विश्व भले ही हमारी उपेक्षा करे
,
हम कदापि डरे नहीं। हमारे सिर पर आकाश भी गिर जाएँ तब भी भयभीत नहीं होंगे।
उनकी आमदनी बहुत अधिक नहीं हुई थी पर भारतीजी एक स्थिर और अपेक्षाकृत ठीक-ठाक जीवन बिता रहे थे। इस घर में रहते हुए वे सुबह कई बार पार्थसारथी मंदिर जाया करते
थे। जिस तरह भक्त प्रसाद चढ़ाने के लिए केले-नारियल आदि ले जाते वो भी ले जाते। फर्क इतना ही होता कि उनकी टोकनी का केला नारीयल मंदिर के प्रांगण में बँधे बड़े से
गजराज के लिए होता। भारती उस गजराज को सहोदरा (भाई) शब्द से संबोधित भी किया करते थे। अपनी कविता में पशु, पक्षी, मानव तीनों को एक जाति का ही बताया था। सो वो
हाथी को जब खाने को देते और एकपक्षीय संवाद करते तो कोई आश्चर्य नहीं था।
सन 1921 के जून का महीना था। भारतीजी अपनी आदतानुसार प्रसाद लेकर गजराज के पास जा पहुँचे थे। वो अपनी धुन में तो रहा ही करते थे, सो शायद ध्यान नहीं दिया कि
हाथी पर मद सवार है। वहाँ कोई उन्हें रोक पाए तब तक एकदम करीब चले गए। भारतीजी तो हाथी की सूँड़ से लिपट कर उससे बातें भी किया करते थे। इसलिए उनके मन में कोई
संशय आने का सवाल भी पैदा नहीं होता। उनके बढ़े हुए हाथों में प्रसाद देख कर अपनी सूँड़ आगे बढ़ाकर कदम भी बढ़ा दिए। पर सूँड़ से उन पर वार कर उन्हें गिरा दिया, वो
उसके पैरों के बीच बेहोश पड़े थे। अगर उस हाथी ने अपना एक पग भी उनके ऊपर रख दिया होता तो उसी क्षण उनके प्राण चले जाते। पर उस विशाल गजराज को न जाने क्या हुआ कि
वो एक दम शांत, स्थिर खड़ा रहा। मानों अपने प्रतिदिन के मित्र की ये अवस्था कर के पछता रहा हो।
इस घटना की सूचना आग की तरह तिरूवल्लीकेनी में फैल गई। भीड़ भी काफी जमा हो गई थी। पर किसी को साहस नहीं हुआ कि हाथी के पैरों के बीच से भारती को सही सलामत निकाल
लाए। तभी वहाँ भारतीजी को अत्यंत स्नेह करने वाले भक्त कृष्णन आए और आगा-पीछा सोचे बिना, अपनी जान की परवाह किए बिना छलाँग लगा दी। भारती को सावधानी से निकाल कर
गोद में बच्चे की तरह उठा कर ले आए। पूर्व में भी इन्होंने एक बार पुदुचेरी में भारती की जान की रक्षा की थी। भारतीजी ने उनके निस्वार्थ सेवाभाव को जान कर उनकी
प्रशंसा में कविता लिखी थी। उस कविता के लिए मानो धन्यवाद ज्ञापन की तरह इस घटना में भी तारकनाथ (बचानेवाला) कृष्णन ही रहे।
भारती को पूरे शरीर पर चोट लगी थी। कुछ अंदरूनी चोट भी थी और कही-कही से रक्त भी निकला था। ऊपर के होंठ पर हाथी के दाँत के निशान थे और सिर पर तेज वार हुआ था।
अपने गंजेपन को छुपाने को सदैव बड़ी सी पगड़ी (साफा) पहना करते थे, उसी से घातक वार का असर कुछ कम हो गया था। तब तक म. श्रीनिवासचार्य व अन्य साथी व मित्र आ गए
थे। गाड़ी में रायपेठ अस्पताल ले जाया गया। कुछ दिनों तक काफी तकलीफ रही, पूरे बदन में दर्द भी रहा। ठीक और स्वस्थ हो जाने पर अपने एक आलेख (स्वदेशमित्रन में)
में उन्होंने लिखा 'गजराज भूल गए कि वो कौन हैं इसीलिए गिरा दिया। यदि पहचान लेता तो गिराता नहीं और उसका मकसद अगर कष्ट देने का होता तो नीचे गिरे व्यक्ति को
उठा फेंकने या कुचलने में उसे वक्त ही कितना लगता। गलती हो गई उसके बाद शांत चित्त खड़ा रहा, जिसका अर्थ था उसका मेरे प्रति स्नेह।'