इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के आस-पास आजाद भारत की भोजपुरी कविताई का मतलब मोटे तौर पर बीसवीं सदी के दूसरे पचासे की भोजपुरी कविताई से हैं। इतने लंबे कालखंड से कुछ प्रतिनिधि कविताओं का चयन बेहद कठिन है, और ऐसे किसी चयन का मुकम्मल होना तो खैर, असंभव ही है, लेकिन भोजपुरी जैसे किसी लोकभाषा के साहित्य को दशकों के बजाए पचासे में रखना-परखना उसकी गरिमा और लोक में उसकी, उसमें लोक की गहरी पैठ के अनुकूल भी है। भोजपुरी की अपनी पहचान भाषण की भाषा के रूप में नहीं, बतियाने की भाषा के रूप में है - और बेशक, बतियाने की होने के माने में उसे कोई भाषा के बजाए बोली भी या बोली ही कहना चाहे तो इत्मीनान से कहे। गाँव-घर-खेत-खलिहान के बात-व्यवहार की रही भाषा के साहित्य पर उथले, सतही या समाज के भीतरतर पहुँचने से रह गए परिवर्तनों का असर स्वाभाविक है, और गनीमत है कि उतना नहीं होता जितना किसी चर्चा को दशकों-पंचकों में समेटने के लिए जरूरी होता है। साहित्य-प्रवृत्तियों के द्रुत परिवर्तनों से भोजपुरी उतना 'वंचित' नहीं जितना 'बची हुई' है। ऐसे में अगर कोई उत्साह अतिरेक में चालू फैशन की तमाम प्रवृत्तियों से उसकी झोली भरने की कोशिश करता है तो कठकोशिश ही करता है, उकठना ही है जिसे। जैसे जन-चित्त-वृत्ति वैसे जनभाषा की साहित्य-वृत्ति भी किसी आ रहे या लाए जा रहे परिवर्तन को वह भला-बुरा जैसा भी हो - बिना उससे भर मन लड़े, बिना उसे ठोंके-बजाए, अपने भीतर उसकी ग्राहकता को बिना परखे, बिना सरजे स्वीकार नहीं करती, कर लेती है तो उस पर पराएपन का कोई दाग नहीं छोड़ती। उसमें आमतौर पर कोई भी नई प्रवृत्ति किसी दूसरी की जगह लेने नहीं आती, अपनी जगह बनाकर आती है, जुड़ने आती है। भोजपुरी साहित्य में भी चाहे जितना थम-थमकर, प्रवृत्तियों का बढ़ना हुआ है, उनका विस्थापित होना नहीं हुआ है। यही कारण है कि विश्वविद्यालयी विद्वानों में कबीर खेमे, तुलसी खेमे की गिरोहबंदी चाहे जितनी हो, भोजपुरी लोक कबीर 'या तुलसी के द्वंद्व में नहीं पड़ा कभी, कबीर 'और' तुलसी में सदा निर्द्वंद्व रहा। और यही कारण है कि भोजपुरी साहित्य का जो समकाल है उसमें आदिकाल से लेकर आज तक के साहित्य की प्रायः सभी पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय हैं। यहाँ कवित्त-सवैयों के दिन लद नहीं गए, दोहे-बरवै सोरठे भी हैं और गजल-सॉनेट-हाइकू के बिरवे भी फूटने लगे हैं, प्रबंध काव्यों की धरती सूनी नहीं पड़ी, लोकगीतों की जमीन छूटी नहीं, छंद मुक्ति भी है और उसके लिए वह छटपटाहट भी जो हिंदी में छायावाद के बाद कभी-ही-कभी, कहीं-ही-कहीं दिखी, यहाँ न तो वीर गाथाओं की गूँज गुम हुई है, न भक्ति की रस-धारा, यहाँ कविता से न तो कभी प्रेम को हटाने, नहटाकर फिर लाने का अभियान चलाना पड़ा है। कविता यहाँ मुद्रण के तंत्र में भी है, भूत-व्याधि के मंत्र में भी, जनांदोलनों की जमीन पर भी है, कवि-सम्मेलनों के मंच पर भी और बिना कागज पर पाँव टिकाए, कंठ-से-कंठ तक चलनेवाली काव्य यात्राएँ भी, आज भी, थमी नहीं हैं, थमी नहीं हैं। वसंत इधर से आज भी चुपचाप नहीं गुजर पाता, ऋतुओं का छहपन कायम है, नाम लेकर बुलाने की लगी लत लगी है अभी, रूप-रस के लस को छोड़ने-छुड़ाने का चलन अभी चला नहीं इधर, भारत हॄदय की धड़कन हैं जो, रिश्ते-नाते,उन्हें कायम रखने की कोशिशें जारी हैं और जारी है इनके आड़े आ रहे है बाजार-आचार की पहचान है उस पर पलटवार के प्रत्यन भी।
ऐसे में, भोजपुरी या ऐसी किसी भी लोक-लगी भाषा की, कविता जैसी सर्वाधिक संपन्न विधा के अध्ययन-चयन आदि में सुविधा के लिए कोई सीमा तय करनी हो तो आजादी से कम बड़ी, कम गहरी किसी रेखा से काम चलने वाला भी नहीं शायद। हालाँकि भोजपुरी कविता के साथ एक खास बात यह भी है कि यह अपने ज्ञात इतिहास की शुरुआत से ही लगभग, गोरख की बानी और कबीर की साखियाँ साखी हैं कि आजादी के एक बृहत्तर अभिप्राय को लेकर चली है, हर तरह की गुलामी के हर तरह से खिलाफ, बेहिसाब और बेलिहाज खिलाफ। और यही उसकी मुख्य पहचान रही है - जैसे 1947 से सुदूर पहले वैसे उसके बाद भी, आज भी। एक तरफ मुक्ति विमुक्ति के तमाम विरुद्धों और विरोधों के प्रतिरोध की जबर्दस्त चेतना और दूसरी तरफ समग्र भारत-भाव, जिसमें सबके साथ होकर और सबको साथ लेकर चलने की जिद, जिसके लिए जरूरी जानकर अपने प्रति, अपनी भोजपुरी पहचान के प्रति एक खास तरह की सचेत अचेतता - यह भोजपुरी समाज और साहित्य दोनों की बुनियादी प्रवृत्ति है, जातीय, और कह लीजिए कि बहुत-कुछ अ-निजातीय प्रवृत्ति। इसके ढेर सारे सुफल हैं, कुफल भी कम नहीं हैं। सुफल, जैसे राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी का आगे आ पाना और कुफल, भाषा के रूप में एक प्रादेशिक पहचान से जुड़कर उसका पीछे रह जाना। दरअसल, पूरे देश को एक भाषा-सूत्र में बांधकर अंग्रेजों के ही नहीं, अंग्रेजियत के भी कारगर प्रतिरोध के लिए हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में खड़ा और बड़ा करते हुए अपनी प्रादेशिक भाषा और साहित्य को अदिख दूरी तक पीछे धकेल देनेवालों में भोजपुरिया शुरू से ही सबसे आगे रहे। लेकिन आजादी मिलने के बाद के दिनों में इसका अनुभव भी शायद भोजपुरियों को ही सबसे पहले हुआ कि अपने भाषा साहित्य को न दिखने देना हिंदी के हित में भी नहीं हुआ। बाहरवालों को दिखा ही नहीं कि राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को आगे लाने वाले भी असल में अपनी प्रादेशिक भाषा को आगे नहीं ला रहे, कि उनकी अपनी, अपने प्रदेश की भाषा भी कोई और है, हिंदी नहीं है कि हिंदी को उन्होंने अपनाया है, अपनी भाषा भोजपुरी के रहते।
इस तरह भोजपुरी, और भोजपुरी ही नहीं, कथित हिंदी प्रदेश की तमाम भाषाओं के, अपनी साहित्य-संपदा और साहित्य-संभावनाओं के साथ नेपथ्य में रह जाने के चलते हिंदी - जो इस देश के किसी प्रदेश की भाषा नहीं है, और इसलिए भी वह पूरे देश की भाषा है - दुर्भाग्य से एक प्रादेशिक, भले ही बृहत प्रादेशिक, भाषा की छवि से बँधकर रह गई। हिंदी अपनी इस प्रादेशिक छवि-छाया से छूटे, इसकी चिंता भी भोजपुरियों को सबसे ज्यादा है, या होनी चाहिए, इसलिए भी कि इस छवि को बनने देने में उनकी भूमिका सबसे बढ़कर रही है। आज जो भोजपुरी के राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय संगठन खड़े हो रहे हैं, आयोजनों का ताँता सा लगा हुआ है, बिना किसी अपना कहे जाने लायक प्रकाशन या खरीद के सरकारी आश्वासन के पुस्तकों पत्रिकाओं की बाढ़ सी आई हुई है, पूरे प्रयत्न चल रहे हैं कि साहित्य विद्या के किसी इलाके की कोई राह न चली न रह जाय, बेशक वे प्रयत्न कभी-कभी काफी बउरहपन भरे भी है तो इन सबके पीछे मुख्य चिंता हिंदी से अलग, भोजपुरी की उस अपनी पहचान को फिर से पाने-प्रकटाने की हैं जो अपने ही हाथों मिटा दी गई है या अधिक से अधिक हिंदी में मिला दी गई है। 'भोजपुरी की एक अपनी, हिंदी में नितांत न-घुली पहचान भी है' - यह आजाद भारत की भोजपुरी कविताई, बल्कि पूरे भोजपुरी रचना-कर्म का एक अलग से, एक अतिरिक्त कथ्य है। प्रयोजन - वही जो आजादी के पहले था, जिसके लिए तब अपनी पहचान को अधिक से अधिक अदृश्य रखने के प्रयत्न थे - कि हिंदी की राष्ट्रभाषिकता तय हो सके, उसके लिए एक सर्वानुमति बन सके।
जहाँ तक हिंदी में नितांतन घुली पहचान की बात है, वह भोजपुरी की, कविताई के मामले में, जाहिर है कि ज्यादा है, ज्यादा और ज्यादा जीवित और जीवंत। अनायास नहीं है कि हिंदी साहित्य का इतिहास जहाँ तक मुख्य रूप से कविता का है वहाँ तक इन्हीं हिंदी की बोली कही जाने वाली भाषाओं का है। कुछ ऐसा है, भाषिक रचाव में ही शायद, कि ये सभी भाषाएँ अपने गद्य-सामर्थ्य के लिए हिंदी पर और हिंदी अपने काव्य सामर्थ्य के लिए इन भाषाओं पर निर्भर करती है - बहुत कुछ। इसे शायद हिंदी के व्यंजनपन और इन भाषाओं के स्वरपन के रूप में भी समझा जा सके, जिसके चलते हिंदी के पास अपनी पढ़वाई और इनके पास अपनी सुनवाई एक-दूसरे से अधिक है। इस पढ़वाई का प्रताप, कि साहित्य-भाषा के रूप में हिंदी के प्रमुखता पाने के साथ ही गद्यकाल की शुरुआत हो जाती है, पाठमूलक विधाओं को रूपाकार मिलने लगता है और संताप भी, कि शुरुआती दिनों में हिंदी की काव्य योग्यता को संशय से घेरने की कोशिश की जाती है। यह भी है कि रचने के लिए अपने बतियाने की भाषा से एक रसांतर्य जो चाहिए दूरी वह कविता को गद्य-विधाओं की तुलना में आसानी से, बहुत कुछ तो अपने विधागत प्रकार के ही सदके हासिल है, जबकि गद्य को बोल-चाल की भाषा के साथ अपनी निकटता से निपटना पड़ता है और बेतरह, क्योंकि माना यह जाता है कि बोल-चाल की भाषा ही गद्य का आधार है, वही उसकी आदर्श है, वही उसकी सहजता का निकष है, जबकि यह भी सच है कि वही वह नहीं है, फिर भी गद्य के मामले में हिंदी के हिस्से ये कठिनाइयाँ इस माने में कम पड़ी हैं कि वह आमतौर पर बोल-चाल की भाषा रही ही नहीं है, वह है ही उससे दूर, उसे होना नहीं है।
एक भोजपुरी-भाषी का गद्य लेखन के लिए हिंदी को अपनाना अधिक सुविधाजनक है, क्योंकि हिंदी उसके बतियाने की भाषा से है ही अलग, उसे अलग करना नहीं है। लेकिन यही बात कविता के साथ नहीं है। कविता के लिए कोई भोजपुरी भाषी हिंदी को हाथ में लेता है तो उसके सामने सबसे बड़ा खतरा उस रसांतर्य के, उस दूरी के जरूरत से ज्यादा बढ़ जाने का होता है, दूरी की साधुता के नष्ट हो जाने का होता है। कुछ तो इसलिए, और कुछ इसलिए कि साहित्य-विद्या के अंतर्गत कविता किसी अनुभूति की सर्वाधिक तात्कालिक या सर्वाधिक तत्काल संभव अभिव्यक्ति है - भोजपुरी कविता की पहचान हिंदी में बिल्कुल घुल जाने से रह गई। इसलिए भी कि कविता अपने विधाता को क्रोध को वैर कर लेने, जुबान बदल लेने भर का अवकाश नहीं देती, वह उसकी सर्वाधिक मौलिक वस्तु है और उसे अपने में सबसे ज्यादा शामिल रखती है - अनायास नहीं हो शायद कि 'कविता' में विधाता - नाम 'कवि' पहले उचरता है, विधा-नाम 'कविता' बाद में। जीवन की जो आलोचना साहित्य के जिम्मे है उसकी पहल कविता के जिम्मे है, जिसके चलते वह सबसे अधिक गतिमती, अतः खरी और अतः किसी भाषा की अपनी पहचान को सुरक्षित रखने में सबसे अधिक सक्षम है। अलबत्ता भोजपुरी कविता के संदर्भ में एक खास बात यह भी है कि उसकी पहचान गोरख-कबीर के जमाने से ही न तो खालिस भोजपुरी की है न खालिस कविता की। उसमें हिंदी भी, हिंद की ओर भी बहुतेरी भाषाओं की तरह तभी से शामिल रही है, उसका जोर अपने कहन पर पड़ रहा है, उस कहन का वहन चाहे जैसे हो, चाहे जिस भाषा' - व्यवस्था में घुसकर, भंगिमा भर अपनी भी काफी से कहीं ज्यादा है। ऐसी घुलन-घुलावनशील पहचान का क्या घुलना, क्या धुलना। और फिर आजाद भारत की भोजुपरी कविताई ने तो बहुत कुछ हिंदी के उस प्रयत्न-पराक्रम से सीखा जिससे उसने अपनी काव्य-योग्यता पर किये गए संशयों को पार किया, परे किया। इस सिलसिले में हिंदी ने न सिर्फ अपने आस-पास की भाषाओं से उनकी 'सुनवाई' सीखी बल्कि अपनी 'पढ़वाई' के अनुकूल कविता को नए आयाम दिए, उसे नवाकार, नवप्रकार दिए, हिंदी के कवितापन को ही प्रमाणित नहीं किया, कविता को भी अपने हिंदीपन से लैस किया - बड़े और कड़े श्रम और संघर्ष से - उपवन-सर-सरित गहन गिरि-कानन कुंज लता पुंजों को पार कर - छंद बंध ध्रुव तोड़, फोड़कर पर्वत कारा। हिंदी द्वारा अर्जित इस काव्य योग्यता से आजाद भारत की भोजपुरी कविताई ने भी अपने को नए सिरे से ऊर्जास्वित किया है - उसने मुद्रण तंत्र में अँटाव की कला सीखी है, पाठ युक्तियाँ सीखी हैं, उसके संबल सिरजे हैं, गद्य बल का काव्योपयोग सीखा है, छंद-मुक्ति के अपनी तरह के उपाय ढूँढ़े हैं। इसके और इससे भोजपुरी कविता के कथ्य में आए विस्तार और वैविध्य के उदाहरण इस हर तरह से लहुरे और किसी तरह से न पूरे चयन में भी काफी मिलेंगे, जिनसे संभव है कि यह प्रतीति भी बन सके कि भोजपुरी के पास हिंदी को लाभान्वित करने की अकड़ ही नहीं, उससे लाभान्वित होने, लहाने की विनम्रता भी है, और यह विनम्रता हिंदी हित में उसके समानांतर अपने भाषा साहित्य को दृश्य करने के स्वातंत्र्योत्तर जोश के होश की तरह हैा बेशक इस लाभ लेने या लहाने के बहुत बाउर और बहुत बउराह उदाहरण भी कम नहीं, लेकिन उनका कम नहीं होना किस देश में कम रहा है, किस काल में कम रहा है। दरअसल भोजपुरी उस तरह साहित्य की भाषा कभी नहीं रही जिस तरह कभी ब्रजभाषा थी, आज हिंदी है। साहित्य भाषा के रूप में अपने भाषा-भूगोल से बाहर जाकर संप्रेषण कला की अतिरिक्त बारीकियाँ वह नहीं बटोर सकी है। साहित्य को भोजपुरी ने अपने भाषा-भूगोल के भीतर ही अरजा और सिरजा है। वह लिखने की भाषा अगर है तो उन्हीं के जिनके बोलने बतियाने की भाषा भी वह है। ऐसा तब है जब भारतीय भाषाओं में हिंदी के बाद भोजपुरी ही है जो किसी एक प्रांत की घेरेबंदी में नहीं है जिसकी पसरनशीलता के सामने प्रांतों की ही नहीं, देश की सीमाएँ भी छोड़ी पड़ी हैं। भोजपुरी भाषा साहित्य की तथापि जो दिखती दशा है, उसके मूल में वह भोजपुरिया स्वभाव है जो कठिन दिनों में तो औरों को पीछे कर लेना जानता है, आसान दिनों में औरों के पीछे लग लेने की लत से छुटना नहीं जानता। मॉरिशस में मुक्ति के लिए संघर्ष के दिनों में सर्वाधिक मारक भाषा-शस्त्र के रूप में इस्तेमाल हुई भोजपुरी, आश्चर्य नहीं कि आज क्रियोलात-कचटित अवस्था में पहुँच चली है। उसकी इस हालत से विदेशों में कई जगह उसकी अँगुली पकड़कर पहुँची हिंदी का हाल भी कम बेहाल नहीं है। इसे समझते हुए, उसे उबारने के लिए, अपने उबरने की चिंता से लैस भोजपुरी ने उसकी अँगुली पकड़कर चलने से कोई गुरेज नहीं किया, उसे विश्व साहित्य से अपने सतत संवाद का मुख्य माध्यम बनाया और संप्रेषण कला की तमाम बारीकियों में बहुविध प्रकट हैं। विश्व साहित्य के प्रभावों को ग्रहण करने में भोजपुरी साहित्य के लिए हिंदी साहित्य एक माध्यम के रूप में अक्सर छनना पत्र का भी काम कर दे रहा है, भोजपुरी साहित्य को अवसर मिल जाता है,ऐसे किसी भी प्रभाव को ग्रहण करने के पहले अपने साहित्य और समाज में उसकी ग्राहकता की तलाश और उसके निर्माण का। इस अवसर का लाभ लेने की प्रवृत्ति भोजपुरी के सजग साहित्यकारों में पर्याप्त है।
लेकिन इन सजग साहित्यकारों में भी कवि की स्थिति कुछ भिन्न इस नाते जरूर है कि उसे अपनी कविता के भोजपुरी में होने के तुक तर्क की तलाश उस तरह नहीं करनी पड़ती जिस तरह एक कहानीकार या उपन्यासकार को अपनी कहानी या उपन्यास के भोजपुरी में होने के तुक की, तर्क की तलाश करनी पड़ती है। कोई कहानी है तो भोजपुरी में ही क्यों है, हिंदी में क्यों नहीं है, जिसमें लिखना और पढ़ना अधिक अभ्यस्त और आसान है, कहीं हिंदी में नहीं स्वीकृत होने के चलते तो भोजपुरी में नहीं है - जैसे नागवार से लगते सवालों और संदेहों से जूझे बिना भोजपुरी कहानी की अपनी कही जाने लायक कोई छवि नहीं बनती, लेकिन कविता की बनती है, बल्कि है, इतनी कि भोजपुरी भूगोल की हिंदी कविता के लिए भोजपुरी कविता का इस्तेमाल एक समीक्षा शस्त्र के रूप में संभव है। इस इलाके की किसी कविता या इस इलाके के किसी कवि की कविता के पास वस्तु के प्रति निष्ठा कितनी है, है भी कि उसकी चमड़ छू चमक भर है इसका पता, कविता अगर हिंदी में है तो उसे उसकी मूल भाषा भोजपुरी में करने की कोशिश मात्र से चल सकता है। इस इलाके की हिंदी कविता अगर मूलतः भोजपुरी कविता नहीं है, काव्याभास भर है, काव्याभास भर है। इसका एक मतलब यह भी है कि भोजपुरी इलाके का सेसर (अंग्रेजी में जिसे 'मेजर' कहते हैं) हिंदी कवि मूलतः भोजपुरी कवि (भी) होता है, भले ही भोजपुरी में उसने भूलतः भी कुछ नहीं लिखा हो। हालाँकि उनके भोजपुरी में न लिखने के भूलवत होने के संबंध में भी एक सहमति सी बनने लगी है, सुधार के प्रयत्न चल पड़े हैं और आजाद भारत की भोजपुरी कविताई में भोजपुरी के हिंदी कवियों की भोजपुरी कविताएँ भी शामिल होने लगी हैं। इससे काव्य हेतुओं में जिसे व्युत्पत्ति कहते हैं, उसके विस्तार की संभावनाएँ बढ़ गई हैं और भोजपुरी कविता उनकी सँभाल के प्रति सजग है।
इस सजगता का एक और पक्ष है, अधिक गंभीर, जिसके कई सिरे हैं, जिनमें से एक उन अश्लील गीतों से भी जुड़ा है जिनके कैसेटों से आज बाजार भरा पड़ा है, जिनका गूँज गाँव नगर कस्बों में, दौड़ती बसों, ट्रकों और हे भगवान। ट्रैक्टरों तक में, उत्सव विसर्जन सब में, सर्वत्र, 'जरला जेठ भरला भादो' व्याप्त है। भोजपुरी साहित्य की अपनी प्रवृत्ति स्त्री पुरूष को उनके विविध संबंधों में गाने की रही है, उन्हें महज मादा नर मानकर चलने की नहीं रही। ऐसा भी नहीं कि उसने वर्जनाओं की कुंठाएँ पाल रखी हों, इस मामले में भी वह बहुत पुराने जमाने से परम आधुनिक है। उसके सोहर गीतों में पुंसवन से लेकर प्रसव पीड़ा तक की समाई है। उसके पास विवाह के गाली गीत भी हैं, होली गीत भी। लेकिन इन सबका संबंध अवसर विशेष से, ऋतु विशेष और ऋतु का विस्मरण है। लेकिन ध्यान दिया जाय तो यह सैकड़ों टी.वी. चैनलों के जरिए अहर्निश और घर घुस परोसी जा रही विदेश, बल्कि वैश्विक नंगई के देशी काट की तरह भी है, लेकिन देशी होने के चलते कुछ अधिक ही कुकाट, अपनी नंगई में कुछ अधिक ही निखर कर अखरने वाली। ऐसे में, इस देशी-विदेशी, अवसर की चेतना विहीन 'उघारपंथी' से लड़ने के लिए आजार भारत की भोजपुरी कविताई लोक साहित्य की अपनी विशाल संपदा से हथियार जुटाने और उसे धारदार करने की तरफ नए सिरे से सजग है। उसने कविता को लोक कविता और गजल को लोक गजल का रूप देने के गंभीर जतन किये हैं। इस सिलसिले में भोजपुरी कविता अपनी जमीन पर चलने वाले जनांदोलनों से जमकर जुड़ी है, विभिन्न पात्रों, प्रसंगों और परिस्थितियों के भीतर, उनके खतम होते ही अपने खतम हो जाने के खतरे के बावजूद उसने बड़े उत्साह से प्रवेश किया है और वह काल को भले ही हर बार न जीत सकी हो लेकिन वह अनछुआ न छूटे इसके प्रति अक्सर संकल्पित रही है।
संकल्प और भी हैं लेकिन आजाद भारत की भोजपुरी कविताई के हर संकल्प को पढ़ पाना और कह पाना किसी एक के वश की बात नहीं। सो, फिलहाल यहीं तक। इतना ही। इसमें भी इसी विषय पर पहले की कही कई बातें एक बार और कह ली गई हैं - भोजपुरी लोकगीतों के उस शील और शैली को ध्यान में रखते हुए जिसमें अनावश्यक को न कहने का धीरज तो होता ही है, आवश्यक को बार-बार और उन्हीं-उन्हीं शब्दों में कहने की जिद भी जबर्दस्त होती है। अपने राम के पास वह धीरज भले न हो वह जिद तो है ही है।