सब एक जाति
,
एक वर्ग के ही हैं
,
सभी भारतीय हैं। सब एक इकाई हैं
,
सभी के एक ही सिद्धांत है। सभी और हर कोई इस देश का राजा है। (संपादकीय में)
सन 1920 के नवंबर महीने में भारती चेन्नै पहुँच गए। आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होने पर फैसले भी इच्छा से नहीं लिया जा सकता है। भारती अपने गद्य-पद्य की समस्त
रचनाओं को पुस्तकाकार में प्रकाशन करवाना चाह रहे थे। उसके लिए कुछ योजना भी सोच रखी थी तथा उससे संबंधित कुछ पत्राचार भी किया था। पर अब परिवार को पालने के लिए
व्यावहारिक होना भी आवश्यक था। धन कमाने का उनके पास एकमात्र जरिया था उनकी लेखनी। सो चेन्नै जाकर 'स्वदेशमित्रन' में अपने पुराने पद पर आसीन होने के अलावा कोई
और राह कहाँ थी? सो पत्नी और छोटी बेटी शकुंतला को लेकर चल दिए अपने कार्यक्षेत्र की तरफ।
चेन्नै स्टेशन से पूर्व सैदापेठ पड़ता है, वहीं पर भारतीजी के सौतेले भाई आ गए। उन दिनों उनके भाई विश्वनाथन सैदापेठ (चेन्नै का ही एक सब स्टेशन) में रह कर किसी
परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। परिवार के साथ भारतीजी अपने भाई के घर चले गए जहाँ उनकी विमाता भी साथ थी। वही जिन्होंने भारती को बचपन से ही बहुत स्नेह और ममत्व
दिया था, सौतेलेपन की भावना तो उनमें कहीं थी ही नहीं। भारती को देखते ही बोल पड़ी - 'सुबैया तुझे गाते हुए सुने कितना लंबा अर्सा हो गया। कुछ नए गीत सुनाओ ना।'
अपने बचपन के घर का नाम 'सुबैया' सुनकर उन्हें कैसा लगा होगा इसकी कल्पना ही कर सकते हैं। दुखी, हताश और निराश हालातों के बाद अपनी विमाता के बोल, जख्मों पर रूई
के कोमल फाए से लगे होंगे। उन्होंने कई गीत गाकर सुनाए और माता को प्रसन्न कर दिया। सैदापेठ से लोकल ट्रेन मे चेन्नै के जार्ज टाउन में उतर कर 'चेट्टी तेरू'
(मंडी) में स्थित 'स्वदेशमित्रन' के दफ्तर जाते। शाम को भी इसी तरह ट्रेन से सैदापेठ लौट आते। इसमें समय और श्रम का अपव्यय हो रहा था और भारतीजी शारीरिक रूप से
बहुत तंदुरुस्त नहीं थे।
भाई विश्वनाथन जार्ज टाउन में ही भारतीजी के लिए घर की तलाश करने लगे। सीमित धन में मनमाफिक किराए का घर खोजना भी बहुत कठिन होता है। भाई ने एक घर तय किया और
भारतीजी परिवार सहित रहने आ भी गए। पर उन्हें यह घर तनिक भी अच्छा नहीं लगा। घर के बाहर निकलते ही घर से लगभग लगा हुआ गंदा नाला बदबू मारता रहता। घर भी अनेक
असुविधाओं से युक्त था। बरसात के मौसम में तो जो परेशानियाँ होती उसका कोई हिसाब ही नहीं था। दूसरा सुविधायुक्त मकान चाहिए था वो भी कम किराए में। यह कार्य आकाश
से चाँद सितारे तोड़ कर लाने जितना ही दुष्कर था।
ऐसे कठिन समय में भारतीजी के पुराने मित्र वकील दुरैस्वामी अय्यर से मुलाकात हुई। पर दुरैस्वामी स्वयं ही अपनी बहन के बड़े से घर के एक हिस्से में रहते थे सो कोई
मदद नहीं कर पाए। ऐसे समय में एक दूसरे परिचित व मित्र सुरेंद्रनाथ आर्य ने उनकी ओर मदद का हाथ बढ़ाया। ये वही आर्य थे जिन्होंने अपना धर्म बदल लिया था और एक
विदेशी बाला मार्था से विवाह कर लिया था। भारतीजी को उनके विवाह से कोई आपत्ति नहीं थी पर उनका धर्म परिवर्तन उन्हें स्वीकार नहीं था। बहरहाल, आर्य मार्था के
साथ चेन्नै के 'रनडाल्स रोड' पर एक विशाल बंगले में रहते थे। मार्था हिंदू महिलाओं की तरह साड़ी पहन कर बिंदी लगाया करती थी।
स्नेही मार्था का व्यवहार सभी के प्रति ममतापूर्ण होता था। भारती परिवार सहित उस बंगले के एक हिस्से में रहने आ गए। आर्य दंपत्ति तो अपने साथ परिवार की तरह उनको
रखना चाहते थे। भारतीजी और पुत्री शकुंतला को कोई एतराज नहीं था, बल्कि उनके बटलर का बनाया शाकाहारी खाना खाने को भी वे दोनों तैयार थे। पत्नी चेल्लमा जो कई
नियमों से बँधी थी, का मन उनके साथ और विधर्मी के हाथ का खा नहीं सकती थी। इसलिए बंगले का एक हिस्सा भारतीजी के परिवार के लिए खाली करके और खाना बनाने की जगह
मिल गई। इसके अलावा भारती परिवार बंगले के किसी भी हिस्से में आने-जाने को स्वतंत्र थे। शकुंतला को उस समय अँग्रेजी नहीं आती थी, मार्था को अँग्रेजी के अलावा और
कोई भाषा नहीं आती थी। दोनों इशारों से एक-दूसरे की बात को समझ लेते। मार्था शकुंतला को बहुत चाहने लगी और खाना खाते समय, कढ़ाई-बुनाई करते हुए या कोई खेल खेलने
को उसे साथ रखती। शकुंतला को बंगले के सामने बगीचे में लगे रंग बिरंगे विभिन्न किस्म के फूलों को टहनी के साथ तोड़ना अच्छा लगता था। मार्था उन्हें काट-छाँट कर,
तराश कर विभिन्न गुलदानों में यूरोपिय शैली में सजा कर रखती। शकुंतला बहुत खुश थी और उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि जीवन का ये हिस्सा बिना चिंता के बहुत
शांति से गुजरा।
श्री आर्य को शकुंतला मामा बुलाती थी, जैसा कि दक्षिण भारत में प्रचलन है। मार्था का आग्रह था कि वो उन्हें आंटी कह कर बुलाएँ। एक दिन भारतीजी से बातें करते हुए
मार्था ने कहा कि उन्हें पापा (शकुंतला) से बहुत स्नेह हो गया, यदि भारतीजी बच्ची को दे दें तो अपनी बेटी की तरह बड़ा करेगी। भारतीजी का जवाब था कि 'पापा' के
अलावा कुछ भी माँगे तो देने को तैयार हैं।
एक दिन पुत्री के साथ भारतीजी कहीं से लौट रहे थे। सड़क के दूसरी ओर उनका परिचित दिख गया तो ये उनसे बात करने लगे। वहीं सड़क किनारे बैठी कुछ बेच रही औरत ने
शकुंतला से पूछा - 'तुम लोग ब्राह्मण हो क्या?' बच्ची ने हाँ में जवाब दिया। तब उस औरत ने दयाभाव दिखाते हुए कहा - 'गरीबी किसी से क्या-क्या करवा देती है! तुम
लोगों ने भी इसीलिए अपना धर्म बदल लिया।'
शकुंतला को उस समय कुछ समझ नहीं आया। घर आकर जब माता-पिता से बात की तब उसका आशय समझ आया।
भारतीजी का चेन्नै आगमन और पत्रिका में उपसंपादक का पद ले लेना धीरे-धीरे उनके परिचितों को मालूम होता गया। इन लोगों में उनके एक भक्त परिचित तुरंत मिलने आ गए।
वे चेन्नै के तिरूवल्लीकेनी (तिरूनलवेल्ली नहीं जो कि एक अलग जिला है) में पार्थसारथी मंदिर के पास रहते थे। इन कु. कृष्णन ने आग्रह किया कि अगर भारतीजी भी उसी
क्षेत्र में आ जाएँ तो उनको कही भी जाने आने में सुविधा रहेगी। क्योंकि वहाँ से समुद्र तट, मंदिर, बाजार सब करीब होगा। इसके अलावा कृष्णन की एक भली मंशा और थी।
पुदुचेरी में भारतीजी जब भी दोपहर को आराम करने लेटते तो वो उनके पैर दबाने या सहलाने आ जाते। लाख मना करने पर भी नहीं मानते थे। उन्हें लग रहा था कि भारतीजी
उनके आवास के करीब रहें तो फिर से सेवा करने का मौका मिलेगा।
कृष्णन की इच्छा पूरी हुई और उसी क्षेत्र में एक मकान के सामने का हिस्सा किराए पर मिल गया। घर अच्छा और सुविधाजनक था। तीन किराएदार बाकी हिस्सों में थे और सभी
प्रेमपूर्वक रह रहे थे। आर्थिक रूप से भारतीजी की अवस्था बस मामूली ही थी। लेकिन लिखने में जोश खरोश बाकी था। साथ ही मंदिरों के उत्सव में भी उत्साह से हिस्सा
लिया करते थे। उत्सवमूर्ति की शोभायात्रा में अपनी डेढ़ पसली की काया के साथ, पूरी प्रदक्षिणा में कंधा लगाए रहते। उनका भक्तिभाव भी दिल की गहराई से सच्चा था।
किसी भी कार्य को चाहे छोटा हो या बड़ा मन की तसल्ली से करते थे। ना कि दूसरों को दिखाने या नकली आवरण ओढ़ने के लिए।
भारतीजी अपने घर में प्रातः 7 बजे से 9 बजे तक ही रहते थे, फिर कार्यालय चले जाते थे। कभी-कभी दोपहर को घर आ जाया करते थे। पर फिर भी हिंदी प्रचार के लिए सदैव
तत्पर रहा करते थे। यदुगिरी अम्माल ने अपनी पुस्तक 'भारती संस्मरण' में लिखा है कि उनके घर के ऊपर के हिस्से में हिंदी सिखाई जाती थी। महात्मा गांधी के सुपुत्र
देवदास गांधी स्वयं सबको हिंदी भाषा का ज्ञान व देशभक्ति गान सिखाया करते थे। बच्चों के साथ भारती पूरे उत्साह और जोश के साथ सीखते और दोहराते। प्राचीनतम भाषा
तमिल उन्हें जितनी प्रिय और अपनी लगती थी और तमिल से मोह था उसके बाद हिंदी भाषा का उनके लिए महत्व था।
भारतीजी की गली में रहने वाले एक सज्जन शद्गोपन की बहुत इच्छा थी उनसे बात करने की, उनके मुँह से गीत-कवित्त सुनने की। अपनी कामना को उन्होंने कृष्णन को बताया।
कृष्णन बोले - 'इतनी सी बात, चलो मेरे साथ'।
'स्वदेशमित्रन' के कार्यालय ले गए और भारतीजी से उनका परिचय करवा कर उनकी इच्छा को भी जता दिया। उन्हें भारती पहली मंजिल के अपने कार्यालय से नीचे गोदाम में ले
गए। वहाँ पत्रिका के कागजातों के विभिन्न बोरे रखे हुए थे। एक ढेर पर स्वयं बैठ गए बाकी पर उन दोनों को बैठाया। लय और सुर में तल्लीनता से गाने लगे। उन्हें
अच्छा श्रोता मिल जाए तो छोटे-बड़े या अन्य किसी कारण से उससे परहेज नहीं करते। यह उनका अभिमान रहित बड़प्पन था।
चेन्नै के आस-पास के कई शहरों में कभी वाचनालय-पुस्तकालय के उद्घाटन में कभी किसी अन्य प्रसंग में अतिथि वक्ता के रूप में उन्हें बुलाया जाता था। हर बार एक अलग
ही विषय पर भिन्न दृष्टिकोण से सोच रखते हुए ऐसा प्रभावपूर्ण वक्तव्य देते कि श्रोता चकित और प्रभावित हो जाता। पत्रिका में भी उनके आलेखों का प्रकाशन होता रहता
और चर्चित होता ही था।