पुस्तक का प्रकाशन एक छोटा सा सपना होने की तरह होता है। एक लेखक के लिए लेखनी द्वारा अपने विचार, अपनी सोच, सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने
का यही तो माध्यम होता है। एक गृहिणी के दायित्व के साथ-साथ इस दायित्व को पूरा करने में लंबे अरसे से लगी हुई थी।
स्त्री अपने उदर में गर्भ धारण नौ महीने तक करती है। इन नौ महीनों में वो खुशी, पीड़ा, व्यग्रता, चिंता और भी न जाने कितने एहसासों से गुजरती है। वही हाल एक लेखक
का भी होता है। सुब्रमण्यम भारती के बारे में अधिक जानने की इच्छा मेरे मन में कई वर्षों पूर्व आ चुकी थी। जब केंद्रीय विद्यालय में बेटे अनिरुद्ध को दाखिला
दिलाया था। वहाँ सर्वधर्म प्रार्थना में भारतीजी की 'ओडी विलैयाडु पापा' को पढ़कर मन की जिज्ञासा बढ़ती गई। एक ऐसे माहौल में जहाँ छात्र-छात्राओं को मशीनरी रोबोट
की तरह स्कूल-कोचिंग कक्षाओं के बीच संचालित किया जाता है वहाँ तो भारतीजी की बच्चों के प्रति सोच बहुत मायने रखती है।
एक नन्हीं चिनगारी के रूप में मन में दबी यह इच्छा पिछले कुछ वर्षों पहले कुछ प्रस्फुटित हुई। जिसकी प्रतिक्रिया हुई भारती के जन्म-स्थान एटैयापुरम, चेन्नै,
पांडिच्चेरी की अनेक बार यात्राएँ। अनेक लोगों से संभाषण, संदर्भ पुस्तकों का क्रय, वहाँ के पुस्तकालयों में जाकर कुछ अध्ययन। वास्तव में ये सारी क्रियाएँ इतनी
भाने लगीं थीं कि अधिक से अधिक जानकारी लेने में ही दिली खुशी होने लगी। जब मन खुशी से या एक तंद्रा के तहत हो जाता है तो एकबारगी उसे जगाना पड़ा कि असली मकसद
क्या था; किस कारण इन कार्यों की ओर रुख किया। तब जाकर लगभग तीन वर्ष पहले इसे प्रारंभ किया। कई रुकावटों, अड़चनों के बाद जब यह संपूर्ण हुआ तो दो एहसास एक साथ
मन में आए। एक तो मकसद पूरा होने की प्रसन्नता, दूसरा भारतीजी से सतत संपर्क टूट जाएगा, इस बात का दुख। पर देर सबेर ये तो होना ही था। यदि इस समय इस कार्य की
इतिश्री नहीं करती तो शायद यह कभी पूर्ण होता ही नहीं।
इस कार्य को संपूर्ण कटिबद्धता एवं चाह के साथ संपन्न करते हुए भी कई बातों की कमी खल सकती है। लिखते-लिखते मेरे मन कों कई बार लगा कि ओह, ये बात तो रह ही गई,
या इसका उल्लेख करना था। ऐसे अवसरों पर निशान लगा कर कागज की पर्चियों पर लिख कर भेजती और मेरी गुणी टाइपिस्ट उन्हें सही तरह से टंकन कर देती। इसके बावजूद भी
कहने को कुछ रह ही जाता होगा और इसी छूटे हुए की ओर पाठक की जिज्ञासा सिर उठाए तो आश्चर्य नहीं।
हिंदी भाषा ने मुझे साहित्यिक वातावरण देकर साहित्य के प्रति रुझान पैदा किया। हिंदी भाषी लोगों को दक्षिण भारत के कुछ पहलुओं से अपनी कहानियों द्वारा जानकारी
देती रही हूँ। मेरी इसी भली मंशा के तहत एक महान चिंतक, प्रगतिशील राष्ट्रभक्त, कवि के जीवन से परिचित कराने जा रही हूँ।
इस समय मन में भावनाओं का उफान सा आया हुआ है। अपने पूर्वजों खास कर अपने स्वर्गीय माता-पिता का स्मरण करती हूँ तो लगता है कि मेरे इस प्रयास से बहुत प्रसन्न
होकर आशीर्वाद दे रहे हों।
उपसंहार में अपने मन की संपूर्ण भावना और सोच को संक्षेप में कह कर धन्यवाद ज्ञापन भी कर रही हूँ।
सर्वप्रथम श्री एस.वी. सुब्रमण्यमन का जिन्होंने तीन वर्ष पूर्व एटैयापुरम, वहाँ का राज महल, पुस्तकालय आदि में मेरी सहायता के लिए अपने साथियों से बात कर ली
थी। पिछले वर्ष चेन्नै, पांडिचेरी की यात्रा में विद्वान वक्ता एवं भारतीजी पर जिन्होंने बहुत कार्य किया था, आदरणीय श्रीमान मु. श्रीनिवासन जिन्होंने प्रसन्नता
से इस शुभ कार्य के लिए मदद और आशीर्वाद दिया। अमेरीका में मेरे बड़े भाई साहब श्रीनिवास अय्यर के खास दोस्त श्री गोपाल सुंदरम का जिन्होंने पितृसम आदरणीय मु.
श्रीनिवासन से भेंट करवाई।
इसके अलावा धन्यवाद ज्ञापन देना होगा, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली के श्री देवदत्त शर्मा (आर्य) का जिन्होंने सहर्ष प्रकाशन का जिम्मा निभाया। वरना सारी मेहनत धूल
खाती पड़ी रहती।
इस पुस्तक के हर अध्याय के प्रारंभ में भारती की कविता का भावानुवाद दिया गया है। भारती जैसे महान कवि जिनकी रचनाओं का अथाह सागर है! हर मौके, हर व्यक्ति के लिए
कुछ न कुछ उक्ति इस सागर में समाई हुई है। मेरे लिए इनको ढूँढ़ना लगभग असंभव और भूसे के ढेर में सुई ढूँढ़ने के समान होगा।
मेरे मित्र श्री वी.एस. सुब्रमण्यमन पेशे से सी.ए. हैं और इंदौर शहर में जाना हुआ नाम है। तमिल साहित्य के शौकीन और जानकार। इन्होंने इस महती कार्य को पूरा
किया। इन्हें धन्यवाद देकर एक पारिवारिक उदार मित्र को खोना नहीं चाहती। पर अपनी कृतज्ञता न दिखाकर कृतघ्न भी नहीं होना चाहती।