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	अवध के राज मन्दिरों मध्य। 
	एक आलय था बहु-छबि-धाम॥ 
	खिंचे थे जिसमें ऐसे चित्र। 
	जो कहाते थे लोक-ललाम॥1॥ 
	दिव्य-तम कारु-कार्य अवलोक। 
	अलौकिक होता था आनन्द॥ 
	रत्नमय पच्चीकारी देख। 
	दिव विभा पड़ जाती थी मन्द॥2॥ 
	कला कृति इतनी थी कमनीय। 
	दिखाते थे सब चित्र सजीव॥ 
	भाव की यथातथ्यता देख। 
	दृष्टि होती थी मुग्ध अतीव॥3॥ 
	अंग-भंगी, आकृति की व्यक्ति। 
	चित्र के चित्रण की थी पूर्ति॥ 
	ललित तम कर की खिंची लकीर। 
	बनी थी दिव्य-भूति की मूर्ति॥4॥ 
	देखते हुए मुग्धकर-चित्र। 
	सदन में राम रहे थे घूम॥ 
	चाह थी चित्रकार मिल जाए। 
	हाथ तो उसके लेवें चूम॥5॥ 
	इसी अवसर पर आया एक- 
	गुप्तचर वहाँ विकंपित-गात॥ 
	विनत हो वन्दन कर कर जोड़। 
	कही दुख से उसने यह बात॥6॥ 
	प्रभो यह सेवक प्रात:काल। 
	घूमता फिरता चारों ओर॥ 
	उस जगह पहुँचा जिसको लोग। 
	इस नगर का कहते हैं छोर॥7॥ 
	वहाँ पर एक रजक हो क्रुध्द। 
	रोक कर गृह प्रवेश का द्वार॥ 
	त्रिया को कड़ी दृष्टि से देख। 
	पूछता था यह बारम्बार॥8॥ 
	बिताई गयी कहाँ पर रात्रि। 
	लगा कर लोक-लाज को लात॥ 
	पापिनी कुल में लगा कलंक। 
	यहाँ क्यों आयी हुए प्रभात॥9॥ 
	चली जा हो ऑंखों से दूर। 
	अब यहाँ क्या है तेरा काम॥ 
	कर रही है तू भारी भूल। 
	जो समझती है तू मुझको राम॥10॥ 
	रहीं जो पर-गृह में षट्मास। 
	हुई है उनकी उन्हें प्रतीति॥ 
	बड़ों की बड़ी बात है किन्तु। 
	कलंकित करती है यह नीति॥11॥ 
	प्रभो बतलाई थी यह बात। 
	विनय मैंने की थी बहु बार॥ 
	नहीं माना जाता है ठीक। 
	जनकजा पुनर्ग्रहण व्यापार॥12॥ 
	आदि में थी यह चर्चा अल्प। 
	कभी कोई कहता यह बात॥ 
	और कहते भी वे ही लोग। 
	जिन्हें था धर्म-मर्म अज्ञात॥13॥ 
	अब नगर भर में वह है व्याप्त। 
	बढ़ रहा है जन चित्त-विकार॥ 
	जनपदों ग्रामों में सब ओर। 
	हो रहा है उसका विस्तार॥14॥ 
	किन्तु साधारण जनता मध्य। 
	हुआ है उसका अधिक प्रसार॥ 
	उन्हीं के भावों का प्रतिबिम्ब। 
	रजक का है निन्दित-उद्गार॥15॥ 
	विवेकी विज्ञ सर्व-बुध-वृन्द। 
	कर रहे हैं सद्बुध्दि प्रदान॥ 
	दिखाकर दिव्य-ज्ञान-आलोक। 
	दूर करते हैं तम अज्ञान॥16॥ 
	अवांछित हो पर है यह सत्य। 
	बढ़ रहा है बहु-वाद-विवाद॥ 
	प्रभो मैं जान सका न रहस्य। 
	किन्तु है निंद्य लोक-अपवाद॥17॥ 
	राम ने बनकर बहु-गंभीर। 
	सुनी दुर्मुख के मुख की बात॥ 
	फिर उसे देकर गमन निदेश। 
	सोचने लगे बन बहुत शान्त॥18॥ 
	बात क्या है? क्यों यह अविवेक?। 
	जनकजा पर भी यह आक्षेप॥ 
	उस सती पर जो हो अकलंक। 
	क्या बुरा है न पंक-निक्षेप॥19॥ 
	निकलते ही मुख से यह बात। 
	पड़ गयी एक चित्र पर दृष्टि॥ 
	देखते ही जिसके तत्काल। 
	दृगों में हुई सुधा की वृष्टि॥20॥ 
	दारु का लगा हुआ अम्बार। 
	परम-पावक-मय बन हो लाल॥ 
	जल रहा था धू-धू ध्वनि साथ। 
	ज्वालमाला से हो विकराल॥21॥ 
	एक स्वर्गीय-सुन्दरी स्वच्छ- 
	पूततम-वसन किये परिधान॥ 
	कर रही थी उसमें सुप्रवेश। 
	कमल-मुख था उत्फुल्ल महान॥22॥ 
	परम-देदीप्यमान हो अंग। 
	बन गये थे बहु-तेज-निधन॥ 
	दृगों से निकल ज्योति का पुंज। 
	बनाता था पावक को म्लान॥23॥ 
	सामने खड़ा रिक्ष कपि यूथ। 
	कर रहा था बहु जय-जय कार॥ 
	गगन में बिलसे विबुध विमान। 
	रहे बरसाते सुमन अपार॥24॥ 
	बात कहते अंगारक पुंज। 
	बन गये विकच कुसुम उपमान। 
	लसी दिखलाईं उस पर सीय। 
	कमल पर कमलासना समान॥25॥ 
	देखते रहे राम यह दृश्य। 
	कुछ समय तक हो हो उद्ग्रीव॥ 
	फिर लगे कहने अपने आप। 
	क्या न यह कृति है दिव्य अतीव॥26॥ 
	मैं कभी हुआ नहीं संदिग्ध। 
	हुआ किस काल में अविश्वास॥ 
	भरा है प्रिया चित्त में प्रेम। 
	हृदय में है सत्यता निवास॥27॥ 
	राजसी विभवों से मुँह मोड़। 
	स्वर्ग-दुर्लभ सुख का कर त्याग॥ 
	सर्व प्रिय सम्बन्धों को भूल। 
	ग्रहण कर नाना विषय विराग॥28॥ 
	गहन विपिनों में चौदह साल। 
	सदा छाया सम रह मम साथ॥ 
	साँसतें सह खा फल दल मूल। 
	कभी पी करके केवल पाथ॥29॥ 
	दुग्ध फेनोपम अनुपम सेज। 
	छोड़ मणि-मण्डित-कंचन-धाम॥ 
	कुटी में रह सह नाना कष्ट। 
	बिताए हैं किसने वसुयाम॥30॥ 
	कमलिनी-सी जो है सुकुमार। 
	कुसुम कोमल है जिसका गात॥ 
	चटाई पर या भू पर पौढ़। 
	बिताई उसने है सब रात॥31॥ 
	देख कर मेरे मुख की ओर। 
	भूलते थे सब दुख के भाव॥ 
	मिल गये कहीं कंटकित पंथ। 
	छिदे किसके पंकज से पाँव॥32॥ 
	नहीं घबरा पाती थी कौन। 
	देख फल दल के भाजन रिक्त॥ 
	बनाती थी न किसे उद्विग्न। 
	टपकती कुटी धरा जल सिक्त॥33॥ 
	भूल अपना पथ का अवसाद। 
	बदन को बना विकच जलजात॥ 
	पास आ व्यजन डुलाती कौन। 
	देख कर स्वेद-सिक्त मम गात॥34॥ 
	हमारे सुख का मुख अवलोक। 
	बना किसको बन सुर-उद्यान॥ 
	कुसुम कंटक, चन्दन, तप-ताप। 
	प्रभंजन मलय-समीर समान॥35॥ 
	कहाँ तुम और कहाँ वनवास। 
	यदि कभी कहता चले प्रसंग॥ 
	तो विहँस कहतीं त्याग सकी न। 
	चन्द्रिका चन्द्र देव का संग॥36॥ 
	दिखाया किसने अपना त्याग। 
	लगा लंका विभवों को लात॥ 
	सहे किसने धारण कर धीर। 
	दानवों के अगणित-उत्पात॥37॥ 
	दानवी दे दे नाना त्रास। 
	बनाकर रूप बड़ा विकराल॥ 
	विकम्पित किसको बना सकी न। 
	दिखाकर बदन विनिर्गत ज्वाल॥38॥ 
	लोक-त्रासक-दशआनन भीति। 
	उठी उसकी कठोर करवाल॥ 
	बना किसको न सकी बहु त्रस्त। 
	सकी किसका न पतिव्रत टाल॥39॥ 
	कौन कर नाना-व्रत-उपवास। 
	गलाती रहती थी निज गात॥ 
	बिताया किसने संकट-काल। 
	तरु तले बैठी रह दिन रात॥40॥ 
	नहीं सकती जो पर दुख देख। 
	हृदय जिसका है परम-उदार॥ 
	सर्व जन सुख संकलन निमित्त। 
	भरा है जिसके उर में प्यार॥41॥ 
	सरलता की जो है प्रतिमूर्ति। 
	सहजता है जिसकी प्रिय-नीति॥ 
	बड़े कोमल हैं जिसके भाव। 
	परम-पावन है जिसकी प्रीति॥42॥ 
	शान्ति-रत जिसकी मति को देख। 
	लोप होता रहता है कोप॥ 
	मानसिक-तम करता है दूर। 
	दिव्य जिसके आनन का ओप॥43॥ 
	सुरुचिमय है जिसकी चित-वृत्ति। 
	कुरुचि जिसको सकती है छू न॥ 
	हृदय है इतना सरस दयार्द्र। 
	तोड़ पाते कर नहीं प्रसून॥44॥ 
	करेगा उस पर शंका कौन। 
	क्यों न उसका होगा विश्वास॥ 
	यही था अग्नि-परीक्षा मर्म। 
	हो न जिससे जग में उपहास॥45॥ 
	अनिच्छा से हो खिन्न नितान्त। 
	किया था मैंने ही यह काम॥ 
	प्रिया का ही था यह प्रस्ताव। 
	न लांछित हो जिससे मम नाम॥46॥ 
	पर कहाँ सफल हुआ उद्देश। 
	लग रहा है जब वृथा कलंक॥ 
	किसी कुल-बाला पर बन वक्र। 
	जब पड़ी लोक-दृष्टि नि:शंक॥47॥ 
	सत्य होवे या वह हो झूठ। 
	या कि हो कलुषित चित्त प्रमाद॥ 
	निंद्य है है अपकीर्ति-निकेत। 
	लांछना-निलय लोक-अपवाद॥48॥ 
	भले ही कुछ न कहें बुध-वृन्द। 
	सज्जनों को हो सुने विषाद॥ 
	किन्तु है यह जन-रव अच्छा न। 
	अवांछित है यह वाद-विवाद॥49॥ 
	मिल सका मुझे न इसका भेद। 
	हो रहा है क्यों अधिक प्रसार॥ 
	बन रहा है क्या साधन-हीन। 
	लोक-आराधन का व्यापार॥50॥ 
	प्रकृति गत है, है उर में व्याप्त। 
	प्रजा-रंजन की नीति-पुनीत॥ 
	दण्ड में यथा-उचित सर्वत्र। 
	है सरलता सद्भाव गृहीत॥51॥ 
	न्याय को सदा मान कर न्याय। 
	किया मैंने न कभी अन्याय॥ 
	दूर की मैंने पाप-प्रवृत। 
	पुण्यमय करके प्रचुर-उपाय॥52॥ 
	सबल के सारे अत्याचार। 
	शमन में हूँ अद्यापि प्रवृत्ता॥ 
	निर्बलों का बल बन दल दु:ख। 
	विपुल पुलकित होता है चित्त॥53॥ 
	रहा रक्षित उत्तराधिकार। 
	छिना मुझसे कब किसका राज॥ 
	प्रजा की बनी प्रजा-सम्पत्ति। 
	ली गयी कभी न वह कर व्याज॥54॥ 
	मुझे है कूटनीति न पसंद। 
	सरलतम है मेरा व्यवहार॥ 
	वंचना विजितों को कर ब्योंत। 
	बचाया मैंने बारंबार॥55॥ 
	समझ नृप का उत्तर-दायित्व। 
	जान कर राज-धर्म का मर्म॥ 
	ग्रहण कर उचित नम्रता भाव। 
	कर्मचारी करते हैं कर्म॥56॥ 
	भूल कर भेद भाव की बात। 
	विलसिता समता है सर्वत्र॥ 
	तुष्ट है प्रजामात्र बन शिष्ट। 
	सीख समुचित स्वतंत्रता मन्त्र॥57॥ 
	परस्पर प्रीति का समझ लाभ। 
	हुए मानवता की अनुभूति॥ 
	सुखित है जनता-सुख-मुख देख। 
	पा गए वांछित सकल-विभूति॥58॥ 
	दानवों का हो गया निपात। 
	तिरोहित हुआ प्रबल आतंक॥ 
	दूर हो गया धर्म का द्रोह। 
	शान्तिमय बना मेदिनी अंक॥59॥ 
	निरापद हुए सर्व-शुभ-कर्म। 
	यज्ञ-बाधा का हुआ विनाश॥ 
	टल गया पाप-पुंज तम-तोम। 
	विलोके पुण्य-प्रभात-प्रकाश॥60॥ 
	कर रहे हैं सब कर्म स्वकीय। 
	समझ कर वर्णाश्रम का मर्म॥ 
	बन गये हैं मर्यादा-शील। 
	धृति सहित धारण करके धर्म॥61॥ 
	विलसती है घर-घर में शान्ति। 
	भरा है जन-जन में आनन्द॥ 
	कहीं है कलह न कपटाचार। 
	न निन्दित-वृत्ति-जनित छल-छन्द॥62॥ 
	हुए उत्तेजित मन के भाव। 
	शान्त बन जाते हैं तत्काल॥ 
	याद कर मानवता का मन्त्र। 
	लोक नियमन पर ऑंखें डाल॥63॥ 
	समय पर जल देते हैं मेघ। 
	सताती नहीं ईति की भीति॥ 
	दिखाते कहीं नहीं दुर्वृत। 
	भरी है सब में प्रीति प्रतीति॥64॥ 
	फिर हुई जनता क्यों अप्रसन्न। 
	हुआ क्यों प्रबल लोक-अपवाद॥ 
	सुन रहे हैं क्यों मेरे कान। 
	असंगत अ-मनोरम सम्वाद॥65॥ 
	लग रहा है क्यों वृथा कलंक। 
	खुला कैसे अकीर्ति का द्वार॥ 
	समझ में आता नहीं रहस्य। 
	क्या करूँ मैं इसका प्रतिकार॥66॥ 
	दोहा 
	इन बातों को सोचते, कहते सिय गुण ग्राम। 
	गये दूसरे गेह में, धीर धुरंधर राम॥67॥ 
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