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यात्रावृत्त

दर्रों का सिरमौर : कालिंदी खाल

अजय सोडानी


एवालांच और कालिंदी चोटियों के नीचे, बर्फ के एक अतिविशाल क्षेत्र पर टेंट लगे हैं। जहाँ बर्फ की चह चादर है, जिसके क नीचे कम से कम बीस-तीस फीट गहरी खाई होगी - जो कि बर्फ की वजह से एकदम समतल हो गई है। इस मौसम में आने का एक फायदा और मिला कि कालिंदी पास तक जाने की चढ़ाई तीस फीट कम हो गई, उन्‍नीस हजार फीट पर हर फीट एक मील सरीखा लम्‍बा लगता है - चलने में भी और दिखने में भी। इस मान से तीस फीट चढ़ने की मेहनत से बचना कल हमारे लिए महत्‍वपूर्ण साबित हो सकता था। टेंट का मुँह कालिंदी से विपरीत रखा गया था। ऐसा सोनी ने दो कारणों से किया था। पहला कारण था कि अगर सामने दर्रा दिखता रहा तो उस पर स्थित क्रेवास गिन-गिनकर हम अपनी हिम्‍मत खो देंगे। दूसरा कारण था एवालांच चोटी से रूक-रूककर हो रहे बर्फ-स्‍खलन को नजर अंदाज करना - यहाँ अगर हम हिम्‍मत हार गए और पीछे लौट जाने की जिद कर बैठे तो वह कहीं अधिक खतरनाक होगा आगे जाने के बनिस्‍बत।

रात को दो बजे उठता है - तैयार होकर - तीन बजे के आस-पास कालिंदी दर्रे की ओर बढ़ना है ऐसी योजना बनी शाम का भोजन करते समय। हमें हिदायत दी गई कि हम अपने जूते और जैकेट न खोलें। जूतों के तस्‍मे भी ढीले न करें - इनके समेत ही सोना था हमें। सुनने में अटपटा लगा - लेकिन कारण तब समझ में आया जब रात को दो बजे के लगभग रनी टेंट में चाय देने आया। मेरा हाथ जो कि दस्‍तानों में नहीं था, चाय के गिलास को पकड़ नहीं पा रहा था - ठंड से उँगलियाँ लकड़ी जैसी हो गई थीं - संवेदना विहीन। जड़ और चैतन्‍य का फर्क मैं साफ महसूस कर पा रहा था। मैं कोहनी तक चैतन्‍य था - पंजे से जड़। अगर जूते खोल दिए होते तो पैरों का हाल भी ऐसा ही हो जाना था - जूते पुन: पहनना और उनके फीते बाँध पाना असंभव कार्य हो जाता। रनी ने चाय का गिलास मेरे हाथों की अधखुली मुट्ठी में ठूँसा और हँसते हुए कहा, 'सर जी दस्‍ताने क्‍यों खोल दिए?' गिलास की गर्मी, गिलास की छोड़, हथेलियों में समाने लगी और उसके साथ ही उँगलियाँ गतिशील होने लगीं और गतिशील होने लगा मन। उस गिलास के प्रति, जिसके कारण मेरे पंजों का जड़त्‍व दूर हो रहा था, मन में आदर का भाव उत्‍पन्‍न हुआ। यहाँ उष्‍णता का नितांत अभाव होने के बावजूद उसने ऊर्जा का संग्रहण करने का लालच नहीं किया, बल्कि वह अपने अंदर समाहित ऊर्जा को दिल खोलकर मुझे प्रदान कर रहा था। गिलास को काफी समय तक हथेलियों के बीच घुमाने के बाद उँगलियों के पैरों पर झनझनाहट के रूप में जीवन लौट आया। पूरे एहतराम के साथ गिलास को टेंट के बाहर रखकर हम तीनों ने भी आगे की यात्रा शुरू करने के लिए अपने कदम बाहर निकाले। नौ तहों से अपने तन को ढक लेने के बावजूद भी ठंड चीरते हुए सीने से टकराई और तेज खाँसी का दौर चलने लगा अपर्णा को। थोड़ी देर चहल-कदमी करके भी जब सहज नहीं हो पाए तो किचन टेंट में जाकर बैठ गए, जहाँ स्‍टोव की गर्मीतथा अन्‍य साथियों के शरीर की उष्‍मा के बीच जल्‍द ही सब कुछ सामान्‍य लगने लगा।

दूध और कार्नफ्लेक्‍स खाकर, अपनी जेब में मेवे और पानी की बोतल में उबलता पानी भरकर जब हम किचन टेंट से बाहर निकले तब सुबह के साढ़े-तीन का समय हो रहा था। एवालांच पर्वत की बर्फ भी ठंड में कुड़ककर शांत हो चुकी थी, अत: उसका स्‍खलन कुछ देर के लिए ही सही रूक गया था। हमने एक साथ कहा - 'जय बद्रीविशाल' तथा ऊपर की ओर चलने लगे।

कुछ देर चले कि पीछे से सोनी, रनी और हमारा रसोइया नवीन, भी आ गए। नवीन के पास एक लंबी रस्‍सी थी। हमें रस्‍सी में बँधकर एक के पीछे एक होकर चलना था। नवीन आगे बढ़ा, उसने रस्‍सी का एक सिरा स्‍वयं की कमर में बाँधा, उससे दस फीट नीचे अद्वैत, फिर मैं और मुझसे कोई पंद्रह फीट पीछे (नीचे) अपर्णा और अंत में रनी भी कमर से रस्‍सी में बँध गए। सोनी रस्‍सी के बाहर हमारे साथ-साथ ही ऊपर आने लगा।

सुबह करीब चार बजे लगा कि किसी ने दर्रे पर नीले रंग का कोई नाइट लैंप लगा दिया हो - जिसकी रोशनी पर्याप्‍त थी चारों ओर देखने के लिए - अत: हमने अपने हेडलैंप बंद कर दिए। घर पर तो एक छोटे से कमरे में भी, एक साथ, दो-तीन प्रकाश स्‍त्रोत चालू रखने में कभी सोच नहीं आती थी, लेकिन यहाँ यदि टार्च एक मिनट भी अनावश्‍यक रूप से जलती रह जाए तो दिल छोटा होने लगता है कि ऊर्जा (ड्रायसेल) सीमित म़ात्रा में ही उपलब्‍ध है। पर वास्‍तविकता तो यही है कि हमारे पास ऊर्जा के समस्‍त साधन सचमुच सीमित मात्रा में ही तो उपलब्‍ध है - पर शहरों में रहते हुए कभी इस मामूली लेकिन महत्‍वपूर्ण तथ्‍य की ओर ध्‍यान ही नहीं गया। सच है हम अनेक तत्‍थों को जानते तो हैं - लेकिन उन्‍हें समझ नहीं पाते। जानने और समझने के बीच कितना गहरा अंतर है।

'इतनी शक्ति (हाँफ-sss) हमें देना (हाँफ-sss) दाता, मन का विश्‍वास (हाँफ-sss)' अपर्णा गुनगुनाते हुए पीछे चल रही थी। इस ऊँचाई पर गुनगुनाने और चलने के साथ श्‍वास पर नियंत्रण कर सुरों को पकड़ना हालाँकि असंभव कार्य है फिर भी उखड़ी सा (साँसों से बँधे इन बोलों ने मन की शक्ति में बहुत इजाफा किया।

बर्फ अभी जमी हुई थी। यद्यपि पैर बर्फ में नहीं धँस रहे थे फिर भी क्रेवासों के कारण बहुत सँभलकर चलना जरूरी था। सँभलकर तो चलना है - लेकिन इतनी तेजी भी बनाए रखनी होगी कि हम नौ बजे के लगभग दर्रे पर पहुँच जाएँ। नौ बजे तक पहुँचने का यह कोई दुराग्रह नहीं था, बल्कि सोची-समझी योजना थी। क्‍योंकि जैसे सूर्य निकलेगा। बर्फ पिघलेगी - चलना मुश्किल होता जाएगा और बर्फ स्‍खलन की संभावना बढ़ती जाएगी। बर्फ पिघलने के साथ ही क्रेवास भी खुलने लगेंगे। हर वर्ष कई लोग इस दर्रे को पार करते हुए इन्‍हीं क्रेवासों में गिरकर या तो जख्‍मी होते हैं या फिर जान गवाँ देते हैं। चलते समय आपस में सामंजस्‍य भी बनाए रखना होगा - एक रस्‍सी से बँधे हैं - आगे वाला ज्‍यादा तेज चलने लगा तो पीछे वाला खिंचकर गिर जाएगा और पीछे वाला अचानक अगर रूक गया तो आगे वाले गिरते हुए पीछे आ जाएँगे और पूरी टीम नीचे जा गिरेगी। अत: तय किया कि दस कदम चलेंगे फिर एक मिनट रूकेंगे। चलना प्रारंभ करने से पहले आगे वाला गुहार लगाकर संकेत देगा। और अगर किसी को बीच में रूकता है तो संकेत देकर ही वह ऐसा करेगा।

क्रेवासों के आसपास की सँकरी बर्फ की पटि्टयों पर सँभलकर चलते हुए लगभग तीन घंटे हो चुके थे। अभी सूर्य उदय हुआ ही था कि तभी अपर्णा बुलंद आवाज में गाने लगी -

'इतनी शक्ति (हाँफ-sss) हमें देना (हाँफ-sss) दाता (हाँफ-sss)'

'क्‍यों अपनी ऊर्जा जाया कर रही हो, 'मैंने अपर्णा को चेताया, 'थकान बढ़ेगी।'

'मेरी ऊर्जा है, तुम्‍हारा क्‍या जो मन में आएगा, करूँगी।' यह अनपेक्षित उत्‍तर सुन मैं कुछ सकपका गया। ऐसी रूखी बात तो मैं उसके मुँह से पहली बार सुन रहा था। मुझे सोनी भी भूत वाली बात याद आई। डी.एन. ने भी इस बात की पुष्टि करते हुए बताया था कि कालिंदी पर चढ़ते-चढ़ते अनेक लोग बहक जाते हैं - बड़बड़ाते हैं, कई तो दौड़ने लगते हैं और कुछ क्रेवास में कूद तक जाते हैं। डी.एन. के अनुसार इस दर्रे के दोनों तरफ हर वर्ष मरने वाले लोग भूत बनकर पर्वता रोहियों को अड़ंगा लगाते हैं। मन में यह बात आते ही शरीर में सिरहन दौड़ गई। खुदा का शुक्र था कि इस वक्‍त तक तो, मुझसे लगभग बीस फीट नीचे चल रही, अपर्णा ठीक-ठाक नजर आ रही थी। रनी अपर्णा के साथ - साथ चलते हुए उसे कुछ समझाने की कोशिश कर रहा था।

'रनी उसे पानी पिलाओ,' मैंने सारी शक्ति एकत्रित करके जोर से कहा।

'पानी जम गया है (हाँफ-sss)... ही-ही..ही...' अपर्णा विचित्र रूप से हँसी और हाथ नचाने लगी मानो नाच रही हो।

उसे इस तरह अपनी शक्ति को जाया करते देख हम सब घबरा गए - सोनी अब तक अपर्णा के नजदीक पहुँच गया था। उसने आदेश दिया - 'दस मिनट आराम करेंगे।' हम जहाँ थे वहीं रूक गए - आराम खड़े-खड़े ही करना था, क्‍योंकि बैठकर पुन: उठने की प्रक्रिया में बहुत ऊर्जा जाया हो जाती है।

ऊपर से बहुत साफ नहीं दिख रहा था और नीचे जाना संभव नहीं था - जंजीरों में जकड़ा आदमी कैसा महसूस करता होगा इसका तीव्र एहसास मुझे हो रहा था। रस्‍सी में बँधे हम, आधे लटके और आधे खड़े, चुपचाप सोनी और रनी को देख रहे थे - अपर्णा से बात करते हुए। सोनी ने अपर्णा को जाने क्‍या समझाया - वह कुछ शांत लग रही थी। थोड़ी देर बाद हम फिर चलने लगे।

सूर्य निकल आया था, बर्फ पिघलने लगी थी, पाँव घुटने-घुटने तक धँस रहे थे - चलना मुश्किल से मुश्किलतर होता जा रहा था। अब हम एक बार में पाँच कदम ही चल रहे थे फिर एक मिनट आराम। एवालांच पीक पर बर्फ स्‍खलन होने लगा था - धड़-धड़ की तेज आवाजें रूक-रूककर कानों में पड़ने लगी थीं। सौभाग्‍य से हमारी तरफ वाले उसके हिस्‍से पर बर्फ नरम नहीं पड़ी थी, अत: अब तक हम बचे हुए थे, पर अगर हम अगले आधे से एक घंटे में ऊपर नहीं पहुँचे तो बचना मुश्किल हो जाएगा। मन घबरा रहा था - लेकिन पाँव थे कि आगे ही नहीं बढ़ रहे थे मानो किसी ने बाँध दिए हों। मेरे यूँ धीमे हो जाने से रस्‍सी खिंचने लगी और ऊपर चढ़ता हुआ अद्वैत चीखा 'पापाचलो ना, गिराओगे क्‍या' ठीक उसी वक्‍त मेरी कम के इर्द-गिर्द लिपटी रस्‍सी भी एक झटके से खिंची तथा मैं लड़खड़ाकर गिरते-गिरते बचा। मेरा ध्‍यान नीचे अपर्णा की ओर गया जो अपने पैर पसारे बर्फ पर बैठी हुई थी। उसने अपना फेदर जैकेट खोल दिया था और कैप उतारकर एक तरफ उछाल दी थी। वह चिल्‍ला रही थी, 'मुझे गर्मी लग रही है - मुझे नहीं पहनना यह सब, इतनी गर्म जगह क्‍यों ले आए तुम लोग मुझे' - रनी और सोनी हतप्रभ उसे देखे जा रहे थे। क्‍या करें। क्‍या वास्‍तव में उसे भूत लग गया है - मन में बचपन में सुनी गई सब भूत-प्रतों की कहानियाँ उमड़-घुमड़ कर सामने आ गईं। तभी नीचे से डी.एन. आ गया, उसने अपना बोझा उतारा और नेपाली में कुछ मंत्र पढ़कर अपर्णा पर फूँक मारने लगा - फिर जोर से चीखा -

'जा भाग-डाइन-भाग।'

अपर्णा अचानक खड़ी हुई और जोर-जोर से डी.एन. पर चिल्‍लाने लगी-वह भी धारा प्रवाह अंग्रेजी में - यू फूल, यू रन अवे, आई एम नॉट डाकन, यू आर डाकन, आई विल सिट हियर, आई एम लविंग इट।'

उसका रौद्र रूप देख डी.एन. सहमकर बोला - 'शाब जी, यह तो खतरनाक डाइन है।' और तेजी से अपने सामान को समेटने लगा।

मुझे समझ में नहींआ रहा था कि यह सब क्‍या था। फिर अचानक यह बात जेहन में आई कि हो न हो ये 'हाई एल्‍टीट्यूड सिकनेस' के लक्षण हैं। प्राण वायु की कमी के कारण और अत्‍यधिक ऊँचाई के कारण अपर्णा को सन्निपात हो गया था। ये दिमाग में सूजन होने के लक्षण भी हो सकते थे। उसे ऑक्‍सीजन देने की जरूरत थी, पर वह तो उपलब्‍ध नहीं थी। अभियान बिना ऑक्‍सीजन के पूरा करने की जिद में मैंने सोनी को ऑक्‍सीजन की टंकी नहीं लेने दी थी। अपर्णा के सिर पर जान का खतरा मँडरा रहा था। अब एक ही इलाज बचा था जो कारगर हो सकता था, फौरन नीचे का रूख करना।

कालिंदी खाल बस कुछ ही दूर था, उसे पार करके उस तरफ तेजी से उतरना होगा।

सोनी और रनी ने डी.एन. की सहायता से अपर्णा की कमर से रस्‍सी खोली और उसे उठाकर लगभग भागते हुए दर्रे की ओर चल पड़े। हमारे पाँवों में भी मानो पंख लग गए। लगभग सवा नौ बजे हम दर्रे पर खड़े थे, 19890 फीट की ऊँचाई पर।


''प्रो. खैरा कैसे हैं? ' मैंने पूछा।

वैदू - 'अरे हाँ! उनको तो मैं भूल ही गया। जब वे बीमार पड़े थे मैंने चौकी जाकर उनका इलाज किया था... तीसरे दिन मैं फिर चौकी पर गया।वे स्‍टोव पर चाय बना रहे थे। मुझे देख मुस्‍कुराये, बोले - फकीरचंद तुमने अच्‍छी दवाई दी, तबियत ठीक हो रही है, आज तुम्‍हारे पास आने वाला था। बैठो तुम्‍हें कुछ बताना है। मैं चौकी पर बैठ गया। उन्‍होंने दो ग्‍लासों में चाय छानी। एक ग्‍लास मुझे दिया, दूसरा लेकर खाट पर बैठ गए।'

चाय पीते-पीते बोले - 'कल रात कोई एक बजे 'दादी' लोग आये थे। मेरे पास लामू और फलवा बैठे थे, उन लोगों के साथ चुक्‍ती पानी का सुग्रीव बैगा था। लामू - फुलवा पहचानकर खड़े हो गए। बोले - 'लाल-सलाम'। वे पाँच थे, उनमें वो जवान लड़की भी थी बैहर तरफ की जो अब 'दलम' में शामिल हो गई है।'

सुनकर मैं चौंक गया। वैदू को टोककर पूछा - 'कोई डाकुओं का दल है ये दादी लोग?'

वैदू - 'नहीं-नहीं, ये नक्‍सलवादी टोली है, इनको ही 'दादी' कहते हैं। जब भी जंगल में या गांव में मिल जाते हैं?' 'लाल सलाम' कहते हैं।'

'तो यहां भी नक्‍सलवादी हैं?' मैंने पूछा


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