गंगा के तट पर
पटना में
पक्षियों की कूज
कव्वों की काँव काँव की
ध्वनियों के साथ-साथ
फुसफुसाती हवा की
चुप्पी बहती है,
शांत सतह के एकदम नीचे
मध्य में
गंगा आधी पार कर लेने पर
पानी के ताबूतों में सोए हुए
अतीत के भूत जाग उठते हैं
मुझे घूरते हुए
विकृत अपवर्तित और बहुस्तरीय
सवाल उठाते हुए
अर्थों और छवियों के
गाढे चक्रों के रूप में
धीरे-धीरे मेरे सीने पर लोटते हैं
लश्कर नाव
मुझे ले जाने के लिए तैयार करती है
बिहार के धड़कते दिल में
मधुबनी की
दर्शन की
जानकी की धरती पर
गद्दी और बकरियाँ
कुड़कुड़ाती बकरियाँ और ठेलती भेड़ें
उनकी खाल के छोरों को छूने वाली
टेढ़ी-मेढ़ी भ्रमित पगडंडियों पर
झुंड में चलती हैं
हिमालयी ढलानों पर कंकड़ की तरह लुढ़कती हुई
कई मिमियाते मेमने
उनके कपड़ों की कुख से झाँकते हैं
गद्दी के थके पाँव
कई कदम पीछे घिसटते हैं
चिल्लाना और आर्तनाद सुनते, ध्यान देते हुए
हाथ में धमकाने वाली बलूत की छड़ी
चट्टानों के चोटी पर खड़ी भेड़ों की तरफ घुमाते हुए,
दूसरी भुजा में फड़कते बच्चों को चिमटाते हुए
मेरे दोस्त,
तुम्हारे कोमल बालों से
कई गुणा महीन पश्म कपड़े से बुना
तुम्हारे शाल का पशमीना
क्या तुमसे कानाफूसी नहीं करता?
प्यार के कोमल तंतुओं की बात नहीं करता?
इसकी गर्मी में तुम अंडे तो नहीं उबाल सकते
न ही इसके हल्केपन में तुम उड़ोगे
मगर जो तुमने अपने इर्द-गिर्द लपेट रखा है
वह तो जुदाई पर बरसने वाला या
अपनी गर्मी से प्रमुदित नदियों में
पिघलने के लिए तैयार
आर्कटिक में फँसे घने बादल हैं।