बाम पर जाने माहताब उतरी
चढ़ गयी या कहें शराब उतरी
शब हुई जैसे खुल गये गेसू[1]
दिन हुआ जिस तरह नक़ाब उतरी
मुझ से बातें करे तो ऐसा लगे
जैसे मुझपर कोई किताब उतरी
हल मसाइल[2] के साथ भेजे गये
ग़म के मद्दे-नज़र शराब उतरी
हुस्न से आख़िरश शबाब उतरा
राज़े आलम से यूँ नक़ाब उतरी
नींद उड़ी लेके वो जो आँखों में
नीमवा[3] दीदा-ए-ख़राब[4] उतरी