ब्रज और फ़ारसी
क्यों मोपे रंग की मारे पिचकारी
देखो कुँवरजी देऊँगी मैं गारी
हर कि दस्त-अज़-जान बिशोयद
हरचे दलदिल आरद बिगोयद
भाज सकूँ मैं कैसे मोसौं भाजो नाहीं जात
ठाड़ी अब देखूँ मैं बाकों कौन जो सनमुख आत
वक़्ते-ज़रुरत चू नमानद गुरेज़
दस्त-ब़गीरद सरे-शमशीरे-तेज़
मैंने तोसों का कह्यौ जो तैं गारी दीन्ह
बिन बूझे ना जामन दउँगी ऐसी नाहीं हीन
न गुफ़्ता न दादर कसे बातोकार
वलेकिन चु गुफ़्ती दलीलश बयार
सबकों मुखतें देत है गारी भरी सभा में आज
जब मैं आज निलज ह्वै लीन्हो अब का की है लाज
यके करदा बे-आबरू-ए-बसे
च ग़मदारद अज़ आबरू-ए-कसे
जो कछु कहनी तोते ना कही ह्वै भी मोहि कही
अपने मन मैं सोचिकैं मैऊँ चुपकी ह्वै जो रही
अगर नादॉं बवहशत सख़्त गोयद
ख़िरदमंदश बनरमी दिल बजोयद
बहुत दिनन में हात लगे हौं कैसे जाने दैऊँ
आज मैं फगवा तोसौं कान्हॉं फैटा पकरि कै लैऊँ
देर आमदी ऐ निगारे-सरमस्त
ज़ूदत नदिहम ज़िदामनत दस्त
'शौक़-रंग' ऐसे ढीठ लँगर सों खेलै कौन अब होरी
मुख-मीडै और हाथ-मरोरै करि के वो बरज़ोरी
हर कि बाफ़ौलाद आजू पँज: कर्द
साअदे सीमीने ख़ुदरा रँज: कर्द
भाखा
1.
बिरह-अगिन नित मोहि जराबै, याकौ भेद कहूँ कासे
पी हो पास तो जी हो ठंडा, अपनी बिनत कहूँ वा
रतिया गुजारूँ रोवत-रोवत दिन को गुजारूँ आहें खैंच
मेरे मन की मोसों न पूछो, पूछो मेरी बिपता से
याही बिरहा दुरजन होवे, याही बिरहा सुरजन होवे
ना छूटे या बिरहा मोसौं, ना छूटूँ मैं बिरहा से
नैन खुले कछु और ही देखूँ, मूँदूँ तो कछु और ही और
कोऊ बाको सॉंच न जाने, देखी बात कहूँ जासे
मन के अन्दर पीया कलन्दर, तेरे 'ज़फ़र' वह आन बसा
काम परौ जब बासौं तिहारौ, काम रहा का दुनिया से
2.
यह दुनिया है औघट घाटी पग न बहुत फैलाओ जी
इतने ही फैलाओ कि जिससे सुख से दुख न पाओ जी
इस दुनिया के जितने धंधे, सगरे गोरख-धंधे हैं
इनके फंदे जा न पड़ो तुम, इनमें न मन उलझाओ जी
ये मनुआ है मूरख-लोभी, सब ही पर उलझाये है
चातुर हो तो इस मूरख को जैसे बने सुलझाओ जी
जिस कारज का होना कठिन तुम मन में अपने जानते हो
उसकी दया से सहज वह समझो, मत इतना घबराओ जी
उमर अकारत तुमने खोई, कुछ तो उधर का ध्यान करो
बहुत गयी और थोड़ी रही है, ये भी न योंही गँवाओ जी
सुध-बुध दी करतार ने तुमको, सोच-समझकर करना कुछ
ऐसी करनी मत करना जो कर-कर फिर पछताओ जी
कहिये न भूला उसको 'ज़फ़र' जो सुबह का भूला साँझ को आये
छोड़ के सगरे झगड़े अपना रब से ध्यान लगाओ जी
बाबुल
सुनरी सहेली! मोरी पहेली, बाबुल घर में रही अलबेली
माता पिता ने लाड़ से पाला, समझा मुझे सब घर का उजाला
एक बहन थी एक बहनेली यों ही बहुत दिन गुड़िया मैं
खेली, कभी अकेली कभी दुकेली
जिससे कहा चल तमाशा दिखा ला, उसने उठाकर गोद में ले ली
कुछ-कुछ मोहिं समझ जो आई, एक जा ठहरी मेरी सगाई
आवन लागे बाम्हन-नाई, कोई ले रुपय्या कोई ले धेली
ब्याह का मोरे समॉं जब आया, तेल चढ़ाया मँड़ा छबाया
साल़ू सूहा सभी पिन्हाया, मंहदी से रंग दिये हाथ-हथेली
सासरे के लोग आये जो मेरे, ढोल-दमामे बजे घनेरे
सुभ घड़ी सुभ दिन हुए जो फेरे, सैंयाँ ने मोहे साथ में ले ली
आये बराती सब रस रंग के, लोग कुटम के सब हँस-हँस के
चावत थे सब घर से निकले, और के घर में जाय धकेली
लेके चले पी साथ जब अपने, रोवन लागे फिर सब अपने
कहा कि तू नहिं बसक़ी अपने,जा बच्ची! तेरा दाता है बेली
सखी ! पिया के साथ गयी मैं, ऐसी गयी फिर वहीं रही मैं
किससे कहूँ दुख हाय दई! मैं, सय्यॉं ने मोरी बाँह गहेली
सास जो चाहे सोई सुनावे, ननद भी बैठी बात बनावे
क्या करूँ कुछ बन नहीं आवे, जैसी पड़ी मैं वैसी ही झेली
जिया बियाकुल रोवत अँखियाँ, कहाँ गयीं सब संग की सखियाँ
'शौक़ रंग' गुड़ियाँ ताक पै रखियाँ, ना वो घर है ना वो हवेली
अशआर
ऐबो-हुनर न पूछो तुम, आदमी में क्या है
तुम में भी कुछ-न-कुछ है प्यारे हमीं में क्या है
दोनों हैं एक हमको, जाने-बला हमारी
अफ़सुरदगी में क्या है, और ख़ुर्रमी में क्या है
ख़ूब ढूँढ़ा ख़ूब देखा कुछ नज़र आया नहीं
आज तक अपने में हमने आपको पाया नहीं
चश्मे-ज़ाहिर-बीं से तो देखा नहीं जाता है यार!
तुमने भी, ऐ दिल की आँखो, उसको दिखलाया नहीं
शक्सत शीशए-दिल क्या कहूँ, कि इक आवाज़
तेरे भी कान में ऐ दिल-शिकन ! गयी होगी
समझता बुतपरस्ती क़ुफ्र, नादानी इसी में है
कि है यह ऐन ईमॉं, और मुसलमानी इसी में है
जूँ बुए-गुल रफ़ीके-नसीमे-चमन हैं हम
ऐ दोस्तो ! वतन में, गरीबुल-वतन हैं हम
समझकर जो बुरा मुझको, बुरा कहते हैं कहने दो
कि सच है-मैं बुरा हूँ, वह बजा कहते हैं-कहने दो
यह नक़्शा हो गया है मेरा, सौदाए-मुहब्बत में
मेरी सूरत, मेरे यारों से पहचानी नहीं जाती
दोस्त अपने हुए 'ज़फ़र' दुश्मन
इस मुसीबत को कौन पहचाने
ख़ुदा जाने कि हम दिल-सोख़्ता क्या-क्या कहें लेकिन
ज़बाँ अपनी नहीं जू शम्अए-महफ़िल अपने कहने में
शाहों के मक़बरों से अलग दफ़न कीजियो
हम बेकसों को गोरे-गरेबाँ पसन्द है
गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख़्ते लन्दन तक चलेगी तेग़ हिदुस्तान की
तमाशे गर्दिशे-दौराँ ने हमको खूब दिखलाये
हुआ क्या-क्या हमारे- इन्क़लाब आँखों के आगे है
ऐतबारे-सब्रो-ताक़त ख़ाक मैं रक्खूँ 'ज़फ़र'
फ़ौजे-हिन्दुस्तान ने कब साथ टीपू का दिया?
ग़ुरबत में अगर आबे-बक़ा भी हो तो इससे
बेहतर मेरे नज़दीक है ख़ाके-वतने-ख़ुश्क
'ज़फ़र' क्या पूछता है राह मुझसे, उसके मिलने की
इरादा हो अगर तेरा, तो हर जानिब से रस्ता है
बहार आई, असीराने-क़फ़स आपस में कहते हैं
फड़क कर तोड़ना है गर क़फ़स, तैयार हो जाओ
मंजिले-इश्क़ बहुत दूर है अल्लाह-अल्लाह
एक ही गाम पै तुम थम के 'जफर' बैठ गये
ह म तो चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़
हम तो चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़
बुतकदे के बुतों ख़ुदा हाफ़िज़
कर चुके तुम नसीहतें हम को
जाओ बस नासेहो ख़ुदा हाफ़िज़
आज कुछ और तरह पर उन की
सुनते हैं गुफ़्तगू ख़ुदा हाफ़िज़
बर यही है हमेशा ज़ख़्म पे ज़ख़्म
दिल का चाराग़रों ख़ुदा हाफ़िज़
आज है कुछ ज़ियादा बेताबी
दिल-ए-बेताब को ख़ुदा हाफ़िज़
क्यों हिफ़ाज़त हम और की ढूँढें
हर नफ़स जब कि है ख़ुदा हाफ़िज़
चाहे रुख़्सत हो राह-ए-इश्क़ में अक़्ल
ऐ "ज़फ़र" जाने दो ख़ुदा हाफ़िज़
ग़ज़लें
1.
मेरी आँख बन्द थी जब तलक, वह नजर में नूरे-जमाल था खुली आँख तो न ख़बर रही, कि वह ख़्वाब था कि ख़याल था
कहो इस तसव्वुरे-यार को, कहूँ क्यों न खिज्रे-खुजस्ता पा
कि यही तो दस्ते-फिराक़ में मुझे रहनुमा-ए-विसाल था
मेरे दिल में था कि कहूँगा मैं, यह जो दिल में रंजो-मलाल था
वह जब आ गया मेरे सामने, तो न रंज था न मलाल था
वह है बेवफ़ा, वह है पुरजफ़ा, वहाँ लुत्फ़ कैसा, वफ़ा कहाँ फ़क्त अपना वह्यो-ख़याल था यह ख़याल अम्रे-महाल था
पसे-परदा सुन के तेरी सदा मेरा शौक़े-दीद जो बढ़ गया
मुझे इज़तराबे-कमाल था, यही वज्द था, यही हाल था
'ज़फ़र' उससे छुट के जो जस्त की, तो ये जाना हमने कि वाक़ई
फ़क़्त एक क़ैद ख़ुदी की थी, क़फ़स था कोई न जाल था
2.
जिस जहाँ से कि हम आये, वह जहाँ कौन सा है?
जिस मकॉं में थे कि हम आगे, वह मकॉं कौन सा है?
बे-निशाँ मिट के हुए जब रविशे-नक़्शे-क़दम
ढूँढ़ें क्या ख़ाक, कि हस्ती का निशाँ कौन सा है?
जिससे सब गुंचों ने आज़ारे-सितम सीखा है
नहीं मालूम कि वह ग़ुंचा वहाँ कौन सा है?
सब-के-सब कर चुके इफ़शा मेरी चाहत की निग:
तुझसे अब राज़ रहा दिल का निहाँ कौन सा है?
सैकड़ो दिल तेरे कूचे में हैं मालूम नहीं
उनमें मेरा दिले-बेताबोतवाँ कौन सा है?
सारे ख़ूबाँ हैं 'ज़फ़र' आफ़ते-दिल, आफ़ते जाँ
उनमें आरामे-दिलो-राहतेजाँ कौन सा है?
3.
या मुझे अफ़सरे-शाहाना बनाया होता
या मेरा ताज गदायाना बनाया होता
अपना दिवाना बनाया मुझे होता तूने
क्यों खिरदमंद बनाया, न बनाया होता
ख़ाकसारी के लिए गरचे बनाया था मुझे
काश ख़ाके-दरे-ज़ानाना बनाया होता
नशए-इश्क़ का गर ज़ौक़ दिया था मुझको
उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता
था जलाना ही अगर दूरी-ए-साक़ी से मुझे
तो चिराग़-ए-दरे-मयख़ाना बनाया होता
रोज़ मामूर-ए-दुनिया में ख़राबी है 'ज़फ़र'
ऐसी बस्ती से तो वीराना बनाया होता
4.
किसी को हमने याँ अपना ना पाया जिसे पाया उसे बेगाना पाया
कहाँ ढूँढ़ा उसे किस जा ना पाया कोई पर ढूँढ़ने वाला न पाया
उड़ा कर आशियाँ सरसर ने मेरा किया साफ़ इस क़दर तिनका न पाया
उसे पाना नहीं आसॉं, कि हमने न जब तक आपको खोया, न पाया
दवाए-दर्दे-दिल मैं किस से पूछूँ तबीबे-इश्क़ को ढूँढा न पाया
5.
किसी ने उसको समझाया तो होता कोई याँ तक उसे लाया तो होता
मज़ा रखता है ज़ख्मे-ख़ंजरे-इश्क़ कभी ऐ बुलहविस! खाया तो होता
न भेजा तूने लिखकर एक परचा हमारे दिल को परचाया तो होता
जो कुछ होता सो होता, तूने तक़दीर! वहाँ तक मुझको पहुँचाया तो होता
6.
तेरे जिस दिन से ख़ाक-पा हैं हम ख़ाक हैं एक कीमिया हैं हम
हम-दमो मिसले-सूरते-तस्वीर क्या कहें तुमसे, बेसदा हैं हम
हम हैं जूँ ज़ुल्फ़े-आरिज़े-ख़बाँ गो परेशाँ है खुशनुमा हैं हम
ऐ 'ज़फ़र' पूछता है हमको सनम क्या कहें बन्द-ए-खुदा हैं हम
7.
भली कहते बुराई होती है मुँह से निकली पराई हाती है
और को देख वह नहीं सकते वह जिन्हें खुदनुमाई होती है
मर्ज़े-इश्क़ की तबीबों से दोस्तो! कब दवाई होती है
सोज़े-ग़म से न जल बुझा क्योंकर, वाँ लगाई-बुझाई होती है
अपने मरने का ग़म नहीं लेकिन हाय तुझ से जुदाई होती है
ऐ ज़फ़र है जिधर वह बुत फिरता उस तरफ़ सब खुदाई होती है
8.
उस दर पै जो सर मार के रोता कोई होता
तो बिस्तरे-राहत पै न सोता कोई होता
किसका फ़लके-अव्वलो-हफ़्तम कि मेरा अश्क
एक आँख झपकने में डुबोता कोई होता
यह दिल ही था नादॉं कि तेरी ज़ुल्फ़ से उलझा
यूँ अपने लिए ख़ार न बोता कोई होता
बुलबुल भी थी जॉं-बाख़्ता, परवाना भी जॉंबाज़
पर मेरी तरह जान न खोता कोई होता
तन्हाई में इतना तो न घबराता 'ज़फ़र' मैं
दिल गरचे मेरे पास न होता, कोई होता
9.
रात भर मुझको ग़मे-यार ने सोने न दिया
सुबह को खौफ़े-शबेतार ने सोने न दिया
शमा की तरह मुझे रात कटी सूली पर
चैन से यादेकदे-यार ने सोने न दिया
ऐ दिलाज़ार! तू सोया किया आराम से रात
मुझे पल भर भी दिलेज़ार ने सोने न दिया
मैं वह मजनूँ हूँ कि जिन्दॉं मैं निगहबानों की
मेरी ज़ंजीर की झंकार ने सोने न दिया
यासों-ग़म रंजो-अलम मेरे हुए दुश्मने -जाँ
ऐ 'ज़फ़र' शब इन्हीं दो चार ने सोने न दिया
10.
वह मेरी जाँमेरे पास आये तो क्या अच्छा हो
और नहीं, जान निकल जाये तो क्या अच्छा हो
नहीं मालूम कि मैं कौन हूँ? अच्छा कि बुरा
कोई इस भेद को बतलाये तो क्या अच्छा हो
साग़रे-जम में जो आती थी नज़र कैफियत
वह नज़र दिल में ही आ जाये तो क्या अच्छा हो
कुचए-तंग है दुनिया नहीं आराम की जा
याँ कोई, पॉंव न फैलाये तो क्या अच्छा हो
आये सब एक नज़र, यह दुई का परदा
ऐ 'ज़फ़र' आँख से उठ जाये तो क्या अच्छा हो
|