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कविता संग्रह

अलंकार-दर्पण

धरीक्षण मिश्र

अनुक्रम 27 पिहित अलंकार पीछे     आगे

लक्षण (वीर) :-
एक व्यबक्ति दुसरा का मन के जाने जहाँ छिपल अभिप्राय।
और काम कुछ ऐसन अपने करि दे ओकरा के दिखसलाय॥
कार्य बतावे मन के बतिया होत शब्दक के ना उपयोग।
पिहित नाम के अलंकार तब मानल उहाँ सजी कवि लोग॥
 
ताटंक :-
केहु का मन के छिपल बात यदि दोसर केहु लखि पावेला।
और काम कुछ अइसन करि पहिला के प्रगट जनावेला॥
कि ओकरा मन के छिपल बात केहु दोसरो मनई जानऽता।
अन्य सजी कवि लोग पिहित के लक्षण ईहे मानऽता॥
कुछ कवि लोग सूक्ष्मव में और पिहित में भेद न मानेला।
आ कुछ लोग दुओ के बिल्कुोल अलगे अलग बखानेला॥
आ बारीकी से दूनूँ में अन्तपर लेत निकाल हवे।
लेकिन हमरा देखे में ऊ खिंचत बाल के खाल हवे॥
 
चौपई :-
केहु का मन के छिपल विचार। जानि करे केहु अइसन कार॥
कि पहिला का होखे ज्ञात। कि भइल उधार छिपावल बात॥
 
उदाहरण (सवैया) :-
जब श्रोता लगे जमुहाये तथा पपनी ओकरा अँखिया के सटेला।
अथवा यदि ओकर चित्त किछू बतियावे में दूसरी ओर बँटेला।
अँगुरी पुटकावे तथा कई बार जे आसन में पगु के पलटेला।
लखि के ई दशा मितभाषी का भाषण के उहाँ रील तुरन्ते कटेला॥
दिहले नेवता में अठन्नीा एगो केहु के एगो मामा मुनासिब जानि के।
धिरिकारल लोग त और एगो दिहले बतिया सब लोग के मानि के।
अपना के चले में बता असमर्थ न गैले घरे सुतले तब तानि के।
तब भैने किराया के एक अठन्नी थमा के बिदा कइले सनमानि के॥
दोहा :- श्रोता दुइ तिन बार जब दृष्टि घड़ी पर देत।
वक्तान उत्तम पुरुष तब तुरत बिदा ले लेत॥
पन्नान लखि बनवीर के आवत ले तलवार।
रचली अपना पुत्र के नकली राजकुमार॥
पन्नाअ लखि बनवीर के आकृति घोर कठोर।
करि दिहली संकेत तब अपना सुत का ओर॥
वीर :-
कवि सम्मे लन में श्रोता के जब देखीले हम अँगड़ात।
हटि जाईले माइक तर के कबिता हम से पढि़ ना जात॥
रहले एगो गुरु जी जिनका दुइ गो रहले शिष्य चलाक।
भोग लगावे के गुरू जी का लागल तुलसी दल के ताक॥
एक शिष्ये से गुरू जी कहले हम के दऽ तुलसी दल आनि।
कहले शिष्यक कि हम ना पाइबि तुलसी के पत्ता पहिचानि॥
अब तक कबें न देखले बानीं हम कतहीं तुलसी के पेड़ ।
सुनले बानीं लोग कहेला नाम तुलसिये के हऽरेड़॥
दुसरा शिष्य प्रथम से कहले तूँ बाड़ ऽ मूर्ख महान।
अब तक ले तोहरा ना आइल जब तुलसी दल के पहिचान॥
केरा का पत्ता अस होला तुलसी के पत्ता छितनार।
हाथ बचा के तूरल जाला होत किनारा काँटादार॥
दुओ छात्र के बात बूझि के गुरूजी हो गइले चुपचाप।
तुलसी दल आने खातिर तब उठि के गइले अपने आप॥
 
चौपई :-
रहे सोहात अगहनी धान। जाना एक रहे बैमान॥
भइल रहे ना किरिन डुबान। ओकरा मनो चिन्हाआय न धान॥
देखे लागल आँखि पसारि। सोहे खूब निहारि-निहारि॥
जानि बूझि के काटे धान। मुँह से कहे अरे भगवान॥
हम छुट्टी दिहनीं सँवकेरा। ता की करे जियान न ढेर॥
 
छंद :- एक बार एगो बुढि़या आ एगो कवनो घुड़सवार।
दूनू जाये चाहत रहले कवनो सरिता का ओह पार॥
बुढि़आ सहायता मँगलसि कुछ ओह घुड़सवार अभिमानी से।
ता की ऊहो खलिहा देहें चलि जाय पार असानी से॥
गठरी पहुँचा दी ओपार हमरो हो जाइ सिद्ध कार।
तब बड़ा रोब में आ कर के डँटले बुढि़या के घुडसवार॥
मैं तेरी गठरी ढोऊँ? यह किस हिम्मकत से कहती है ?
बड़़े और छोटे की कुछ पहिचान न तुझमें रहती है॥
कुछ दूर दृष्टि से दुओ पथिक जब कइले निज मन में चिन्तtन।
तब दूनूँ निज गलती बुझलें आइल विचार में परिवर्तन॥
तब घुड़सवार बुढि़या के गठरी ढ़ोवे के तइयार भइल।
पर बुढि़या आपन गठरी केहु के देबे से इनकार भइल।॥
* * * *
एक बेर हम तीन जने का साथे राही भइनीं।
आ फजिला से दूर कोस द़इ दक्खिन पच्छिम गइनीं॥
थोरे दूर सड़क से हटि के रहे आम के बारी।
आ बारी का रखवारी पर रहले एक तिवारी॥
नोकर एक पेड़ पर चढि़ के रहे डाढि़ झकझोरत।
और गिरलका आम एक गो लरिका रहे बटोरत॥
भरदर पाके वाला बेरा रहे न अब तक आइल।
एसे अब तक बाइस आम रहे केवल बिटुराइल॥
हमनीं का पैदल चलि के रहनी जाँ थोरे थाकल।
दुसरे लउकल आम रोहिनियाँ पीयर-पीयर पाकल॥
राह छोडि़ के बारी में तब गइनीं जाँ सुस्तापये।
एक पन्थि दुइ काज सधे के लागल आस बन्हाnये॥
आम देखि के हमनी का मुँह में पानी भरि आइल।
आ हमनीं के देखि तिवारी जी के तारु झुराइल॥
हमनीं के अगुवा बोले में रहले बड़ा विधाता।
पुछले हो अनजान कि अमवाँ फाकल बा कि झराता?
चुप रहि किंतु तिवारी आँखि हमन का ओर न फेरले।
लेकिन हमनीं के अगुवा नाता में उनके घेरले॥
तब कइसों होखे लागल प्रनाम आ पूछा पेखी।
हमरो परल प्रनाम करे के सब का देखा देखी॥
सगरे आम तिवारी जी हमनीं का आगे टरले।
आ करि के प्रनाम अपना माथा के बोझ उतरले॥
हमनीं में के एक जने अमवाँ लगले गँठियावे।
तब अगुवा लगले उनके कुछ डाँटे आ समुझावे॥
मोटरी बन्हगले ए दुपहरिया में तूँ कहवा जइबऽ।
एसे बढि़ के बढि़या दोसर जगह कहाँ तू पइबऽ॥
कवन अगुतई बाटे आइल बाड़ कवनो बन में।
सुख से दुपहर कटी तिवारी जी का आज सरन में॥
देखऽ अबे तिवारी जी का घर से पानी आई।
आ सूते खातिर चलि आई चउकी आ चरपाई॥
खा के आम बिता के घाम चलल जाई तिझहरिया।
पहुँचे में संदेह न बा जब बाटे राति अँजोरिया॥
नोकर से तुरत तिवारी जी कहले कि उतरऽ आवऽ ।
होत अबेर हवे बैलन के नादे चल लगावऽ॥
ए सब खातिर ले आवऽ अब पानी आ चरपाई।
आ चलि के तब बैल खियावऽ बिहने आम झराई॥
तब हमनीं के अगुवा उनसे कहले मधुरी बानी।
हमनीं का अब चलबि इहाँ से जनिम मँगवाई पानी॥
धीरे-धीरे धरती धूरा दूनूँ धीकत जाई।
अत: इहाँ से चलले में अब लउकत हवे भलाई॥
 
लावनी :-
केहु एक जने निज साथी के खीरा चोराइ ले अइले।
तब खीरा मालिक उनका के नून मरिच दे गइले॥
केहु एगो नारि पड़ोसिन के जब कोंहड़ा तूरि ले अइली।
तब अँजुरी भर अमचुर उनके कोंहड़ा मलकिन दे गइली॥
जब एक साधु के रामायन केहु गुनीं चोरा ले गइले।
तब उनके साधु बला के बिधिवत् दान रेहल के कइले॥
 
सार :-
राम परीक्षा हेतु सती अपने सीता बनि गइली।
झूठ बोलि ई बात छिपा के शिव जी से छल कइली।
शिव जी ध्याबन लगा घटना के पूरा पता लगवले।
अत: नबायें आगे सन मुख उनका के बइठवले।
बुझली सती दोष तब आपन अति उदास मन झइली।
नइहर जा के मन बहलावे के हठ तुरते कइली।
जाइ जनकपुर देखे के इच्छाह लछुमन जी कइले।
इच्छान मन ही में छिपाइ के मन ही मन मुसुकइले।
राम चन्द्र गुरू आज्ञा लेके उनके साथ ले गइले।
तिजहरिया भर नगर देखा के गुरू समीप चलि अइले॥
 
 
पिहित अलंकार (रुद्रट के अनुसार)
लक्षण (लावनी) :-
जब एक व्यभक्ति में दुइ गो भिन्नs परस्पेर बस्तु> देखाला।
आ गुण का अधिक प्रबल भइला से दोष जहाँ ढकि जाला।
पिहित नाम के अलंकार रुद्रट के उहे कहाला।
 
उदाहरण :-
जे वर सजि धजि के मँडवा में पूरा करत अँजोर हवे।
ओकर कमी लखत ना केहु कि पढ़गित में कमजोर हवे।
अब बर आ कनियाँ का सिंगार के जेतना खरचा होई।
ऊ सगरे खरच अकेले बेटिहा अपना माथे ढोई।
वर माँगे सोने के सींकरि कि गर के सिंगार करे।
और सुनहरी घड़ी कि पछुवा आ ककना के कार करे।
सोने के अँगुठी अँगुरी का शोभा के टहकार करे।
आ रेडियो चाहीं कि बर निज गर में बान्हि बजार करे।
धोती के चलन गइल बेटिहा अब पूरा सूट सियाई।
तब वर न लजाई ऊहे सूट पहिरि के बियहे जाई।
वर के माँगन हर के कर बा सख्ती से वसुलात हवे।
आ कन्याा के माँग बुझात हवे मानो खैरात हवे।
बरवे का सिंगार से कनियाँ के सिंगार छिपि जात हवे।
वर सिंगार सजा के घूमत आमन में अगरातहवे।
भागि भरोसे कनियाँ घर में हाथ मलत पछतात हवे॥
 
दोहा :-
सन्त वेश का आड़ में शोषण बा छिपि जात।
केतने साधु अनेर में बइठल खात मोटात॥
समय और मिहनत अधिक फसिल ऊँखि के लेत।
मोट दाम गोटे मगर एक बेर दे देत॥
रुपया का आनंद में श्रम दुख सब छिपि जात।
अत: ऊँखि प्रति वर्ष बा अधिके अधिक बोवात॥
जाति पाँति के नाम धइल भारी अपराध गनात हवे।
आगे के अत: कहानी में ना जाति बतावल जात हवे॥
जब बड़ा साध आ धूम धाम से जात एक बारात रहे।
आ बेटहा का देखलावे के ओहि में आपन औकात रहे॥
बरियतिहा अत: सभे अपना गर में एकहे मोहर बान्हgल।
आ अपना के अपना मन में धनिकाह बहुत बढि़ के जानल॥
बेटिहा अपना दुइ पाड़ा के पहिरवले दुइ मोहर माला।
तब तऽ बरियतिहा लोगन का धन मद पर परल मनो पाला॥
गर में से मोहर काढि़-काढि़ धोती का खूंटा बांन्हि लिहल।
अपना से धनिक लोग भी बा सब मने मने ई मानि लिहल॥
 


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