना लेता है और उसमें डुबकी लगाने लगता है।
नारी तो साक्षात महादेवी जी थीं, पर उनके कवित्व ने कभी आँसू नहीं बहाए। वह तो कहती रहीं - 'मैं नीर भरी दु:ख की बदली।' ऐसा कह बदली की श्यामलता में वे लिपटी रहीं, पर कभी उसे बरसने नहीं दिया। कहीं-कहीं तो दु:ख की बदली से निकले ये आँसू जल-कण बन जाते हैं और अपने इष्ट के पाँव पखारने लगते हैं। उनका कवि कहता है - 'पद रज को धोने उमड़े आते, लोचन में जल-कण रे।' तो कहीं - 'मधुर मेरी पीड़ा का चंदन रे' कहकर महादेवी जी के कवि ने आँसू को जल-कण एवं चंदन बताकर अपने कवित्व की चमक में चार-चाँद लगा दिए हैं। यही नहीं, महादेवी जी के ये आँसू जो उनके उर से होकर दृग तक पहुँचते हैं, वे उनके जीवन को मधुमास बना देते हैं एवं खुद जलजात बन जाते हैं। कवयित्री के जीवन में सवेरा फैलाकर ये आँसू खिल जाते हैं और तब कवि जीवन की सफलता कमल बनकर निखर जाती है। कवयित्री के जीवन में दु:ख की बदली तो छाई रही, पर पीड़ा के ये आँसू नहीं बहे, केवल उमड़ते रहे और मिट गए - 'उमड़ी कल थी मिट आज चली।' गुप्तजी ने भी महादेवी जैसे आँसुओं के अर्घ्य से ही तथागत की पूजा की है। इनका कवि यशोधरा बनकर कह उठता है - 'ढलक न जाए अर्घ्य आँखों का, गिर न जाए यह थाली, उड़ न जाए पक्षी पँखों का, आओं हे गुणशाली, ओ मेरे बनमाली।'
ऐसे ही निरालाजी के कवि ने भी दु:ख ही से नाता जोड़ा और वह हठात कह उठा - 'दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही' तथा 'धिक् यह जीवन जो सदा, पाता ही रहा विरोध।' इस कवि ने तो सबको अपनी बात कहकर हिला ही दिया, पर आँसुओं से कभी प्यार नहीं किया। ये आँसू जो कवि के दिल में ही पलते रहे, उन्हें मतवाला बना दिए। वह इन आँसुओं से मदमस्त होकर 'सरोज स्मृति' की रचना कर एवं यह कहकर संतुष्ट हो जाते हैं - 'धन्य, मैं पिता निरर्थक था। यही कवि राम की शक्ति-पूजा में राम बनकर जनक बाटिका के अपनी घनीभूत प्रथम मिलन की स्मृति में खो जाता है तथा दो बूँद अपनी आँखों से ढुलका तो देता है, पर कभी नहीं कहता कि राम आँसू बहा रहे हैं। स्मृतियों की ये दो बूँदे कवि को वह शक्ति प्रदान करती हैं, जिसमें जय-जयकार छुपा है। उससे विजय का उद्घोष निकल पड़ता है। कारण - ये बूँदें ही उनकी आँखों को नील-कमल बना देती हैं जिससे कवि के 'राम' समर में विजयी होते हैं। निराला के कवि ने तो आँसुओं को हो केवल 'प्रसाद' के कवि ने देखा और पाया है, तभी तो आँसू बहाना उन्हें रास आया।
आँसू बहाना तो पुरुष की असमर्थता है। यह कवि का धर्म एवं गुण नहीं। लगता है, प्रसाद के जीवन की असमर्थता उनके कविधर्म को भी पंगु बना देती है, तभी तो वे घनीभूत स्मृतियों के आँसू बहाने लगते हैं और अपने कवित्व को झकझोरकर बोल पड़ते हैं - 'ले चल मुझे भुलावा देक, मेरे नाविक धीरे-धीरे।' धीरे-धीरे जिसे कोई जान न पाए कि कवि आँसू बहा रहा है। इस तरह यह कवि एक निर्जन स्थान में छिपने को विवश दिखते हैं।
आँसू तो मन की बात कहते हैं। सूर की गोपियाँ रोती हैं, पनारा बहाती है, पर छुप के नहीं। नारी होकर भी यह कहने में उन्हें संकोच नहीं है, हिचक नहीं है कि 'अब तो बात फैल गई, जानत सब कोई।' फिर छुप-छुपकर क्यों रोना और आँसू बहाना। इन सबके बावजूद ऐसा लगता है कि कवि प्रसाद का दिल नारी से भी नाजुक रहा है। तभी तो स्मृतियों के आँसू से सराबोर होते हुए भी उसे केवल एक 'पीड़ा' कहकर छोड़ देते हैं। अपने अंतरमन की पोल को खोलते नहीं हैं।
कवियों के कवित्व को तो रवि के तेज से भी अधिक आधिक्य प्राप्त है - 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि।' पर प्रसाद का नाजुक कवि दिल तो अपनी पीड़ा के सैलाब को तैरकर पार पा ही नहीं सका। वह उन्हीं स्मृतियों के आँसू में डुबकी लगाता रहा। कारण - वह सब कुछ चुपके-चुपके और धीरे-धीरे किसी निर्जन स्थान पर पहुँचकर करता रहा। कवि वहाँ पहुँचता है, जहाँ केवल अंबर है, सागर की लहरें हैं, आकाश में तारे हैं और कवि अशांत मन की पीड़ा की गहराई है। प्रसाद के कवि को सचमुच नैराश्य से बेहद प्यार हो गया है, तभी तो 'कामायनी' के मनु कभी उससे उबरने नहीं। उनके मस्तिष्क में हमेशा एक 'तुमुल कोलाहल' की ध्वनि गूँजती रहती है। ऐसा लगता है कि कवि की दुर्बलताओं से उबरकर उनके सिर के समस्त केशराशियों ने भी उनका साथ छोड़ दिया था और कवि सदा के लिए छिलमुंडी बन बैठा था। ये घनीभूत स्मृतियाँ एक सुंदर शिल्पी को ऐसे केशहीन कर देंगी, यह कवि प्रसाद कभी सोचे भी न होंगे, वर्ना वह आँसुओं से कभी प्यार ही नहीं करते। आँसू बरसाकर कभी भूलते नहीं। वह कवि क्या जिसके जीवन में सदा निराशा ही निराशा हो। कवि की मुद्रा चिंतन की भले हो, पर उसके कानों में तो जीवन का जयघोष ही भरा होता है। ये कवि प्रसाद के आँसुओं का ही गुण था जो निर्जन स्थान में बैठकर बहते रहे और कहते रहे - 'ले चल मुझे भुलवा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे।' अत: ये आँसू कभी रुके नहीं, ये सदा गरजते रहे, बरसते रहे।