स्वतंत्रता की हमारी प्यास न जाने कब बुझेगी
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गुलामी से आजादी का वरदान कब मिलेगा
उग्रवादी दल ने सन 1908 में तय किया कि एक खास दिन को पूरे देश में एक साथ 'स्वराज दिन' मनाना होगा। उसे शानो-शौकत से मनाने के लिए चेन्नै में कई मोहल्लों से
जुलूस निकाला गया। भारती की 'जनसंघम्' दल ने तय किया कि सारे जुलूस समुद्र के किनारे इकट्ठा होंगे। पिछले कुछ दिनों में उन्होंने सुबह-शाम छोटे-छोटे झुंडों में
छात्रों और अन्य लोगों में प्रचार का काम कर उन्हें तैयार कर लिया था। इस कार्य में उनके साथी सुरेंद्रनाथ आर्य व अन्य युवा साथी भी थे।
जिस समय अलग-अलग मुहल्लों में जुलूस जमा होकर छोटी-छोटी गलियों से समुद्र किनारे जा रहे थे, भारती अपने मन में कुछ अलग ठान कर रखे हुए थे। वे बैंड-बाजे के साथ
गले में फूलों की माला पहने हुए राजमार्ग से निकले। इसके लिए उन्होंने लाइसेंस की अर्जी भी दी थी, हालाँकि मंजूरी की पावती प्राप्त नहीं हो सकी थी। बैंड दल के
सदस्य हिचक रहे थे कि गिरफ्तार न हो जाएँ। भारतीजी ने उन्हें साहस दिला कर कहा - 'भाइयों मैं हूँ ना, आप चिंता छोड़ दो।'
अचानक बैंड-बाजों के साथ निकले जुलूस से हक्का-बक्का रह गई पुलिस कुछ समझ पाती तब तक वे लोग समुद्र किनारे पहुँच गए। वहाँ पर विभिन्न छोटे-छोटे दल जमा होकर एक
बड़ा जन सैलाब बन गया था। जिसका पुलिस दल कुछ बिगाड़ न सकी।
समुद्र किनारे रेत पर हुई विशाल और महत्वपूर्ण सभा में भारतीजी ने जिस ओजपूर्ण तरीके से भाषण दिया, कविताएँ सुनाई उसे सुन कर ब्रिटेन से आए पत्रकार हेनरी
डब्ल्यू नेवीनसन बहुत प्रभावित हुए। वे भारतीजी से मिले भी। अपनी लिखी पुस्तक 'भारत में नई आत्मा का उदय' में भारतीजी के उद्बोधन को 'समुद्रतट पर' शीर्षक से
विस्तार से गतिविधियाँ लिखी हैं। किस तरह वंदे मातरम के तमिल तरजुमे को एक बच्चे ने गाकर कार्यक्रम प्रारंभ किया। भारती ने सबसे प्रथम 'लाजपत का प्रलाप' कविता
को गाया। लाला लाजपत राय को गिरफ्तार कर देश निकाले की सजा हुई थी तब उन्होंने इसे रचा था। यह गीत एक तरह से सभी देशभक्तों के लिए आदरांजलि की तरह था, जिन्हें
भी सजा हुई थी।
दूसरा गीत 'होमरूल' पर व्यंग्य भरा संभाषण था। तीसरा गीत अँग्रेजों को उत्तर देता हुआ भारतवासी के मन की बात 'आजादी की शान' नामक गीत था। बाद में कुछ और लोगों
ने भी भाषण दिए। अंत में 'वंदे मातरम' के जोरदार उद्घोष के साथ विसर्जित हुई।
पत्रकार नेवीनसन ने पूरे समय कार्यक्रम में बने रह कर इसका वर्णन किया है। जोशो-खरोश से भरे इतने सारे युवाओं की संख्या थी फिर भी बड़े सलीके और तरीके से
कार्यक्रम निपट गया, जिसका उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। अपनी पुस्तक में इस अध्याय में उन्होंने पूरी घटना को विस्तार से लिखा तथा भारती के तीनों गीतों का अनुवाद
भी दिया है। उनको इन सबसे बड़ा आश्चर्य तो ये हुआ कि पहले से सारी जानकारी होने के बाद भी एक भी पुलिस अफसर तो क्या सिपाही भी नहीं था। तभी वो समझ चुके थे कि
भारतीजी में स्वतंत्रता की चेतना अपने उफान पर है और वे इसको जीतने के लिए किसी भी अंत तक जा सकते हैं।
सन 1908 में चेन्नै में भारतीजी और उनके साथियों ने सफलतापूर्वक 'स्वराज्य दिवस' मनाया। पर तूतूकुडी, तिरूनेलवेली आदि जगहों पर इस दिन बहुत उथल-पुथल मची।
तिरूनेलवेली जिले में व.उ. चिदंबरम पिल्लै तथा उनके साथी सुब्रमण्यम शिवम 'स्वराज्य दिवस' मनाने की पूरी तैयारी में थे। चिदंबरम एक स्वदेशी जहाज को चलाने की
कोशिश में कामयाब हो गए। जिसे देख कर अँग्रेज कुछ भयभीत से थे और उन्होंने तूतूकुड़ी के सब कलेक्टर को सख्त कदम उठाने का आदेश दे दिया। चिदंबरम और शिवम दोनों को
गिरफ्तार कर लिया गया। यह कुछ इस तरह हुआ कि भीड़ बेकाबू हुई और भगदड़ मच गई, आगजनी हुई, पुलिस की ओर से गोलियाँ चली। इसमें काफी निर्दोष जनता हताहत हुई। तीन दिन
तक जनता अँग्रेजों का विरोध करती रही। दोनों नेताओं को जेल में डाल दिया गया। उसी समय पंजाब में लाला लाजपत राय और अजित सिंह को गिरफ्तार किया था।
इन हालातों को लेकर भारतीजी ने अपने गुरुवर श्री बाल गंगाधर तिलक को 29 मई 1908 को विस्तार से पत्र लिखा था। दक्षिण भारत की सारी राजनैतिक गतिविधियों का ब्यौरा
दिया। इसमें हिंदी कक्षाएँ चल रही थी ये भी बताया। साथ ही आगे चल कर सामूहिक रूप से क्या-क्या कदम उठाने होंगे ये जानकारी भी उनसे माँगी गई थी?
सन 1908 से ही अँग्रेजों के विरुद्ध आवाज तेज होती जा रही थी। पत्र-पत्रिकाओं के मालिक, संपादक व अन्य कर्मचारियों की गिरफ्तारियाँ होने लगी। पत्र-पत्रिकाएँ ही
अपने लेखों और कविताओं से जनता को उग्र होने के संदेश दे रही थी। 'स्वदेश मित्रन' जहाँ भारतीजी ने सबसे पहले कार्य किया था, के संपादक जी. सुब्रमण्यमन को
गिरफ्तार कर लिया। अंदेशा हो गया था कि अब भारतीजी की गिरफ्तारी दूर नहीं है। हुआ भी यही, 'इंडिया' पत्रिका के संपादक की गिरफ्तारी का वारंट निकल गया। पुलिसवाला
वारंट लेकर पत्रिका के दफ्तर पहुँचा और सीढ़ी चढ़ने लगा। भारतीजी सीढ़ी से नीचे उतर ही रहे थे। पुलिस ने उन्हें वारंट थमाया। वारंट को गौर से देखा, पढ़ा। संपादक के
नाम का वारंट था। भारतीजी बोले - 'मैं संपादक नहीं हूँ' और सहज रूप से चले गए। भारतीजी 'इंडिया' का संपादकीय दायित्व अवश्य निभा रहे थे पर संपादक का नाम मु.
श्रीनिवासन का जाता था। असल में 'इंडिया' पत्रिका के मालिक श्री एस.एन. तिरूमलाचार्य के गहरे और खास दोस्त थे श्रीनिवासन सो उन्हीं का नाम संपादक की हैसियत से
रहता था। पुलिस उन्हीं को गिरफ्तार कर ले गई। इसके बाद पत्रिका के खास व्यक्ति भारतीजी का ही नंबर आता था। भारती के कुछ मित्र पुलिस इलाके से सूचना दिया करते
थे। उनसे पता चला कि उनकी गिरफ्तारी कभी भी हो सकती है। उनके साथियों और नेताओं ने आपस में सलाह-मशविरा किया। ये तय किया गया कि भारती चेन्नै में और न रहें।
फ्रेंच आधिपत्य वाली पुदुचैरी उनके लिए सुरक्षित रहेगी। वहाँ के एक पहचान के मित्र को पत्र लिख कर भारती को दिया और पुदुचैरी (पाँडिचेरी) भेजा।
ये प्रश्न हमेशा उठता रहा कि भारती श्रेष्ठ कवि हैं या देशभक्त। उनके जैसा ओज-तेज भरा युवा देश के हालात से अपने को अलग करके नहीं देख सकता था। सूरत से लौटकर
'इंडिया' पत्रिका में उन्होंने तिलक की बताई राह और सिद्धांत का जमकर अनुमोदन किया। सन 1908 में तिलक को छ वर्ष की सख्त सजा हो गई। उसके बाद उनके साथ के बड़े-बड़े
नेता गिरफ्तार किए जा रहे थे। तमिलनाडु में 'इंडिया' पत्रिका पर वैसे भी नजर रखी जा रही थी। पहली गाज पत्रिका के प्रकाशक पर गिरी। इस समय भारती के शुभचिंतक और
दोस्त समझ गए थे कि अब भारती की बारी है। भारती के लिए नाजुक समय था और दोस्त नहीं चाहते थे कि वे पकड़े जाएँ। कई लोगों ने इसे भारती की कायरता समझा जबकि वे
गिरफ्तार होने को तैयार थे। मित्रों के हिसाब से गिरफ्तारी के लिए समय सही नहीं था। उन्हें अपनी वाणी और लेखनी से बहुत कुछ करना था।